6 जुलाई को मध्यमत ने ‘’एनजीओवाद की कोख से उपजे आन्दोलनजीवी…’’ शीर्षक से डॉ. अजय खेमरिया का एक आलेख प्रसारित किया था। उस पर हमें अनेक प्रतिक्रियाएं मिली हैं। ‘विकास संवाद’ के सचिन जैन ने एनजीओ की स्थिति और उनके सामने मंडरा रहे संकट पर दूसरे नजरिये से विचार किया है। हम सचिन जैन का वह आलेख दो कडि़यों में प्रसारित कर रहे हैं। आज पढि़ये उसकी पहली कड़ी। इस पर भी आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है।- संपादक
सामाजिक नागरिक संस्थाओं के समक्ष चुनौतियां
सचिन कुमार जैन
आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं ने भारत में नागरिक पहल और सामाजिक नागरिक संस्थाओं के सामने पहचान का संकट खडा कर दिया है। इस संकट को महत्व इसलिए भी मिला क्योंकि संस्थाओं का समूह खुद भी आत्म विश्लेषण के लिए तैयार नहीं होना चाहता है। जब सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं में बदलाव आता है, तब सामाजिक नागरिक संस्थाओं को भी स्वयं के बारे में, स्वयं के चरित्र और रणनीतियों के बारे में चिंतन-समीक्षा करना चाहिए। यह काम सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि संस्थाओं की जड़ें कमज़ोर होती गईं।
इस तथ्य से कोई असहमत नहीं हो सकता है कि एक सभ्य-सजग और लोकतांत्रिक समाज को स्वस्थ बनाए रखने के लिए नागरिक पहल एक अनिवार्य जरूरत होती है, लेकिन यह भी उतना महत्वपूर्ण सच है कि संस्थाओं को अपने मूल्यों और विचारों को बरकरार रखते हुए अपने आप को नए माहौल के मुताबिक़ तैयार करने की पहल करना चाहिए थी। इसमें चूक तो हुई है।
छवि और स्वीकार्यता के प्रश्न
सामाजिक नागरिक संस्थाओं के बारे में यह धारणा स्थापित की जा रही है कि वे विकास विरोधी, धर्म विरोधी, शहरीकरण विरोधी और सरकार विरोधी होती हैं। उनका उद्देश्य अस्थिरता लाना होता है। लेकिन तथ्य कुछ और ही कहते हैं। तथ्य ये हैं कि मानव अधिकारों के संरक्षण, शिक्षा के अधिकार, जलवायु परिवर्तन, वन अधिकार, सूचना के अधिकार, स्वास्थ्य, पोषण और खाद्य सुरक्षा के अधिकार, विस्थापन के दर्द को नीति और न्याय के पटल पर लाने का काम वास्तव में सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने ही किया है।
एक कथानक यह भी बनाया गया है कि उक्त संस्थाओं की प्रशासन व्यवस्था कमज़ोर और अपारदर्शी होती है। जबकि वास्तव में इन संस्थाओं पर 15 क़ानून प्रत्यक्ष रूप से लागू होते हैं और इन्हें सरकार द्वारा विशेष रुचि लेकर लागू करवाया भी जाता है। यह कहा जाने लगा है कि अब संस्थाएं समाज से कटी हुई हैं। कॉरपोरेट संस्कृति से संचालित होती हैं। इनमें कहीं शीर्ष पर निर्णय लिए जाते हैं और समुदाय पर लागू किये जाते हैं। यह उतना ही सच है, जितना की हमारी राज्य व्यवस्था की कार्यशैली का भी शीर्ष से संचालित होने का सच है।
उक्त संस्थाओं को विवश किया गया है कि वे अपने तात्कालिक लक्ष्यों और कार्यक्रम की उपलब्धियों पर ध्यान केन्द्रित करें। अब तो भारत सरकार और जांच एजेंसियां भी यह जानना चाहती हैं कि संस्थाओं ने कितने बच्चों को स्कूल बैग बांटे, कितने स्वास्थ्य शिविर लगाए, कितने वृद्धों को आश्रय दिया? केवल चैरिटी के काम की ही अनुमति है, समालोचना, समीक्षा और विचार की अनुमति नहीं है! जबकि मूलतः उनका लक्ष्य तो समाज में समानता, न्याय और बंधुता के मूल्यों को स्थापित करना होता है।
