अजय बोकिल
उधर अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए भले चांदी की ईंटें भेजी जा रही हों, लेकिन देश भर में पहले से मौजूद करीब 40 लाख मंदिर कड़की की हालत से गुजर रहे हैं। मंदिरों की यह हालत देश में फैले कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण हुई है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि केरल के त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड से जुड़े अधिकांश मंदिर या तो अपना सोना गिरवी रखने जा रहे हैं या फिर मोदी सरकार की गोल्ड मॉनिटाइजेशन स्कीम के तहत जमा करा रहे हैं।
कई मंदिरों ने तो रिजर्व बैंक से भी मदद मांगी है। बाकी राज्यों की हालत भी इससे बेहतर नहीं है। कई मंदिर प्रबंधन अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देने की स्थिति में भी नहीं हैं। सिर्फ मध्यप्रदेश की बात करें तो हमारे सबसे बड़े महाकाल मंदिर की आय लॉक डाउन के दौरान घटकर 1 फीसदी रह गई है। क्योंकि सोशल डिस्टेसिंग के कारण भक्त बहुत कम आ रहे हैं और जो आ रहे हैं वे भगवान को कुछ चढ़ाने के बजाए उन्हीं से कुछ मांग रहे हैं। ऐसे में सर्वाधिक मुसीबत उन लोगों की है, जो भगवान के सहारे ही अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं। इनमें पंडे-पुजारी के अलावा, मंदिर के कर्मचारी, फल-फूल, माला-पत्री, प्रसाद, नारियल और अन्य पूजन सामग्री बेचकर घर चलाने वाले शामिल हैं।
मंदिरों में चढ़ावा न आने से उनकी बैलेंस शीट भी पूरी तरह गड़बड़ा गई है। आलम यह है कि भगवान के घर में पाप-पुण्य से ज्यादा आय-व्यय के मिलान की कवायद हो रही है। ऐसा नहीं कि इन मंदिरों के पास धन सम्पत्ति नहीं है। देश के 11 अमीर मंदिरों के पास तो अरबों की सम्पत्ति और सोना है, लेकिन आड़े वक्त में उसका कोई खास उपयोग नहीं हो रहा है। मंदिरों का प्रबंधन करने वाले बोर्ड भी पसोपेश में हैं कि क्या करें। कैसे और कहां से खर्च निकालें।
स्थिति वाकई चिंताजनक इसलिए भी है, क्योंकि भारत भर में छोटे-बड़े करीब 40 लाख मंदिर हैं। वर्ष 2011 की जनगणना में इनकी संख्या 20 लाख थी, जो अब दोगुनी हो गई बताई जाती है। बीच में कुछ साल जब अर्थव्यवस्था कुलांचे भर रही थी, तब देश में मंदिरों के भी ‘अच्छे दिन’ चल रहे थे। मंदिरों में भरपूर चढ़ावा आ रहा था और नए मंदिर भी धड़ाधड़ आकार ले रहे थे। आस्था की वृद्धि दर नूतन मंदिरों से भी प्रकट हो रही थी।
हमारे देश में मंदिरों की अर्थव्यवस्था भी बहुत बड़ी है। इस पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लाखों लोग आश्रित हैं। देश के अधिकांश मंदिरों के पास अरबों की सम्पत्तियां हैं। विश्व स्वर्ण काउंसिल के मुताबिक भारतीयों के पास अनुमानित रूप से करीब 22 हजार टन सोना है, जिसमें से लगभग 3 से 4 हजार टन सोना तो केवल मंदिरों के ही पास है। अकेले तिरुवनंतपुरम मंदिर के पास ही 1 लाख करोड़ से ज्यादा की सम्पत्ति और 1300 टन सोना बताया जाता है।
लेकिन यह सोना हमारे मंदिरों के धनवान होने के ‘आत्म गौरव’ तक ही सीमित है। उसका व्यावहारिक उपयोग नहीं के बराबर है। क्योंकि सोना पहना तो जा सकता है, खाया नहीं जा सकता। इस सोने को अर्थ व्यवस्था की धारा में लाने के लिए ही मोदी सरकार ने पांच साल पहले स्वर्ण मौद्रिकरण योजना लागू की थी। शुरुआत में उसे खास प्रतिसाद नहीं मिला। लेकिन कोरोना संकट के बाद जब मंदिरों को भी ‘बुरे दिन’ देखने पड़े तो अब वो अपना सोना इन्वेस्ट करने की तैयारी में हैं। मकसद यही है कि मंदिरों का कामकाज ठीक से चले। आखिर भगवान के घर में भी लोग मुफ्त में तो काम नहीं कर सकते।
