राकेश अचल
पता नहीं आंकड़ा सही है या गलत लेकिन एक चैनल पर भारत में इस बार हुए आम चुनाव का खर्च देख कर मेरी नींद उड़ गई। खबर कहती है की भारत में 2019 के आम चुनाव पर 60 हजार करोड़ से अधिक का खर्च हुआ है और इसके साथ ही चुनाव खर्च के मामले में भारत दुनिया में नंबर एक पर पहुँच गया है। याद रखिये कि भारत में इस समय 90 करोड़ मतदाता हैं।
भारत में चुनाव लगातार मंहगे होते जा रहे हैं। चुनावों के लिए अंधाधुंध खर्च ने इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आम जनता के काबू से बाहर कर दिया है। दस साल पहले पंद्रहवीं लोकसभा के लिए देश में करीब 10 हजार करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान था, जबकि दुनिया के सबसे महाबली अमेरिका में ये खर्च 8 हजार करोड़ तक सीमित था। लेकिन 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने चुनाव में इतना पैसा डाला कि देखते ही देखते आज यह खर्च 60 हजार करोड़ रुपये तक पहुँच गया है।
आंकड़े गवाह हैं कि भारत में बीते 62 साल में चुनाव खर्च में 370 गुना का इजाफा हुआ है। ये आंकड़े सरकारी हैं लेकिन गैर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि चुनावों में काले धन की आमद चुनाव आयोग की तथाकथित सख्ती के बाद लगातार बढ़ी है यानि पांच साल में ही यह खर्च 40 गुना बढ़ गया है। जाहिर है कि सत्ता में बने रहने के लिए लम्बे इन्तजार के बाद कामयाब हुई भाजपा इसके लिए दोषी है। दोषी तो कांग्रेस भी कम नहीं है लेकिन हाल के पांच साल चुनावों का खर्च बढ़ाने के मामले में अपने सभी पिछले कीर्तिमान तोड़ने वाले माने जा रहे हैं।
चुनाव जीतने के लिए मैदानी खर्च के अलावा सोशल मीडिया, टीवी और चुनावी दौरों के लिए की जाने वाली हवाई यात्राओं के कारण खर्च का आंकड़ा बढ़ा है। रोड शो भी इस खर्च का एक बड़ा कारण हैं, लेकिन कोई भी राजनितिक दल चुनावों को सस्ता बनाने की बात नहीं करता, यहां तक कि चुनाव आयोग जो इस साल केंचुआ के नाम से बदनाम हुआ है, हर चुनाव में खर्च की सीमा बढ़ाता चला जा रहा है। किसी को फ़िक्र नहीं है कि लगातार महंगे होते चुनाव में आम आदमी के लिए जगह कहाँ बचेगी?
नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) के अनुसार इस बार 11 अप्रैल को शुरू होकर 19 मई को संपन्न मतदान की प्रक्रिया पर 500 अरब रुपये (7 अरब डॉलर) की अभूतपूर्व लागत आएगी। अमेरिकी राजनीति में धन के इस्तेमाल पर नज़र रखने वाली संस्था ओपेन सीक्रेट्स डॉट ऑर्ग के अनुसार 2016 में अमेरिका के राष्ट्रपतीय और संसदीय (कांग्रेस के) चुनाव पर करीब 6.5 अरब डॉलर खर्च हुए थे। सीएमएस का खर्च अनुमान भारत के 2014 के संसदीय चुनाव के 5 अरब डॉलर के मुकाबले 40 फीसदी अधिक है। और यह आंकड़ा प्रति वोटर लगभग 8 डॉलर यानि 560 रुपया का बैठता है।
उल्लेखनीय है कि भारत की 60 फीसदी जनता रोजाना करीब 3 डॉलर यानि 210 रुपये की आमदनी पर गुजर-बसर करती है। अध्ययनकर्ताओं का अनुमान है कि सोशल मीडिया पर चुनावी खर्च में भारी उछाल देखा जा सकता है। और 2014 के 2.5 अरब रुपये के मुकाबले इस बार यह खर्च 50 अरब डॉलर के स्तर को छू लेगा।
अगर आप अंधभक्त नहीं हैं तो यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के सहायक प्रोफेसर जेनिफर बसेल द्वारा किए गए एक सर्वे पर भरोसा कीजिये। वे कहते हैं कि भारत के केंद्रीय स्तर के 90 प्रतिशत से अधिक नेता मानते हैं कि उनके जैसे नेता नकदी, शराब या व्यक्तिगत उपयोग के सामान उपहार में देने का दबाव महसूस करते हैं। देश के कुछ हिस्सों में मतदाताओं के बीच ब्लेंडर्स, टेलीविजन सेट और कभी-कभार बकरियां भी उपहार के रूप में वितरित की जाती हैं।
चुनाव आयोग ने पिछले साल कर्नाटक में हुए चुनाव के दौरान 1.3 अरब रुपये से अधिक की बेनामी नकदी, सोना, शराब और ड्रग्स बरामद किए गए थे। चुनाव पर होने वाले अधिकांश खर्च को सार्वजनिक रूप से जाहिर नहीं किया जाता है। जहां उम्मीदवारों के चुनावी खर्च के लिए कानून द्वारा एक सीमा तय है, पार्टियां बेहिसाब खर्च कर सकती हैं। हालांकि देश के बड़े राजनीतिक दलों ने मार्च 2018 में समाप्त वर्ष में कुल मिलाकर मात्र 13 अरब रुपये की आय ही दिखाई है।
देश की संसद यदि दिनोंदिन बढ़ते चुनाव खर्च पर लगाम नहीं लगाएगी तो वो दिन दूर नहीं होगा जब चुनाव केवल अरबपति और करोड़पति लोग ही लड़ पाएंगे और देश की संसद में आम आदमी का कोई नुमाइंदा नहीं होगा। ऐसे में देश की तस्वीर कैसी होगी आप कल्पना कर सकते हैं।