माकपा का तिरंगा जश्न: ‘वक्त की पुकार’ या ‘प्रच्छन्न राष्ट्रवाद’?

अजय बोकिल

देश की आजादी के अमृत महोत्सव की एक बड़ी उपलब्धि यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम) भी पहली बार आजादी का जश्न मनाने जा रही है। इसके तहत इस साल 15 अगस्त को पार्टी के सभी कार्यालयों पर तिरंगा फहराया जाएगा। माकपा का कहना है कि ऐसा करना इसलिए जरूरी हो गया है कि आज देश में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ खतरे में है। पार्टी ने इस उपलक्ष्य में साल भर का कार्यक्रम घोषित किया है। इसके तहत आजादी की लड़ाई में वामपंथियों के योगदान को भी लोगों को बताया जाएगा। यह बात अलग है कि जिस ‘आजादी की रक्षा’ के लिए पार्टी तिरंगा फहराने वाली है, उसे कम्युनिस्ट बरसों तक ‘झूठी आजादी’ बताते रहे हैं।

इसके पहले ऐसा ही एक विरल अवसर देश में तब आया था, जब 2002 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने नागपुर मुख्यालय में तिरंगा फहराना शुरू किया था। वो देश की आजादी का पचपनवां साल था। गणितीय हिसाब से देखें तो आरएसएस को ‍अपने यहां नियमित तिरंगा फहराने में (शुरू में दो बार तिरंगा फहराया गया था, जो 1950 में बंद कर दिया) 52 साल लगे तो माकपा को यही काम करने में 57 बरस लग गए। यानी अगर राष्ट्र ध्वज का फहराना ‘नीतिगत सुधार’ का सूचक है तो आरएसएस का रवैया तुलनात्मक रूप से ज्यादा व्यावहारिक है।

पहले माकपा की बात। इस देश में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कानपुर में 1925 में हुई थी। कम्युनिस्टों ने मजदूरों और किसानों के हितों के लिए अपने ढंग से संघर्ष शुरू किया। कम्युनिस्ट आंदोलन ने देश को कई बड़े नेता दिए जैसे कि एम.एन. राय, एस.ए.डांगे, ईएमएस नम्बूदिरीपाद, गुलाम हुसैन, एस. चेट्टियार आदि। शुरू के सालों में भारत में तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा रखा था, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हटा लिया गया, क्योंकि कम्युनिस्ट रूस हिटलर के खिलाफ मित्र राष्ट्रों के साथ था। तब भी कम्युनिस्टों का एक वर्ग गांधीजी के खिलाफ था, क्योंकि वो उन्हें साम्राज्यवादी ताकतों का समर्थक मानता था।

कम्युनिस्टों ने 1946 से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेना शुरू किया। लेकिन 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी को ‘देश का बंटवारा’ कहकर अस्वीकार किया। पार्टी ने आजादी के जश्न का भी ‍बहिष्कार किया। तब पार्टी का नारा था हमे ‘राष्ट्रीय लोकतंत्र’ नहीं, ‘जन लोकतंत्र’ चाहिए। स्वतंत्रता के बाद कम्युनिस्ट और शक्तिशाली हुए। 1952 में पहली लोकसभा में वामपंथी ही मुख्य विपक्षी पार्टी थे। केरल में और देश में भी उन्होंने पहली बार सरकार बनाई, जिसके खिलाफ राज्य में कांग्रेस ने ‘मुक्ति आंदोलन’ चलाया और केन्द्र में तत्कालीन नेहरू सरकार ने कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इस बीच नेहरू के सोवियत रूस के करीब जाने से कम्युनिस्टों का रूस समर्थक धड़ा उनके साथ था तो चीन समर्थक धड़ा विरोध में हो गया।

उधर दुनिया के दो (तत्कालीन) कम्युनिस्ट देशों में तनाव का असर भारत में भी दिखा। कम्युनिस्ट पार्टी 1964 में विभाजित हो गई और चीन समर्थक माकपा का जन्म हुआ। दिलचस्प बात यह है कि कम्युनिस्ट इस देश में पंडित जवाहरलाल नेहरू के जीते जी उनकी कई नीतियों के विरोधी रहे। लेकिन अब माकपा उन्हीं ‘नेहरू के सपनों का भारत’ (आइडिया ऑफ इंडिया) की रक्षा के लिए ‘आजादी का जश्न’ मनाने जा रही है। तकनीकी तौर पर कह सकते हैं कि चूंकि  माकपा का तो जन्म ही नेहरू के निधन के बाद हुआ, इसलिए उसका नेहरू के विचारों से सीधा विरोध नहीं है। हालांकि नेहरू के जमाने में भी कांग्रेसी कम्युनिस्टों को ही अपना सबसे विरोधी मानते थे।

इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक विचार को प्रखर बौद्धिक जामा पहनाने और समाज में वर्ग संघर्ष के माध्यम से परिवर्तन लाने की कोशिशों की दृष्टि से वामपंथियों का अहम योगदान रहा है। लेकिन उनकी कार्यशैली, वैचारिक कठोरता और समय की नब्ज को पहचानने में देरी के चलते कम्युनिस्ट आंदोलन कभी देशव्यापी आंदोलन में तब्दील नहीं हो पाया। इसका एक बड़ा कारण पार्टी की भाषा और रणनीति का बौद्धिक आवरण से बाहर निकल कर लोकाभिमुख नहीं हो पाना भी है।

