हेमंत पाल
हिंदी फिल्मों को हिट कराने के अपने अलग ही टोटके हैं। कभी किसी क्लाइमैक्स से कोई फिल्म हिट हो जाती है, तो उसे टोटके की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर लिया जाता है। इसलिए कि हिंदी फिल्मों के दर्शकों की पसंद-नापसंद का किसी को पता नहीं। जिस सलमान खान के नाम पर बॉक्स ऑफिस के सामने लाइन लग जाती है, उसी सलमान की फिल्म ‘ट्यूब लाइट’ ईद के दिन रिलीज होकर फ्लॉप हो जाती है। अमिताभ बच्चन और आमिर खान की फिल्म ‘ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान’ ऐसे धड़ाम से गिरती है, कि पानी तक नहीं मांगती।
यही कारण है कि फिल्मकार टोटकों के बहाने फिल्म हिट कराने के फॉर्मूले ढूंढा करते हैं। ऐसा ही एक फार्मूला है, हीरो की मौत का। कुछ फ़िल्में सिर्फ इसलिए चल निकलीं, कि उनमें हीरो की मौत ने दर्शकों को रुला दिया था। अमिताभ बच्चन की दीवार और शोले, राजेश खन्ना की ‘आनंद’ की सफलता के पीछे एक कारण यह भी माना जाता है। ‘गाइड’ में भी फिल्म के अंत में देव आनंद की मौत हो जाती है। फिल्म में हीरो के मरने का फार्मूला नया नहीं है। जब से फ़िल्में बनाना शुरू हुईं, इसका सैकड़ों बार इस्तेमाल किया जा चुका है।
दिलीप कुमार से लगाकर राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार तक की फिल्मों में हीरो की मौत हुई। आज के दौर की आशिकी, रांझणा, शॉर्टकट, रोमियो, लुटेरा से लेकर ‘धड़क’ तक में हीरो को मारा गया। इन दिनों फिर यह फिल्मों का नया ट्रेंड बनता जा रहा है। संजय लीला भंसाली की अधिकांश फिल्मों में नायक का अंजाम यही होता है। मिलन लुथरिया की फिल्म ‘वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ के अंत में अजय देवगन और उसके सीक्वल में अक्षय कुमार के मरने के दृश्य हैं। तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘बुलेट राजा’ में सैफ अली खान की मौत होती है।
फ़िल्मी प्रेम कहानियों का एक कड़वा सच है कि इनका अंजाम सुखद नहीं होता। ऐसी कहानियों को सच्चाई से जोड़ने के लिए एक्टर का मरना जरूरी होता है। ऐसा होता है, तभी दर्शक इससे खुद को जोड़कर महसूस करते हैं। इससे दर्शकों की भावनाएं द्रवित होती है और फिल्म के प्रति आकर्षण बढ़ता है। देखा गया है कि फिल्मों में दुखद अंत हमेशा से कामयाबी का कारण बने हैं।
मुगल-ए-आजम, एक दूजे के लिए, कयामत से कयामत तक, ‘शोले’ तथा हॉलीवुड की ‘टाइटैनिक’ इसके जीवंत उदाहरण हैं। ट्रैजेडी लोगों की जिंदगी की हकीकत है। यही कारण है, कि जब दर्शक उस ट्रैजेडी को परदे पर घटित होते देखते हैं, तो उससे जुड़ जाते हैं। इसलिए कि हिट फिल्मों का कोई निर्धारित फार्मूला तो है नहीं। दर्शकों को उद्वेलित करके यदि उन्हें सिनेमाघर तक खींचा जा सकता है तो फिल्मकार इसे भी आजमाने से नहीं चूकते।
