अजय बोकिल
पूरे विश्व में कोरोना वायरस कोविद 19 के बढ़ते प्रकोप, विकसित देशों द्वारा इस पर समय रहते नियंत्रण में नाकामी और भारत जैसे देश में कम्प्लीट लॉक डाऊन के महाप्रयोग ने दुनिया में एक नई नैतिक बहस को जन्म दे दिया है। सवाल उठ रहा है कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से मुकाबले के लिए हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कीमत पर सामाजिक/परस्पर दूरी को अपनाना चाहिए या नहीं, क्या निजी आजादी कोरोना से मरने से भी ज्यादा अहम है? और यह भी कि क्या कोरोना जैसी वैश्विक आपदा से निपटने में अधिनायकवादी प्रणाली ज्यादा कारगर है अथवा लोकतांत्रिक प्रणाली?
इस बारे में लोगों की अलग-अलग राय हैं। कुछ का मानना है कि अधिनायकवादी तंत्र ही कोरोना जैसी महामारी से निपट सकता है, क्योंकि कोई भी कठोर कदम इस पद्धति से ही अमल में लाना संभव है। जबकि दूसरे पक्ष की राय में लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणालियां ही कोरोना जैसी संहारक महामारियों से निर्णायक ढंग से मुकाबला कर सकती हैं।
दरअसल 21वीं सदी की इस नई महामारी ने समूची मानव सभ्यता को ‘असावधान अवस्था’ में पकड़ लिया है। हम संचार की महाक्रांति और एक-दूसरे से अति निकटता के जोश में यह भूल गए कि इसका कुछ उलट भी हो सकता है। यूं विश्व में संक्रामक रोग और महामारियां पहले भी रही हैं, उनसे बड़े पैमाने पर मौतें भी हुई हैं, लेकिन मनुष्य की सामाजिकता को ही चैलेंज करने वाला यह शायद पहला ज्ञात रोग है। पहले भी टीबी, रेबीज, कुष्ठ रोग और कुछ अन्य संक्रामक रोगियों को ‘आइसोलेशन’ में रखा जाता रहा है। लेकिन इसका असर एक निश्चित समुदाय तक सीमित रहता है।
औषधि उपचार के साथ स्वच्छता, एहतियात और सामाजिक संकल्प ऐसे रोगों से निपटने में मदद करते रहे हैं। लेकिन कोरोना संभवत: पहली ऐसी भयावह बीमारी है, जिसने मनुष्य का मनुष्य पर से भरोसा डिगा दिया है। एक-दूसरे का हाथ पकड़ने की जगह हमे ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ सिखाई जा रही है। बताया जा रहा है कि मरने अथवा संक्रामक होने से बचना है तो एक सुरक्षित दूरी बनाए रखो। अपने दोस्त या रिश्तेदार पर भी भरोसा मत करो। एक घर में रहते हुए भी अपना सुरक्षा चक्र अलग रखो। क्योंकि कोरोना नामक अतिसूक्ष्म राक्षस किसी भी रूप में आपके भीतर प्रवेश कर सकता है और आपकी सांसों का गला घोंट सकता है। नतीजा ये कि लोग अपनी परछाई से भी खौफ खाने लगे हैं कि कहीं कोरोना न हो।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस युग में यह ऐसी बीमारी है, जिसका कारगर इलाज फिलहाल किसी के पास नहीं है। जो है, वो सिर्फ एहतियाती और यह विश्वास है कि दूरियां बनाना ही जिंदा रहने की गारंटी है। आज विश्व की आधी आबादी कोरोना की चपेट में है। नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक पूरी दुनिया में कोरोना के कारण 4 लाख 35 हजार लोग संक्रमित हैं। 19 हजार 620 लोग जानें गंवा चुके हैं। राहत की बात इतनी है कि कोरोना प्रभावितों में से 1 लाख 12 हजार लोग ठीक भी हो चुके हैं।
लेकिन दुनिया कोरोना के इस आंतक के आगे यूं ही हथियार नहीं डालने वाली। फिर भी कोरोना से लड़ने के मामले में समूची मानव सभ्यता को जिस संकल्प के साथ खड़ा होना चाहिए, वैसा नहीं दिख रहा। ऐसा क्यों? कौन से नैतिक सवाल, हिचक और अंदेशे ऐसा करने से रोक रहे हैं? इसमें पहला तो सोशल डिस्टेंसिंग का वो सिद्धांत है, जिस पर अमेरिका सहित अनेक यूरोपीय देश अभी एकमत नहीं हैं। इटली जैसे देश में हर घंटे कोरोना से हो रही मौतों के डरावने आंकड़ों के बावजूद लोग निजी आजादी का आग्रह छोड़ने को तैयार नहीं हैं। कोरोना से मरने के भय से ज्यादा उन्हें अपनी स्वतंत्रता गंवाने का डर ज्यादा सताता है। इस जज्बे को किस रूप में समझा जाए? मानवता के बुनियादी मूल्य की रक्षा अथवा मानवता के प्रति अक्षम्य अपराध? क्योंकि लोग अगर कोरोना से मर रहे हैं तो यह भी अंतत: उस समाज को खत्म करना ही हुआ, जिस समाज पर हम इतराते हैं।
इटली का वायरल हुआ वीडियो (अगर वह सच है तो) बेहद चौंकाने वाला है। इसमें एक चीनी व्यक्ति फ्लोरेंस शहर में चौराहे पर गले में तख्ती लटकाए ऐलान करता है कि ‘मैं मनुष्य हूं।‘ अर्थात चीन में कोरोना के कारण मुझसे नफरत न की जाए। इटली के लोग मानवतावादी होने के कारण उस चीनी की भावना से खुद को जो़ड़ते हैं। कई तो उसके गले भी मिलते हैं। फ्लोरेंस के मेयर कहते हैं कि हम सबसे प्यार करते हैं (चाहे वह कोरोना पीडि़त ही क्यों न हो)। इसके कुछ दिनों बाद इटली में कोरोना कयामत लेकर आता है। अब तो स्थिति यह है कि वहां लोगों ने कोरोना पीडि़त बूढों को तो उनकी किस्मत पर ही छोड़ दिया है।
