राकेश अचल
बंगाल में जादू हुआ या नहीं, ये तो भगवान जाने या बंगाल को सोनार बांग्ला बनाने वाले लोग, मेरी चिंता का विषय तो यह है कि जिस बंगाल में ज्योति बसु ने एक चौथाई सदी राज किया था, उसी बंगाल में वामपंथियों को पांव रखने की भी जगह क्यों नहीं मिली? वामपंथियों की यह दुर्दशा कांग्रेस से भी ज्यादा चौंकाने वाली है। लोकतंत्र के लिए यह खतरनाक सन्देश भी है क्योंकि बंगाल में यदि भाजपा 3 से 77 तक पहुंची है तो इसमें सबसे ज्यादा योगदान उन सीटों का है जो पहले वामपंथियों के पास थीं।
बंगाल की राजनीति पर मीलों दूर बैठकर साफगोई से नहीं लिखा जा सकता, लेकिन चिंता जरूर की जा सकती है। आज देश में केरल को छोड़ और कहीं वामपंथी दिखाई नहीं देते, जबकि विचारधारा और कैडर के लिहाज से वामपंथी आरएसएस से कहीं ज्यादा मजबूत माने जाते थे। बंगाल में वामपंथ के पास एक मजबूत जमीन थी, लेकिन अब वहां वामपंथियों का कोई नामलेवा नहीं है। कम से कम जनादेश तो यही प्रमाणित करता है। वाम इलाकों में अचानक कमल खिल गया। भाजपा हालाँकि अपने घोषित लक्ष्य 200 सीटों के आधे भी हासिल नहीं कर सकी लेकिन उसने तृणमूल कांग्रेस को नुक्सान पहुँचाने के बजाय वामपंथियों से उनकी सीटें छीन लीं।
बंगाल विधानसभा चुनावों में इस बार अजीब किस्म का वोट बँटवारा हुआ है। भाजपा तो अपने अस्तबल के सभी घोड़े छोड़कर भी ममता बनर्जी को सत्ताच्युत नहीं कर सकी, लेकिन उसने वामपंथियों की पूरी जमीन रौंद कर फेंक दी। बंगाल की ममता बनर्जी को भी इससे हैरानी है। वह भाजपा के मुकाबले वामपंथियों को अपना श्रेष्ठ प्रतिद्वंद्वी मानती हैं। आपको याद होगा कि एक दशक पहले ममता ने ही बंगाल से वामपंथियों का तम्बू उखाड़ा था।
वामपंथियों से मेरी निकटता रही है इसलिए मुझे यह समझने में दिक्कत हो रही है कि उनकी इस दुर्दशा का कारण क्या मौजूदा नेतृत्व है या वामपंथियों की विचारधारा में कहीं से कोई कमजोरी आ गयी है। मैंने वामपंथियों की सियासत का स्वर्ण युग भी देखा है और अब पराभव भी देख रहा हूँ। लगता है कि वामपंथियों की मौजूदा पीढ़ी कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत या बीटी रणदिवे जैसी मेहनत नहीं कर पा रही है। वामपंथियों के पास आज जो नेता हैं, वे नि:संदेह समर्पित नेता है किन्तु जनता में उनकी अपील का असर अब दिखाई नहीं देता।
बंगाल में शून्य पर आउट हुए वामपंथियों ने भाजपा को पिच पर खड़े तक नहीं होने दिया इसलिए कभी-कभी लगता है कि वामपंथियों की विचारधारा में कहीं कोई खोट नहीं है, अगर कहीं कुछ गड़बड़ है तो वो है संगठन के स्तर पर। अगर वे समय रहते इस कमजोरी को दूर कर लेते हैं तो ठीक है वरना उनकी दशा और खराब हो जाएगी। लोकतंत्र में विचारधारा पर आधारित पार्टियां शुरू से रही हैं लेकिन अब तमाम चीजें बदल गयी हैं, बदलती ही जा रही हैं। ऐसे में जरूरी है कि वामपंथी अपने गिरेबान में फौरन झांकें। वामपंथ की चादर के लगातार सिकुड़ने के अनेक कारण हैं। एक कारण देश में औद्योगिक वातावरण में आई तब्दीली है। कर्मचारी संगठनों के पास करने को काम नहीं है क्योंकि अब श्रम कानूनों में भारी तब्दीली कर दी गयी है।
बहरहाल कोरोना से जूझ रहे देश में वामपंथ की फ़िक्र करना अप्रासंगिक तो नहीं लेकिन अनिवार्य जरूर है। गठबंधन के इस दौर में सबको मिलजुलकर अभी से 2024 के बारे में चिंतन शुरू कर देना चाहिए। देश को कमजोर कांग्रेस और कमजोर वामपंथ नहीं चाहिए। फासीवाद की आंधी को रोकने के लिए जिसका जहाँ प्रभाव है उसे वहां मजबूती से खड़ा होना होगा, अन्यथा हम ताली और थाली बजाते ही रह जायेंगे। जनादेश को शिरोधार्य करने वाले और जनादेश को दलबदल के जरिये अपने मन माफिक बना देने वाले लोग भी इस बात को समझें कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए देश को क्या-क्या चाहिए?