ताजा दौर के हीरो में अक्षय कुमार ऐसे अभिनेता हैं, जो कई फिल्मों के अंत में मारे गए हैं। इस लिस्ट में ‘केसरी’ तेरहवीं फिल्म थी, जिसमें ईशर सिंह अंत में मारा जाता है। 2.0, राउडी राठौर, खाकी, गब्बर इज बैक, अजनबी, फैमिली, जॉनी दुश्मन, संघर्ष, अफलातून, खिलाड़ी 420, तस्वीर और ‘दोस्ती: फ्रेंड्स फॉरएवर’ भी ऐसी फ़िल्में थी जिनमे अक्षय की मौत के दृश्य फिल्माए गए। ‘रांझणा’ में धनुष, ‘देवदास’ और ‘ कल हो न हो’ में शाहरुख़ खान, ‘सत्या’ में मनोज बाजपेई की मौत होती है।
‘काई पो चे’ में सुशांतसिंह राजपूत, ‘शाहिद’ में राजकुमार राव, ‘ओंकारा’ और ‘ वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’ में अजय देवगन, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में मनोज बाजपेई, ‘धूम’ में जॉन अब्राहम, ‘जन्नत’ में इमरान हाशमी फिल्म के हीरो थे, पर अंत में इनकी मौत हो जाती है। ‘क्योंकि’ में सलमान खान, ‘आशिक़ी 2’ में आदित्य रॉय कपूर और ‘धड़क’ के अंत में हीरो ईशान खट्टर की मौत फिल्माई गई। ‘रंग दे बसंती’ में के अंत में हीरो आमिर खान की मौत होती है।
तीन फ़िल्में ऐसी है, जिनमें हीरो की मौत के दृश्य बेहद प्रभावशाली रहे और दर्शक सुबकते हुए सिनेमाघर से बाहर निकले। ये फिल्म थी ‘आनंद’ जिसके आखिरी सीन में राजेश खन्ना ने जान डाल दी थी। यही कमाल अमिताभ बच्चन ने ‘दीवार’ और ‘शोले’ में किया और दर्शकों का दिल जीत लिया था। लेकिन, इससे पहले ‘गाइड’ में देव आनंद ने कमाल किया था, उसका कोई जवाब नहीं।
हीरो की मौत के सुपरहिट फॉर्मूले का जिस एक एक्टर पर अभी तक प्रयोग नहीं किया गया, वे हैं रजनीकांत। वे दक्षिण और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अलावा विदेशों में भी अपनी पहचान रखते हैं। बॉक्स ऑफिस पर उनके नाम से ही फिल्म हिट हो जाती है। इस सुपरस्टार की लोकप्रियता इतनी ज्यादा है, कि कोई भी डायरेक्टर उनकी मौत का दृश्य फिल्माने की हिम्मत नहीं कर पाया। उन्हें डर लगता है कि अगर उन्होंने परदे पर रजनीकांत को मरते दिखाया, तो कहीं फिल्म फ्लॉप न हो जाए। इस कारण रजनीकांत ने बरसों से मरने का सीन नहीं किया।
इंडस्ट्री में एक मनहूस सच्चाई ये भी है कि के. आसिफ ने जिस भी हीरो को अपनी फिल्म के लिए साइन किया, उसकी मौत हो गई। उन्होंने अपनी फिल्म ‘मुगल ए आजम’ का नाम पहले ‘अनारकली’ रखा था और नूतन को उस रोल के लिए साइन किय़ा था, जिसे बाद में मधुबाला ने निभाया। उन्होंने फिल्म की कहानी सैयद इम्तियाज अली ताज के उपन्यास ‘अनारकली’ से ली थी और चंद्रमोहन को बतौर हीरो लिया था। दस रील शूट भी हो गईं, लेकिन चंद्रमोहन की अचानक मौत हो गई। बाद में दिलीप कुमार को हीरो लिया तो नूतन ने काम करने से इंकार कर दिया।
इसके बाद मधुबाला को साइन किया और फिल्म का नाम भी ‘अनारकली’ से ‘मुगल-ए-आजम’ कर दिया गया। के. आसिफ ने गुरुदत्त को लेकर ‘लव एंड गॉड’ बनाना शुरू की, तो गुरुदत्त चल बसे। फिर उन्होंने इस फिल्म में संजीव कुमार को साइन किया तो उनका भी फिल्म पूरी होने से पहले निधन हो गया। उनकी मौत के 23 साल बाद उनकी पत्नी ने 1986 में इस अधूरी फिल्म को किसी तरह रिलीज किया था। यानी कि फिल्म में हीरो की मौत को कामयाबी की तरह आजमाने के किस्से अनंत हैं।