कमोबेश यही स्थिति यूरोप के अन्य देशों की भी है। वे असमंजस में हैं। दुनिया को कभी सैन्यवाद, कभी पूंजीवाद, कभी साम्यवाद तो कभी उपभोक्तावाद देने वाले ये पश्चिमी देश तय ही नहीं कर पा रहे है कि आखिर कोरोना से निपटें तो निपटें कैसे? क्योंकि यह महाराक्षस उनके विभिन्न वादों की पुरानी स्टाइल बुक में कहीं फिट नहीं हो रहा।
इससे भी ज्यादा विचित्र स्थिति अमेरिका की है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गति देने की दहाड़ लगाने वाले डोनाल्ड ट्रंप यह फैसला कर ही नहीं पा रहे कि देश की इकानॉमी को बचाना ज्यादा अहम है अथवा कठोर कदम उठाकर आम अमेरिकी की जाना बचाना ज्यादा महत्वपूर्ण है? चाहें तो इसे पूंजीवादी सोच का निष्ठुर रूप कह लें कि मनुष्य की मौत से ज्यादा अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने और प्रकारांतर से वैश्विक चौकीदारी हाथ से फिसल जाने का डर अमेरिका को सता रहा है।
वाकई सवाल जटिल है। एक तर्क यह है कि चीन की अधिनायकवादी कम्युनिस्ट प्रणाली के कारण ही कोरोना से मुकाबला किया जा सका, क्योंकि सरकार ने व्यक्ति की आजादी को ताक पर रखकर समाज की चिंता की। दूसरी तरफ यह दलील है कि अगर चीन में सबसे पहले कोरोना की चेतावनी देने वाले डॉ. वांग की बात को सुना गया होता तो यह नौबत ही न आती। लोकतांत्रिक प्रणालियां कोरोना जैसी महामारी से बेहतर ढंग से इसलिए निपट सकती हैं, क्योंकि वो उस कराह को समय पर सुन पाती है, जो संपूर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने का माद्दा रखती है। बशर्तें कि समाज उसे समय रहते गंभीरता से ले।
इस संपूर्ण बहस को अगर भारत के संदर्भ में देखें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सवा अरब की आबादी को लॉक डाउन करने का जो साहसिक और जोखिम भरा फैसला लिया है, उसकी सफलता अथवा असफलता तय करेगी कि क्या लोकतांत्रिक प्रणालियां ही कोरोना को निर्णायक मात देने में सक्षम हैं या नहीं, भले ही इसके लिए हमे बड़ी आर्थिक कीमत क्यों न चुकानी पड़े। कुछ वक्त के लिए ही सही निजी आजादी को संयम के लॉकर में ही क्यों न रखना पड़े। हो सकता है मोदी का अंधविरोध यह तर्क न पचा पाए, लेकिन जोखिम भरे फैसले लेने के लिए भी हिम्मत और आत्मविश्वास तो चाहिए।
कहा जा रहा है कि भारत में लॉक डाउन पहले ही हो जाना चाहिए था। मान लिया, लेकिन जब इसे लागू किया गया तब भी लोग उसके औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं। यह सही है कि कोई भी फैसला जोखिमविहीन नहीं होता। इस लॉक डाउन से कोरोना का संहारक मार्च रुकेगा या नहीं, उस पर अंकुश लगेगा या नहीं, गारंटी से नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसने इतनी उम्मीद जरूर जगाई है कि दुनिया में ‘डर्टी इंडिया’, ‘अराजक इंडिया’ या फिर ‘बैकवर्ड इंडिया’ के लेबल से विभूषित भारत ने फिर एक संकल्प शक्ति तो दिखाई है। वो संकल्प शक्ति, जो अंधविश्वासी, मूर्खताओं और परंपरा में जीते रहने वाले भारत की उस आत्मा से आई है, जिसका मूल स्वभाव समन्वय का है। आत्म शिक्षा का है।
कुछ लोग इस ‘नेशनल लॉक डाउन’ में भावी तानाशाही की छाया भी देख रहे हैं। कोरोना भय की आड़ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हरण का पूर्वाभ्यास बूझ रहे हैं। हो सकता है ये आशंकाएं सच भी हों। लेकिन इस देश की जनता कितनी ही अशिक्षित क्यों न हो, नासमझ नहीं है। वह मोदी के आव्हान पर खुद को घरों में कैद करने पर इसलिए राजी हुई है, क्योंकि कोरोना का हमला भी व्यक्ति के रूप में अंतत: पूरी मानवता पर हमला है। इस देश का आम आदमी बहुत किताबी ज्ञान न रखता हो, लेकिन व्यक्ति और समाज के अंतर्सबंध, मर्यादाओं और संतुलन को उस पश्चिमी समाज की तुलना में शायद कहीं बेहतर ढंग से समझता है, जो अभी भी तय नहीं कर पा रहा है कि मनमर्जी से जीना ज्यादा अहम है या फिर जीने की इस शर्त को कायम रखने के लिए मौत के आगोश में चले जाना भी बड़ी कीमत नहीं है। जाहिर है कि कोरोना जाने के साथ अपने पीछे ऐसी नैतिक बहस छोड़ कर जाने वाला है, जिस पर भावी सदियों की मानवता टिकी होगी।