हर स्तर पर ख़ास तरह की व्यवस्थाएं बना कर संस्थाओं को अपने दीर्घकालिक लक्ष्य से विचलित किया गया है। इन संस्थाओं का स्वभाव होता है कि वे किसी भी विषय को व्यापक नज़रिए के साथ देखें-समझें, समाज की समस्याओं को एक दूसरे के साथ जोड़कर अपने कार्यक्रम संचालित करें। ऐसा नहीं माना गया कि संस्थाओं को एक ही विषय पर काम करना चहिये और बाकी विषय छोड़ देने चाहिये। अब कथानक बदल दिया गया है। किसी भी संस्था से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी भी एक विषय की विशेषज्ञ बन जाए और अन्य विषयों में दखल न दे या पहल न करे। ऐसी सोच से सामाजिक नागरिक संस्थाओं का वैचारिक आधार कमज़ोर हुआ है और वे अपनी भूमिका को निभाने में कमज़ोर साबित होने लगी हैं।
अब उक्त संस्थाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे तमाम आधुनिक जटिल तकनीकों को अपनाएं। उन पर दबाव है कि वे जटिल अध्ययन भी करें, जटिल प्रशिक्षण भी करें, उनकी सारी प्रस्तुति अंग्रेजी भाषा में हो। उन्हें लगातार नवाचार करते रहना चाहिए ताकि उनकी स्वीकार्यता बनी रहे। छोटी-मझोली-क्षेत्रीय सामाजिक नागरिक संस्थाओं से बहुत अधिक तकनीकी कौशल के साथ काम करने की अपेक्षा की जाने लगी है। जबकि दूसरी तरफ भारत में सामाजिक नागरिक संस्थाओं को (खासकर उन्हें जो छोटे और मझोले आकार की हैं और अंचलों में स्थानीय भाषा में सबसे वंचित समूहों के साथ सामाजिक आर्थिक बदलाव लाने का प्रयास कर रही हैं), अपनी क्षमताएं विकसित करने और अपेक्षाओं के अनुसार व्यवस्थाएं बनाने में कोई मदद नहीं की जाती है। परिणाम यह कि सकारात्मक नज़रिए से समाज में काम करने वाली संस्थाएं “व्यवस्थागत अपेक्षाओं” के चलते नकारात्मक छवि की शिकार हो जाती हैं।
सामाजिक नागरिक संस्थाएं और विविधता
यहाँ वस्तुतः हम विविधता का सन्दर्भ संस्था के बोर्ड, संचालन समूह और वहां काम करने वाले लोगों के समूह में सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक-लैंगिक विविधता से ले रहे हैं। चूंकि ये संस्थाएं समतामूलक समाज के निर्माण के सपने को शिरोधार्य करती हैं, इसलिए यह जांचना बहुत जरूरी हो जाता है कि इन संस्थाओं में सबसे पहले विविधता का समावेश हो। मौजूद अनुभव यह बताते हैं कि यह कतई आवश्यक नहीं है कि समाज का जो समुदाय वंचितपन से त्रस्त है, वही अपना संघर्ष खड़ा करे या संस्थागत पहल करे। वहीँ दूसरी तरफ, ऐसे संस्थागत और आन्दोलनों के प्रमाण भी सामने हैं, जहाँ आदिवासी-दलित और लैंगिक असमानता के विषयों पर उन्हीं समुदायों ने पहल की, जो असमानता का दंश भुगत रहे हैं। इन संस्थाओं में विविधता से जुड़े पहलू को हम पांच बिन्दुओं के साथ बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
1- भूमिकाओं के स्तर– भारत में उक्त संस्थाओं का एक वृहद् समुदाय है और इस समुदाय में शामिल संस्थाएं अलग-अलग रणनीतियों और सोच के साथ सामाजिक-आर्थिक बदलाव की पहल करती हैं। संस्थाओं के एक बड़े तबके में यह नज़र आता है कि वहां नेतृत्व और निर्णायक भूमिकाओं में वंचित और उपेक्षित तबकों से जुड़े व्यक्तियों को महत्वपूर्ण भूमिकाएं नहीं दी जाती हैं। वहां माना जाता है कि इस तरह की भूमिकाएं निभाने के लिए विशेष किस्म के भाषाई और तकनीकी कौशल की आवश्यकता होती है, जो आदिवासी, दलित या महिला कार्यकर्ताओं में सहजता से उपलब्ध नहीं होते हैं। इस तरह की धारणा वास्तव में आदिवासी-दलित-महिलाओं में वह भूमिकाएं लेने का अनुभव और क्षमताएं ही विकसित नहीं होने देती है। विश्वास की कमी अवसर की कमी बन जाती है और अवसर की कमी नेतृत्व को पनपने नहीं देती है।
ऐसी स्थिति में हम यह पाते हैं कि आदिवासी-दलित-महिलाओं को नेतृत्व के स्तर पर अवसर नहीं मिलते, लेकिन उन्हें माध्यम या समुदाय के स्तर पर काम करने के लिए जरूर शामिल किया जाता है। वहां यह मान्यता काम करती है कि कार्यक्रम को समुदाय या मैदानी स्तर पर सफल बनाने के लिए यह जरूरी होता है कि उन्हीं समुदायों के व्यक्तियों को सामुदायिक कार्यकर्ता या सामुदायिक समन्वयक के रूप में नियुक्त किया जाए। संस्थाओं के स्तर पर यह वास्तव में एक सुरक्षित रणनीतिक पहल होती है।
