अजय बोकिल
कोरोनाई दशहत के इस माहौल में मीडिया में हाल में तीन खबरें नमूदार हुईं। उनका बुनियादी मजमून एक ही था। पेशकारी अलग-अलग थी। जरा भाषा पर गौर करें। पहली, निजामुद्दीन मरकज में छिपे जमातियों को पुलिस ने हटाया। वहां दो हजार जमातियों के जमे होने की सूचना थी। दूसरी, वैष्णो देवी में बिहार के चार सौ तीर्थ यात्री फंसे। हाईकोर्ट ने दिया मदद का आदेश। तीसरी थी, दिल्ली के गुरुद्वारा मजनूं का टीला में पंजाब के 300 तीर्थ यात्री फंसे। सभी को नेहरू नगर में क्वारंटाइन किया गया।
एक सामान्य पाठक को इसमें यही समझ आएगा कि मरकज में मुसलमान थे, वैष्णो देवी में हिंदू और गुरुद्वारे में सिख श्रद्धालु। मरकज मामले में व्यापक सुरक्षा और शक के आधार पर तथा मंदिर और गुरुद्वारे में मानवीयता के चलते पर कार्रवाई की गई। व्यापक जन स्वास्थ्य, राष्ट्रहित और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से यह ठीक भी था। किसी भी सरकार को यही करना चाहिए।
लेकिन इस पूरे मामले पर सोशल मीडिया में एक अलग बहस चल पड़ी। हालांकि कुछ लोग इसे बाल की खाल निकालने, लॉक डाउन में बुद्धि के तालों को मास्टर की से खोलने की उचापत अथवा शब्दों के साम्प्रदायीकरण की शरारत भी कह सकते हैं। यह भी कहा जा सकता है फुरसती सोच वालों के पास और कोई काम नहीं बचा है। पहले देश को बचाना है, कोरोना को हराना है, इसमें जो आड़े आएगा, वह निपटा दिया जाएगा। शब्दों का कोई लोचा भी इसके आड़े नहीं आ सकता। पूरा देश एक संकल्प से आबद्ध है। ऐसे में कोई शाब्दिक कसरत और उनके अवांछित मायने ढूंढना देशद्रोह के बराबर है।
सोशल मीडिया में चली या चलाई गई इस बहस को धार तब मिली, जब विश्व हिंदू परिषद के महामंत्री मिलिंद परांडे ने साफ तौर पर कहा कि गुरुद्वारे में फंसे लोगों का केस एक आइसोलेट मामला है। वहां से लोग बाहर नहीं गए हैं। उन्हें जांच के बाद घर पहुंचा देना चाहिए। मगर देशभर की मस्जिद में जो लोग मिल रहे हैं, उनमें कई विदेशी भी शामिल हैं। इस तरह की बातें अन्य प्रार्थना स्थलों की तो नहीं है। इनकी उनसे तुलना की ही नहीं जा सकती है।
तकनीकी तौर पर परांडे ने जो कहा, वह बिल्कुल सही है। क्योंकि गुरुद्वारे में ज्यादातर लोग पंजाब से आए थे। उनमें (संभवत:) कोई विदेशी नहीं था। इसी तरह वैष्णो देवी में भी जो श्रद्धालु थे, वो अधिकांश बिहार के थे और देश भर में अचानक लागू लॉक डाउन के चलते वहीं ‘लॉक’ हो गए थे। कुछ इसी तरह की सफाई मरकज के प्रवक्ता ने भी दी थी, लेकिन उसे ज्यादातर लोगों ने खारिज कर दिया। इसके पीछे मान्यता यह रही कि मुसलमान किसी मरकज (या मस्जिद में) ‘फंस’ नहीं सकता, वह ‘छिपा’ ही होगा अथवा किसी षड्यंत्र के तहत ‘जमा’ ही होगा।