अभी जिस नेहरू के ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की रक्षा के लिए माकपा सज्ज हो उठी है, वह मूलत: उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु भारत को कायम रखने के संदर्भ में है। वरना जिस आजादी को देश (भले ही विभाजित भूखंड के साथ हो) 15 अगस्त 1947 से अपना ‘स्वतंत्रता‍ दिवस’ मानता आया हो, उसे तत्कालीन कम्युनिस्ट नेता बी. टी. रणदिवे ने ‘झूठी आजादी’ करार देते हुए कहा था कि सच्ची आजादी ‘सशस्त्र संघर्ष से ही आ सकती है, अहिंसक आंदोलन से नहीं। लेकिन अब माकपा नेता नीलोत्पल बसु का कहना है कि पूर्ववर्ती भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से अलग होने के बाद माकपा ने ‘देश की आज़ादी के बारे में गलत समझ’ की भूल को सुधार लिया था और ‘इस तरह के राजनीतिक विचार’ को त्याग दिया था।

बहरहाल पार्टी तिरंगा फहराने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम में कम्युनिस्टों की भूमिका तथा आरएसएस के आजादी के आंदोलन में पूरी तरह ‘गायब’ रहने व अंग्रेजों से कथित तौर पर मिले रहने के ‘सत्य’ को भी उजागर करेगी। दूसरे शब्दों में पार्टी भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनने से हर कीमत पर रोकना चाहती है। इसके लिए वह तिरंगा फहराने के लिए भी तैयार है। इसके पहले ऐसी ही राष्ट्रीय और राजनीतिक सनसनी तब फैली थी, जब 2002 में देश में राष्ट्रवादी विचार के केन्द्र और हिंदुत्व की धुरी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में तिरंगा फहराया गया था। आरएसएस भी कम्युनिस्टों की तरह भारत की आजादी को ‘देश के बंटवारे’ के रूप में ही देखता आया है। अर्थात देश की वास्तविक स्वतंत्रता उस दिन होगी जब देश फिर ‘अखंड भारत’ होगा।

बताया जाता है कि आजादी के समय संघ मुख्यालय में दो बार यानी 1947 और 1950 में तिरंगा जरूर फहराया गया था। लेकिन उसके बाद यह परंपरा बंद कर दी गई। कुछ लोग इसके पीछे ‘कानूनी अड़चन’ भी बताते हैं। संघ अपना भगवा ध्वज ही फहराता रहा। यह तस्वीर तब बदली जब 2002 में 26 जनवरी को ‘राष्ट्रप्रेमी युवा दल’ नामक संगठन के तीन सदस्य संघ मुख्यालय में घुसकर तिरंगा फहरा आए। उसके बाद आलोचना से बचने के लिए संघ ने स्वयं ही राष्ट्रीय दिवसों पर तिरंगा फहराने की परंपरा शुरू कर दी। तिरंगा न फहराने के पीछे कारण यह भी बताया जाता है कि शुरू में संघ भारत का वास्तविक ध्वज भगवा को ही मानता आया था।

इस देश में आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना एक ही साल यानी 1925 में हुई थी। लेकिन आजादी के 75 वें साल में परिदृश्य यह है कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व विचार भाजपा के रूप में दिल्ली के तख्त पर काबिज है और वामपंथी विचार को बूस्टर की दरकार है। जहां तक आजादी के आंदोलन में कम्युनिस्टों और संघियों के योगदान की बात है तो कांग्रेसी दोनों की ही भूमिका को नकारते हैं। यहां तक कि कम्युनिस्टों और संघियों की भी एक दूसरे के बारे में यही राय है। जबकि आज दोनों ही स्वतंत्रता के महासंग्राम में अपनी प्रासंगिकता और सक्रिय भूमिका को सिद्ध करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

यह विडंबना ही है कि जिस कांग्रेस की आजादी के आंदोलन में केन्द्रीय ‍भूमिका रही, वो आज वैचारिक दारिद्र्य, दिशाहीनता और कमजोर नेतृत्व के संकट से जूझ रही है, तो जो तत्व स्वतंत्रता के महाआंदोलन में समानांतर भूमिकाओं में थे, वो आज उस विरासत को सहेजने का दावा कर रहे हैं, जिस पर कभी उन्हें गहरा संशय रहा। जहां आज माकपा तिरंगा फहराने को ‘वक्त की पुकार’ मान रही है तो हिंदुत्ववादी इसे भाकपा का प्रच्छन्न ‘राष्ट्रवादी’ होना बता रहे हैं।  राष्ट्रवादी विचारक कंचन गुप्ता का तो यहां तक कहना है कि ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ का विचार नेहरू का नहीं बल्कि रवींद्रनाथ टैगोर का था।

जो भी हो, माकपा के इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए कि उसने एक शाश्वत सत्य को स्वीकार तो ‍किया। भले ही यह खुद के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की विवशता से उपजा हो या फिर भारत की मूल आत्मा ‍जीवित रखने के आग्रह से जन्मा हो। भारत घोषित तौर पर कभी ‘हिंदू राष्ट्र’ बनेगा, इस पर भले संशय हो, लेकिन अगर इस देश में देर-सबेर सभी ‘देशभक्त’ हो रहे हों तो किसे आपत्ति हो सकती है?(मध्‍यमत)
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