कोरोना दौर में जीने के लिए छटपटाते निजी स्कूल

अजय बोकिल

कोरोना वायरस से जान को खतरा तो है ही इसने ज्ञान के मंदिरों पर भी ताले डलवा दिए हैं। पूरे देश के साथ मप्र के भी तकरीबन सभी शिक्षण संस्थान, स्कूल नौ माह से बंद हैं क्योंकि कोरोना संक्रमण का खतरा है। लेकिन इस एहतियाती ‘बंद’ ने निजी स्कूल संचालकों और उनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों की हालत खराब कर दी है। कभी ‘शिक्षा की दुकानें’ का आरोप झेलने वाली इन शिक्षण संस्थाओं के संचालकों ने स्कूल न खोलने पर सड़कों पर प्रदर्शन की चेतावनी दी है। स्कूल न खुले तो बच्चों के भविष्य का प्रश्न तो है ही, लेकिन स्कूल शिक्षकों और कर्मचारियों के सामने भुखमरी की नौबत आने का भी खतरा है। दूसरी ओर सरकार और अभिभावक पसोपेश में हैं कि क्या करें। बच्चों को स्कूल भेजें तो मुश्किल और न भेजें तो भी मुश्किल है।

देश में किसान आंदोलन के बरक्स यह एक और अलग तरह का आंदोलन है। राज्य और केन्द्रीय शिक्षा मंडलों से मान्यता प्राप्त स्कूलों के संचालकों की संस्‍था एसोसिएशन ऑफ अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स ने मप्र सरकार द्वारा राज्य में कोरोना के चलते स्कूल कॉलेज न खोले जाने के फैसले का कड़ा विरोध करते हुए स्कूलों को तत्काल खोलने की मांग की है। अपनी मांग के समर्थन में उन्होंने तीन दिन का आंदोलन 14 दिसंबर से शुरू किया है। एसोसिएशन की दस मांगे हैं, जिनमें कक्षा पहली से आठवीं तक के स्कूल 31 मार्च 2021 तक बंद रखने का फैसला वापस लेने, केन्द्र सरकार की गाइड लाइन के मुताबिक कक्षा 9 से 12 वीं तक स्कूल तुरंत खोलने तथा नियमित स्कूल के साथ ऑन लाइन पढ़ाई की बाध्यता समाप्त करना प्रमुख है।

एसोसिएशन ने चेतावनी दी है कि अगर सरकार ने उनकी मांगें नहीं मानी तो 16 दिसंबर को वो सड़कों पर आकर प्रदर्शन करेंगे। उधर सरकार ने 10 वीं और 12 वीं की कक्षाएं लगाने को मंजूरी दी है, लेकिन उसके सामने असमंजस यह है कि वह सभी स्कूल खोलने का निर्णय लेती है तो भी कितने अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार होंगे, कहना मुश्किल है। दूसरे, कोरोना का जोर अभी खत्म नहीं हुआ है और वैक्सीन की संभावना अभी दूर है। दुर्भाग्य से स्कूल खोलने पर बच्चों में इस महामारी का संक्रमण फैल गया तो कौन इसका जिम्मेदार होगा?

उधर निजी स्कूलों की समस्या यह है कि स्कूल ही नहीं खुलेंगे तो फीस कहां से आएगी, स्कूल कैसे चलेगा, शिक्षकों को वेतन कहां से देंगे? एसोसिएशन के मुताबिक मप्र में करीब 74 हजार निजी स्कूल हैं, जिन पर 15 लाख परिवार किसी न किसी रूप में आश्रित हैं। मध्यप्रदेश में प्राइमरी से लेकर हायर सेकंडरी तक शिक्षा देने वाले सभी निजी स्कूलों को हर साल सरकार से मान्यता लेनी होती है, लेकिन कोरोना के चलते राज्य सरकार ने सभी स्कूलों की मान्यता एक साल के लिए बढ़ा दी थी।

सरकार के निर्देश के मुताबिक सभी स्कूल मार्च के अंतिम हफ्ते में बंद कर दिए गए थे। सितंबर में इन्हें सशर्त और आंशिक रूप से शुरू किया गया। इन स्कूलों में केवल शिक्षक व अन्य स्टाफ ही आ रहा है। बच्चों को आने की सरकार ने अनुमति नहीं दी है। यूं तो सरकारी स्कूल भी बंद हैं,  लेकिन निजी स्कूलों की हालत वैसी नहीं होती। प्रतिस्पर्द्धा के चलते ज्यादातर निजी स्कूलों को अपने सीमित संसाधनों (बहुत मंहगे पब्लिक स्कूलों को छोड़ दें) में बेहतर नतीजे देने होते हैं, ऐसा करने का नैतिक और आर्थिक दबाव उन पर रहता है।

यह सच्चाई है कि शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में भी निजी स्कूलों का जाल फैला है और लोग इन्हीं में बच्चों को पढ़ाने को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि बहुत से स्कूल केवल धंधे की तरह भी चल रहे हैं। दूसरी तरफ इस पूरे घटनाक्रम ने शिक्षा के निजीकरण के औचित्य पर भी फिर सवाल खड़े है। लेकिन इतना तय है कि निजी स्कूलों के संचालन का मुख्य आर्थिक स्रोत मासिक या सालाना फीस ही होती है। अमूमन इसमें हर साल बढ़ोतरी होती है, जिसका मुख्य कारण बढ़ता खर्च होता है।

सख्त और बेहतर प्रबंधन के कारण कम वेतन और अन्य सुविधाओं के बाद भी अच्छे नतीजे देने का ‍निजी स्कूलों के शिक्षकों पर दबाव होता है। लेकिन कोरोना काल में ज्यादातर ऐसे स्कूलों में शिक्षकों को आधा वेतन दिया जा रहा है या फिर दिया ही नहीं जा रहा। ज्यादातर संचालकों का कहना है कि जब कमाई ही नहीं है तो पैसा दे कहां से?