हम इन सफाइयों और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों से हटकर मीडिया में खबरों के प्रस्तुतीकरण और वर्तमान संदर्भों में शब्दों के बदलते सूक्ष्म अर्थ तथा उसके भीतर छिपी ‘कोरोना मंशा’ को समझने की कोशिश करें। हो सकता है कि सोशल मीडिया में जिन्होंने यह बहस चलाई, उनका मकसद हर पहल का फिरकाई एंगल खोजने या उसे उघाड़ने का हो। लेकिन यह भी हकीकत है कि जहां आज भाषा का सतहीकरण हो रहा है, वहीं शब्दों को उनकी स्थापित अर्थवत्ता से ‘डिसलोकेट’ करने का खेल भी चल रहा है। कोशिश यही होती है कि शब्द उसकी स्वाभाविक अर्थवत्ता में सम्प्रेषित न हों। इस काम में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। जिसे हम प्रायोजित टीवी बहसों, ‘खबर के अंदर की खबर’ या फिर ‘ऊपर अथवा नीचे की खबर’ आदि में देखते, महसूसते आए हैं।
यूं हिंदी भाषा में ‘फंसे’ होना, ‘छिपे’ होना और ‘जमे’ होने में बहुत सूक्ष्म क्रियात्मक और भावनात्मक फरक है। अर्थात ‘फंसना’ एक अप्रत्याशित और विवशता से उपजी स्थिति है। ‘छिपे होने’ में किसी आसन्न संकट के मद्देनजर खुद को बचाने के लिए प्रतिक्रिया के रूप में कुछ भी करने का भाव निहित है, जब कि ‘जमे’ होना एक पूर्व नियोजित और सुनिश्चित लोकेशन का परिचायक है। साहित्य में इन शब्दों का प्रयोग प्रसंगानुसार भावाभिव्यक्ति के लिए किया जाता है।
लेकिन वर्तमान देशकाल ने इन शब्दों के अर्थभेद को अलग रंग और भाव के साथ सम्प्रेषित करना शुरू कर दिया है। यानी ये शब्द भी अब अपने-अपने एजेंडे के हिसाब से इस्तेमाल और खारिज किए जा रहे हैं। मसलन सवाल उठाने के लिए भी, सवाल दबाने के लिए भी, जवाबदेही के लिए भी और जवाबदेही से बचने के लिए भी। उदाहरण के लिए अगर व्यक्ति मुसलमान है तो वह मस्जिद में ‘छिपा’ हुआ ही होगा। क्योंकि वो दीन और ईमान से आगे या पीछे कुछ और सोच नहीं सकता। सोचना चाहता भी नहीं। कोई ऐसा करना चाहे भी तो उसके ईमान पर सवालिया निशान होगा। जाहिर है कि संदेह भरी नजरों के बीच उसे अपनी आस्थाएं ‘छिपानी’ ही पड़ेंगीं।
दूसरा शब्द ‘जमे’ होने को लेकर है। इस्लाम में सामूहिकता पर सबसे ज्यादा जोर है। इसीलिए नमाज भी मिलकर पढ़ी जाती है। इसके लिए ‘जमा’ होना पड़ता है। और जब लोग जमेंगे तो मजहब और उसकी रक्षा की बातें तो होंगी ही। इसमें अनकहा संदेश यही है कि मुसलमान केवल मजहब के बारे में ही सोचता है। उसके लिए आम जिंदगी ज्यादा मायने नहीं रखती।
इससे अलग मंदिर और गुरुद्वारे में श्रद्धालु केवल ‘फंसे’ इसलिए होते हैं कि वो ईश्वरीय आस्था के भाव से आए होते हैं। प्रभु कृपा के आकांक्षी होते हैं। यही याचना कर घर लौटना चाहते हैं, लेकिन यह आध्यात्मिक फेरी किसी ‘लॉक डाउन’ में फंस जाती है और वे अपने सांसारिक कार्यों में लौटने में खुद को असहाय पाते हैं।