आपको याद रखना होगा कि देश की आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब बंगाल की विधानसभा में कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट का एक भी विधायक नहीं होगा। गौरतलब है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 44 और वामपंथियों ने 26 सीटें जीती थीं । 292 में से 213 सीटें जीतकर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने बंगाल की सत्ता में लगातार तीसरी बार वापसी की है। टीएमसी को प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी से दस फीसदी वोट ज्यादा मिले।
आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा में लेफ्ट फ्रंट का एक भी नुमाइंदा नहीं पहुंच पाया है। यह वही फ्रंट है, जिसने तकरीबन साढ़े तीन दशक तक प्रदेश पर राज किया था। अपने तबाह हो चुके कुनबे को समेटने के लिए लिए लेफ्ट ने इस बार कांग्रेस के साथ-साथ फुरफुरा शरीफ के एक मौलाना के इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ा था, लेकिन कभी लाल सलाम करने वाली धरती के लोगों ने उसे पूरी तरह से टाटा-बाय-बाय कर दिया। 294 सीटों वाली पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जिन 292 सीटों पर वोटिंग हुई, उसमें सिर्फ भांगर सीट ही ऐसी रही, जहां आईएसएफ समर्थित उम्मीदवार एक सीट जीत पाया है, वरना पूरे बंगाल में संयुक्त मोर्चा का कोई नाम लेने वाला भी नहीं बच पाता।
हैरानी की बात तो यह है कि सीपीएम पोलित ब्यूरो अपनी जमीन खिसकने की चिंता करने से ज्यादा इस बात पर खुश हो रहा है कि भाजपा की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। पार्टी के मुताबिक, ‘’पश्चिम बंगाल में अपने मनी पॉवर और जोड़-तोड़ के बावजूद भाजपा को तगड़ा झटका लगा है। बंगाल के लोगों ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की विचारधारा को पूरी तरह से खारिज कर दिया है…..बीजेपी को हराने की अपील की वजह से बहुत ज्यादा ध्रुवीकरण हो गया, जिसका खमियाजा संयुक्त मोर्चा को उठाना पड़ा।‘’ एक वरिष्ठ सीपीएम नेता ने कहा कि ‘‘यहां तक कि हमारे समर्थकों को भी लगा कि बीजेपी को रोकने के लिए उन्हें टीएमसी को वोट देना चाहिए। इसलिए हम अपनी जीतने वाली सीट भी टीएमसी से हार गए। हालांकि, हम लोगों के लिए काम कर रहे हैं।‘’
बहरहाल वामपंथियों और कांग्रेसियों के पास अपनी-अपनी कमीजें उतारकर नए संघर्ष के लिए तैयारी करने का पर्याप्त समय है। यदि ये दोनों दल समझदारी से काम करें तो ही बंगाल में लिखे गए विजय अध्याय का अगला पृष्ठ लिखा जा सकेगा, अन्यथा नहीं। आने वाले दिनों के लिए ममता बनर्जी एक उम्मीद की किरण तो फिलहाल हैं ही, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बाजीगरी को नाकाम करने में सफलता हासिल जो की है। (मध्यमत)
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