इन संस्थाओं में नियुक्ति का मुख्य आधार तो कौशल, अनुभव, विशेषज्ञता और तकनीकी समझ ही होता है। अगर किसी आदिवासी, दलित, महिला या अल्पसंख्यक में ये गुण मिल जाते हैं, तो उसे नियुक्त कर लिया जाता है। ऐसा कम ही होता है कि व्यक्ति में ये गुण भले ही कुछ कमतर हों और उसमें इन गुणों के विकास की पूरी संभानाएं हों, तो उसे विविधता के नज़रिए से संस्था में शामिल कर लिया जाए।
2- विशेषज्ञ तकनीकी सामाजिक नागरिक संस्थाओं में नगण्यता– कई संस्थाएं शोध और प्रशिक्षण का काम करती हैं। इन कामों के बारे में यह माना जाता है कि इनके लिए विशेष किस्म की दक्षता, कौशल और व्यक्तित्व की जरूरत होती है। अगर शोध और अध्ययन का तकनीकी कौशल नहीं होगा, तो व्यक्ति को अवसर नहीं मिलते हैं। ऐसी स्थिति में आदिवासी-दलित-महिलायें-अल्पसंख्यक समुदायों के व्यक्तिओं को अहम् भूमिकाएं प्रदान नहीं की जाती हैं।
3- वित्तीय संसाधनों के सन्दर्भ में दुविधा और दोहरा चरित्र– संस्थाएं जिन वित्तीय संसाधनों पर निर्भर करती हैं, वहां उन्हें समाज के वंचित समूहों के व्यक्तियों को अपने काम से जोड़ने के लिए माकूल सहयोग और समर्थन नहीं मिलता है। एक तरफ तो वित्तीय संसाधन प्रदान करने वाली संस्थाएं यह कहती हैं कि उनकी साझेदार संस्थाएं वंचित समुदायों के व्यक्तियों को अहम् भूमिकाएं प्रदान करें, लेकिन दूसरी तरफ वे अपने काम की गति, गुणवत्ता और प्रभाव से सम्बंधित अपेक्षाओं को कम नहीं करती हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं होती हैं कि अगर हम संस्थाओं में विविधता लाने के लिए निवेश करेंगे, तो इससे अपने आप में बदलाव का एक बड़ा आधार तैयार हो जाएगा।
4- प्रक्रिया का अभाव– संस्थाएं एक समुदाय के बीच में लम्बे अरसे तक काम करती हैं। अगर उनके पास एक प्रतिबद्ध योजना रहे तो वे अपने कार्यक्षेत्र से ही ऐसे व्यक्तियों को तैयार कर सकती हैं, जो संस्था में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाने के लिए सक्षम हों। समुदाय में ही काम करते हुए, वहां के युवाओं को, महिलाओं को प्रशिक्षण कार्यक्रमों में ‘स्रोत व्यक्ति’ के रूप में शामिल किया जा सकता है। उन्हें स्थानीय स्तर पर शोध के लिए भी तैयार किया जा सकता है। लेकिन साथ ही यह भी जरूरी हो जाता है कि उनकी शिक्षा और तकनीकी कौशल को मज़बूत करने के लिए संस्थागत निवेश किया जा सके। वास्तव में सामजिक नागरिक संस्थाओं में सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता लाने की कोई जवाबदेह नीति नहीं होती है, यह एक वैकल्पिक शर्त होती है।
5- भीतरी ताना बाना– संस्थाओं की स्थापना और उनके स्वरूप का निर्धारण जिनके द्वारा किया जाता है, उनके अपने स्वभाव और सोच का विविधता से गहरा जुड़ाव होता है। अगर संस्था का गठन महिला, आदिवासी, दलित या अल्पसंख्यक व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तो वहां विविधता का रूप दूसरा हो जाता है। अगर तार्किक ढंग से सोचा जाए, तो दोनों ही अतिरेक की स्थितियां स्थाई बदलाव नहीं लायेंगी। वास्तव में उक्त संस्थाओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे किस तरह की विविधता की वकालत करते हैं, उसी तरह की विविधता संस्थाओं के भीतर स्थापित हो।(जारी)
कल 7 जुलाई को पढि़ये आलेख की दूसरी किस्त।
(मध्यमत)
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