आपने देखा होगा कि जब जब भी राजनीति या राजनेताओं को न्यायालय के फैसले का इंतजार होता है या फिर जब उनके अनुकूल फैसला आ जाता है तब तब उनका शाश्वत बयान होता है- ‘’हमें न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है।‘’ लेकिन जब जब न्यायपालिका से अनुकूल फैसला नहीं होता, कोई कुछ कहता नहीं, लेकिन रवैया साफ बताता है कि ऐसी न्यायपालिका हमारे ठेंगे से…
ताजा मामला राष्ट्रीय समस्या बन चुकी संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ उर्फ ‘पद्मावत’ का है। देश करीब करीब साल डेढ़ साल से इस फिल्म से उलझ रहा है। ऐसा लगता है कि या तो देश के लोगों के पास कोई काम बचा ही नहीं है या फिर देश की बाकी समस्याएं हल हो चुकी हैं और बस एक ही समस्या बची है ‘पद्मावती’ उर्फ ‘पद्मावत’ की रिलीज…
परंपरागत रूप से लिखना होता तो मैं लिखता कि इस फिल्म के विवाद की गंगा में सब अपने हाथ धो लेना चाहते हैं। लेकिन अब जमाना बदल गया है, आज ऐसा लगता है मानो इस विवाद के नाले में जाने कौन कौन, निवृत्त हो लेना चाहता है। जिद की हद यह है कि चाहे फैसला करने वाली कोई विधिमान्य संस्था हो या फिर स्वयं न्यायालय, यहां किसी की नहीं सुनी जा रही।
और अब तो पानी इस हद तक सिर से गुजर गया है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद उससे भी मुंहजोरी की जा रही है। पद्मावती पर जब बवाल हुआ तो संसदीय समिति से लेकर सेंसर बोर्ड तक ने उस पर हर लिहाज से मंथन किया। बाद में सेसर बोर्ड ने कुछ बंदिशों/परिवर्तनों के साथ फिल्म को प्रमाण पत्र जारी करने पर सहमति दे दी।
फिल्म के निर्माताओं ने सेंसर बोर्ड के सुझावों को स्वीकार करते हुए फिल्म में आवश्यक परिवर्तन भी कर डाले। फिर सेंसर बोर्ड की मंजूरी मिलने के बाद उन्होंने इसके रिलीज होने की तारीख 25 जनवरी तय की। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी फिल्म के प्रदर्शन को हरी झंडी दिखा दी। लेकिन देश के 68 वें गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन पहले प्रस्तावित इस अदनी-सी घटना को, भारत देश का इतना महान गणतंत्र झेल नहीं पा रहा है।
इस मामले में सबसे ज्यादा तरस देश की उन राज्य सरकारों पर आता है जो फिल्म को किसी भी सूरत में, ध्यान दीजिए, किसी भी सूरत में रिलीज न होने देने पर अड़ी हुई हैं। फिल्म पर चार राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और हरियाणा ने प्रतिबंध लगाया था और सुप्रीम कोर्ट ने 18 जनवरी को उसे खारिज करते हुए फिल्म के रिलीज होने का रास्ता साफ कर दिया था।
लेकिन इस फैसले के खिलाफ राजस्थान और मध्यप्रदेश की सरकारें पुनर्विचार याचिका लेकर फिर सुप्रीम कोर्ट के पास गईं और मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों की वे याचिकाएं भी खारिज कर दीं। अब देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आने के बावजूद राज्य सरकारें दाएं बाएं हो रही हैं।
मंगलवार को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहा कि ये सिर्फ लॉ एंड आर्डर का मामला नहीं है, बल्कि लोगों की भावनाओं से जुड़ा सवाल है, इसलिए सरकार पुनर्विचार याचिका दायर करेगी। कानून मंत्री रामपाल सिंह ने कहा कि हम कानूनी विशेषज्ञों से सलाह लेकर फिर से सुप्रीम कोर्ट से संपर्क करने के विकल्प तलाशेंगे।
अब जरा वह बात भी सुन लीजिए जो सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इन राज्यों की पुनर्विचार याचिका खारिज करते हुए कही है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के साथ एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने अपने पूर्व आदेश में कोई भी बदलाव करने से इनकार करते हुए कहा कि सभी राज्यों को सर्वोच्च अदालत के फैसले का सम्मान करना चाहिए। इसका पालन करवाना राज्य सरकारों का दायित्व है।
पीठ की यह टिप्पणी काफी मायने रखती है कि ‘’राज्यों ने बिना मतलब की यह समस्या ख़ुद पैदा की है और इसके लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं। राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि अपने क्षेत्र में कानून-व्यवस्था बहाल करें।‘’ इसके साथ ही कोर्ट ने फिल्म पर रोक लगाने संबंधी राजपूत करणी सेना और अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की याचिकाएं भी ख़ारिज कर दी हैं।
दुर्भाग्य की बात है कि इसके बावजूद पूरे देश में फिल्म का प्रदर्शन रोकने को लेकर हिंसक घटनाएं हो रही हैं। यह जानने के लिए किसी गहरी छानबीन की जरूरत नहीं है कि पद्मावत और राजपूत गौरव के मुद्दे को राजनीतिक हितों के चलते ही इतना तूल दिया गया और अब जो हठधर्मिता दिखाई जा रही है उसके पीछे भी सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक की चिंता है।
इस बात की चिंता कोई नहीं कर रहा कि इस हठधर्मिता के चलते सेंसर बोर्ड जैसी विधिवत स्थापित संस्थाओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट जैसी सुप्रीम संवैधानिक संस्था की सीधी सीधी अवहेलना हो रही है। जो राज्य सरकारें कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए संविधान की शपथ लेकर सत्ता में आती हैं वे ही हिंसक घटनाओं और हिंसक तत्वों को प्रश्रय देने का टूल बनी हुई हैं।
कहा यह जा रहा है कि यह कानून व्यवस्था का नहीं जन भावनाओं का मामला है। तो इसके जवाब में तमाम राष्ट्रभक्त सरकारें जरा करणी सेना के एक प्रमुख नेता महिपाल सिंह का वो बयान देखें जिसमें उन्होंने भारतीय सेना के ‘क्षत्रिय’ जवानों से ‘पद्मावत’ के विरोध में एक दिनके लिए मेस के खाने का बहिष्कार करने को कहा। यह सीधे सीधे सेना के अनुशासन को भंग कर उसे बगावत के लिए उकसाने का मामला है। बात बात पर राष्ट्रद्रोह का फतवा देने वाले क्या इस बयान पर कुछ गौर करेंगे?
बात कहां तक जा पहुंची है इसका अंदाजा आपको आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमएलएम) के नेता असदुद्दीन ओवैसी के उस बयान से मिलेगा जिन्होंने मुसलमानों पर लानत भेजते हुए कहा है कि ‘’जब 4 फीसदी राजपूत एकजुट होकर ‘पद्मावत’ रिलीज के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर सकते हैं तो 14 फीसदी मुसलमान शरीयत कानून को बचाने के लिए क्यों नहीं एकजुट हो सकते हैं?
इतना होने पर भी यदि सरकारें चुप हैं तो फिर क्या हम यह समझें कि गणतंत्र दिवस पर हमारी सरकारें हमें संविधान के चीथड़े सौगात में देने जा रही हैं?