अजेंडा बहुत साफ है। यानी कुछ लोग दुत्कारे जाने लायक ही हैं तो बाकी लोग पुचकारे जाने के अधिकारी हैं। लिहाजा धर्म, समुदाय या विचारधारा के हिसाब से ही शब्दों का चयन और प्रयोग किया जाए ताकि अलग से कुछ कहने या स्पष्ट करने की जरूरत न रहे। इसके पीछे ऐतिहासिक कारण तो हैं हीं, इस्लाम की खातिर आंतक और क्रूरता को भी जायज ठहराने की मानसिकता भी है।
हालांकि स्वयं मुसलमान भी इस दुविधा के शिकार हैं कि खुद के वजूद को कायम रखने वो किस रास्ते पर चलें। सारे मुसलमानों को एक ही तराजू में तौले जाने से कैसे बचें। उस पर कोरोना जैसे अनचाहे शैतान ने नेकी और बदी की उस पारंपरिक परिभाषा को भी गड़बड़ा दिया है, जिस के आधार पर इंसान और शैतान तथा जन्नत और जहन्नुम का मोटा भेद करना आसान था। कोरोना तो किसी को नहीं छोड़ता। उल्टे सोशल डिस्टेसिंग की थ्योरी ने सामूहिकता के बुनियादी उसूल पर ही चोट कर दी है।
वैसे हैरानी की बात यह भी है कि इस सामूहिकता की पैरोकारी के चलते किसी मुस्लिम देश में कोरोना के इलाज की कोई वैज्ञानिक पहल होती नहीं दिख रही, जो उन्हें इस ‘शैतान’ से निजात दिला सके। उल्टे एक खबर यह आई कि ईरान के एक वरिष्ठ धार्मिक नेता शिराजी ने हाल में बयान दिया कि अगर इजराइल कोरोना का कोई वैक्सीन तैयार कर रहा हो तो ईरान उसे लेने को तैयार है, क्योंकि उसे अपने बाशिंदों की जिंदगियां बचानी हैं। यह बात चौंकाने वाली इसलिए है कि ईरान और इजराइल एक दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं।
बहरहाल यहां मुद्दा शब्दों के इस्तेमाल, तहजीब और उसमें निहित सूक्ष्म राजनीति का है। अभिव्यक्ति शब्दों का प्रकट रूप है और विचार उसका सघन रूप। 21 वीं सदी में हम हिंदी के कई शब्दों के सम्परिवर्तित रूप देख रहे हैं। ऐसे रूप जिनमें एक नए समाजशास्त्र, नई नैतिकता और समुदायों के बीच विभेद की माइक्रोलाइन और गहरा करते जाने का सुविचारित आग्रह है। इसमें जहां एकता में ही सुरक्षा है का इनर संदेश है, वहीं अल्पसंख्यक समुदायों की सशर्त रक्षा का बॉन्ड पेपर भी है।
इस मुद्दे पर चर्चा का मकसद केवल इतना है कि शब्दों की अर्थवत्ता अब समाज और देशकाल नहीं, एक एजेंडा ज्यादा तय कर रहा है। और यह केवल एक पक्षीय नहीं है। इसके परिणाम दूरगामी होंगे। खासकर मीडिया के संदर्भ में। प्रिंट मीडिया के हाशिए पर जाने से उस मीडिया को खुला मैदान मिल गया है, जो शब्दों को चलता, चलवाता और उसके साथ घातक खिलवाड़ करने को न सिर्फ तैयार है, बल्कि कर भी रहा है।
समाज को जिस दिशा में हांका जा रहा है या समाज खुद जिस दिशा में जाने को उद्यत है, वहां भविष्य में शब्दकोशों में शब्दों के अर्थ भी बदलने पड़ेंगे। क्योंकि भाषा भी अब धर्म के हिसाब से रास्ता बदल रही है। या यूं कहें कि उसे बदलने पर विवश किया जा रहा है।
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