केरल देवस्वम बोर्ड के अध्यक्ष एन. वासु के अनुसार राज्य का बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर तीन विकल्पों पर विचार कर रहा है। पहला अपना सोना रिजर्व बैंक के पास गिरवी रख दे, दूसरा सरकार की गोल्ड मॉनेटाइजेशन स्कीम में निवेश करे, तीसरा दोनों काम करे। बता दें कि सबरी माला मंदिर की सम्पत्ति करीब ढाई सौ करोड़ रुपये की बताई जाती है। हर साल यहां लगभग सौ करोड़ रुपये का चढ़ावा आता रहा है। हालांकि मंदिर की आय तभी से घटने लगी थी, जब से यह राजनीति का शिकार हुआ है।
केरल देवस्वम बोर्ड राज्य के कुल 1248 मंदिरों का प्रबंधन करता है। बताया जाता है कि मंदिरों को हो रहे घाटे के बाद राज्य की विजयन सरकार ने 100 करोड़ रुपये देने का वादा किया था, लेकिन अभी 30 करोड़ ही दिये हैं। वासु के अनुसार बीते पांच महीनों में बोर्ड 300 करोड़ से ज्यादा का घाटा उठा चुका है। उनके मुताबिक मंदिरों का सोना गिरवी रखने से हमें तुरंत नकदी मिल जाएगी, जिससे मंदिर का खर्च चल सकेगा।
यह समस्या अकेले केरल देवस्वम बोर्ड की ही नहीं है। अन्य राज्यों के मंदिर प्रबंधन बोर्ड भी कड़की में हैं। बीते 22 अगस्त को देश के प्रमुख दस बोर्डों के प्रतिनिधियों ने केन्द्र सरकार की एजेंसियों से बात की थी। ये मंदिर गोल्ड मॉनिटाइजेशन स्कीम में सोना इसलिए रखने की सोच रहे हैं, क्योंकि उन्हें इस पर ढाई फीसदी ब्याज भी मिलेगा। इस ब्याज पर कोई टैक्स नहीं लगता। जहां तक केरल के मंदिरों का सोना गिरवी रखने की बात है तो वो ऐसा 1 हजार किलो सोना रख सकते हैं, जिसका इस्तेमाल दैनिक अनुष्ठानों में नहीं होता। देवताओं पर चढ़े सोने को इससे अलग रखा जाएगा।
वैसे केरल के मंदिरों के पास वास्तव में कितना सोना है, इसका भी मूल्यांकन कराया जा रहा है। बताया जाता है कि बैंक में सोना जमा कराने के मामले में देश में आंध्र का तिरुमला तिरुपति देवस्थानम (तिरुपति बालाजी) अव्वल है। उसने 2017 में ही लांग टर्म डिपाजिट स्कीम के तहत बैंक ऑफ इंडिया में 2780 किलो सोना 12 वर्ष के लिए जमा कराया था। शिरडी के साईं बाबा मंदिर ने भी इसी स्कीम के तहत 2015 में 200 किलो सोना गिरवी रखा था।
कोरोना काल में सोशल डिस्टेंसिंग के चलते भगवान और भक्तों के बीच भी दूरी इतनी बढ़ गई है कि लोग खुद ही मंदिर में आने से कतरा रहे हैं या फिर कोरोना से बचाव के सख्त प्रतिबंधों के कारण उन्हें आने नहीं दिया जा रहा। केरल की तर्ज पर बीते चार माह में कर्नाटक और तमिलनाडु के मंदिरों को 600-600 करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है। कई मंदिरो में पंडे पुजारियों और कर्मचारियों को वेतन देने के लाले हैं।
मध्यप्रदेश में उज्जैन के महाकाल मंदिर की हर माह औसतन होने वाली ढाई करोड़ की आय इस साल अप्रैल-मई में घटकर महज 2 लाख रुपये रह गई। आलम यह है कि राज्य के करीब 2 लाख से ज्यादा पंडे-पुजारियों ने राज्य सरकार से आर्थिक मदद की गुहार लगाई। इसके बाद शिवराज सरकार ने 8 करोड़ रुपये जारी किए।
इस घटनाक्रम का लुब्बो-लुआब इतना है कि ‘भूखे भजन न होई गोपाला।‘ मंदिर बनाने और चलाने के लिए भी पैसा चाहिए। मंदिरों में सोने के रूप में जमा अकूत दौलत मुश्किलों में काम नहीं आती। यानी धर्म का कारोबार भी आस्था के साथ-साथ नकदी के सहारे ही चलता और फलता-फूलता है। हमारे यहां शादी-ब्याह में बहू-बेटी को सोना चढ़ाने की परंपरा भी शायद इसीलिए रही है कि सोना ही आड़े वक्त में नकदी की शक्ल में पेट की आग बुझाता है।
अच्छी बात यह है कि अब मंदिर भी अपने जड़ पड़े खजानों को तरलता में बदल रहे हैं। यानी भक्तों का पैसा भगवान का स्पर्श पाकर वापस भक्तों के पास ही लौट रहा है। यह भी सच है कि यूं भगवान सबको देता है लेकिन उसका अपना घर तो भक्तों के भरोसे ही चलता है।