इस बीच सरकार ने प्रदेश में पहली से आठवीं कक्षा तक सभी स्कूल अगले साल 31 मार्च तक बंद रखने का फैसला लिया है। स्कूल संचालकों का आरोप  है कि यह बिना सोचे समझे लिया गया निर्णय है। उनकी मांग है कि इन स्कूलों को कोविड 19 गाइड लाइन का पालन करते हुए चलाने की इजाजत दी जाए। साथ ही, नौवीं से बाहरवीं तक की क्लासेस चालू की जाएं, क्योंकि प्राइमरी-मिडिल की कक्षाएं बंद रहने से सोशल‍ डिस्टेसिंग कायम रखने में कोई दिक्कत नहीं आएगी। संचालकों की मांग है कि छात्रों को स्कूल भेजने के लिए पालकों की अनुमति की शर्त शिथिल की जाए। वर्चुअल क्लासेस ज्यादा दिन चलाना व्यावहारिक नहीं है।

यूं देखा जाए तो इस पेचीदा मामले में हर पक्ष अपनी जगह सही है। चूंकि स्कूल बंद हैं, इसलिए छात्रों के अभिभावक भी भला फीस क्यों दें? हालांकि जबलपुर हाईकोर्ट ने एक फैसला संचालकों के हक में दिया है कि वो लॉकडाउन में केवल ट्यूशन फीस और परीक्षा फीस ले सकते हैं। बावजूद इसके स्कूल संचालक पालकों पर बहुत दबाव डालने की स्थिति में नहीं हैं। उन पर तो नहीं ही हैं,‍ जिन्हें लॉकडाउन में अपनी रोजी से हाथ धोना पड़ा है।

उधर पालकों का डर भी जायज है कि वो अपने बच्चों को स्कूल भेजकर खतरा मोल क्यों लें? स्कूल में बच्चों की सोशल डिस्टेसिंग व्यवहार में कितनी रह पाएगी, कोई नहीं कह सकता। क्योंकि डिस्टेसिंग बचपन की तासीर ही नहीं है। बच्चों की आपसी नजदीकियां उनकी मासूमियत का इजहार होती हैं। कोई भी स्कूल बच्चों को आपस में बतियाने, खेलने, लड़ने-झगड़ने और गले में हाथ डालकर घूमने से कैसे तथा कब तक रोक पाएगा? ऐसे में कहीं कुछ गड़बड़ हुआ तो फिर कौन जिम्मेदार होगा? इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है।

प्रशासन का धर्म संकट यह है कि स्कूल न खोलें तो भी दिक्कत है तथा खोलने पर और ज्यादा खतरा है। वैसे भी इस शिक्षा सत्र के 9 महीने खाली बीत चुके हैं। बाकी तीन माह में क्या पढ़ाई होगी, सिवाय रस्म अदायगी के। शैक्षणिक गतिविधियों की दृष्टि से यह शून्य वर्ष ही है। जो पढ़ाई या परीक्षाएं आदि हो भी रही हैं तो वह खानापूर्ति ज्यादा हैं। हालांकि सरकार ने जनरल प्रमोशन देने से इंकार किया है, लेकिन बचे खुचे वक्त में बच्चे जितनी पढ़ाई कर सकेंगे और जितने कोर्स की परीक्षा देंगे, वह भी एक तरह से ‘जनरल प्रमोशन’ ही होगा।

दूसरी तरफ निजी स्कूलो के शिक्षकों व अन्य स्टाफ की समस्या ये है कि वो क्या करें, कहां जाएं। स्कूलों पर ताले होने से कई‍ शिक्षकों के घरों में फाके की नौबत है। निजी स्कूलों में पहले ही सरकारी स्कूल के शिक्षकों की तुलना में वेतन बहुत कम और काम काफी ज्यादा है, अब वो मिलना भी दूभर है। इन निजी स्कूल शिक्षकों की संख्या भी लाखों में है।

कोरोना काल में पढ़ाई का एक विकल्प ऑन लाइन एजुकेशन का खोजा गया। जहां तक संभव है सभी निजी उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में ऑन लाइन पढ़ाई करवाई जा रही है। जिससे शिक्षकों और छात्रों के काम का तनाव घटने की जगह और बढ़ गया है। ऑन लाइन शिक्षण सेहत के हिसाब से भी हानिकारक है। इससे बच्चों के व्यवहार में काफी फर्क दिखने लगा है। घंटों स्क्रीन पर देखते रहने से उनकी आंखों पर जोर पड़ रहा है। मनोवैज्ञानिक असर भी हो रहा है। कई जगह तो अभिभावक ही बच्चों को तनाव से बचाने उनका होमवर्क ऑन लाइन कर रहे हैं।

ऑन लाइन एजुकेशन का सबसे नकारात्मक पहलू यह है कि वह सामाजिकता से विमुख करता है। वह बौद्धिक ज्ञान भले दे, लेकिन इंसानियत को खाद पानी नहीं दे सकता। ऑन लाइन शिक्षण वस्तुत: एकांगी जीवन और ज्ञानार्जन है। इससे बच्चों को बचाया जाना चाहिए। जाहिर है कि स्कूल संचालकों की मांगों पर सरकार को बहुत सोच समझ कर ही निर्णय लेना होगा। एक स्कूल शिक्षा के साथ साथ और भी बहुत कुछ देता, सिखाता और समझाता है। लेकिन वर्तमान हालात में ये जोखिम कितना उठाया जाए, यह भी सोचना होगा।

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