राकेश अचल
संक्रमण काल से गुजर रही कांग्रेस के बारे में लिखने का कतई मन न था लेकिन मित्रों का आग्रह भला कैसे टाला जा सकता है। कांग्रेस बीते छह साल से नेतृत्व के संकट से गुजर रही है, लेकिन उसके पास समस्या का कोई हल नहीं है। घूम-फिर कर सब राहुल गांधी के इर्द-गिर्द जमा हो जाते हैं। कांग्रेस के कायाकल्प की मांग को लेकर पिछले दिनों हुई लिखा-पढ़ी का ये नतीजा जरूर हुआ कि पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष ने महासचिव स्तर पर फेरबदल कर उन लोगों को किनारे कर दिया जो कांग्रेस को लेकर बहुत चिंतित थे।
कांग्रेस की निर्विवाद नेता श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी के उम्रदराज महासचिवों को हटाकर उनके स्थान पर बदलाव करते हुए नौ महासचिव और 17 प्रभारी रखे हैं। इनमें जहां कुछ लोगों की जिम्मेदारी नहीं बदली, वहीं कुछ पुरानों को हटाकर नयों का लाया गया, जबकि कुछ के प्रभार बदल दिए गए। महासचिवों में मुकुल वासनिक, हरीश रावत, ओमन चांडी, प्रियंका गांधी, तारिक अनवर, रणदीप सुरजेवाला, जितेंद्र सिंह, अजय माकन और केसी वेणुगोपाल हैं।
हरीश रावत से असम की जिम्मेदारी लेकर पंजाब दे दिया गया जबकि वासनिक से तमिलनाडु और पुद्दुचेरी जैसे प्रभार लेकर उन्हें मध्यप्रदेश दिया गया। अभी तक वह अतिरिक्त प्रभार देख रहे थे। इनमें चौंकाने वाले नाम तारिक अनवर और सुरजेवाला रहे, जिन्हें क्रमश: केरल-लक्षद्वीप एवं कर्नाटक जैसे अहम राज्य दिए गए।
प्रभारियों में रजनी पाटिल, पीएम पुनिया, आरपीएम सिंह, शक्ति सिह गोहिल, राजीव सातव, राजीव शुक्ला, जितिन प्रसाद, दिनेश गुंडूराव, माणिकम टैगोर, चेल्ला कुमार, एच.के.पाटिल, देवेंद्र यादव, विवेक बंसल, मनीष चतरथ, भक्त चरणदास और कुलजीत नागरा शामिल हैं। इनमें रजनी पाटिल, पुनिया, सातव, गोहिल जैसे नेता पहले से प्रभारी रहे हैं। पाटिल से हिमाचल का प्रभार लेकर उन्हें जम्मू कश्मीर दे दिया गया। प्रभारियों की लिस्ट में तमाम नाम ऐसे हैं, जो राहुल के पिछले कार्यकाल में प्रदेशों के प्रभारी सचिव का कामकाज देख चुके हैं।
मुझे लगता है कि गुलाम नबी आजाद, मोतीलाल वोरा, अंबिका सोनी, मल्लिकार्जुन खड़गे और लुइजिन्हो फैलेरियो को महासचिव पद से हटा देने से कोई समस्या का हल नहीं होने वाली। कांग्रेस की कार्य समिति का आकार-प्रकार तो बदला ही नहीं। मध्यप्रदेश,राजस्थान और पंजाब को तो छुआ ही नहीं गया है। कांग्रेस को इस समय भाजपा के मार्गदर्शक मंडल की तरह एक मार्गदर्शक मंडल बना लेना चाहिए। मैदान में सिर्फ उन्हें ही रखना चाहिए जो सचमुच पूर्णकालिक कार्यकार्ता की तरह नेतृत्व दे सकें, सबकी सुन सकें, सबको सुना सकें।
इस समय कांग्रेस के जीवन-मरण का प्रश्न है। राहुल गांधी को भी इस हकीकत को समझते हुए उम्रदराज हो रहीं श्रीमती सोनिया गांधी को उसी तरह भारमुक्त कर देना होगा जिस तरह कि आजाद, वोरा या खड़गे को किया गया है। जोखिम लिए बिना चुनौती का मुकाबला कांग्रेस कर नहीं सकती। पार्टी को अब अपने नेताओं को चुनते समय उम्र की सीमा और बंधन तो आरोपित करना ही पड़ेंगे।
कांग्रेस के पास दरअसल आसमानी-सुलतानी नेताओं की फ़ौज है, जबकि जरूरत जमीनी नेताओं की है। यही बात 23 नेताओं ने की थी। ‘फुलटाइम लीडरशिप और फील्ड में असर दिखाने वाली एक्टिवनेस’ कोई मुहावरा नहीं है, बल्कि हकीकत है। मजे की बात ये है कि एक कड़वी बात करने वाले नेताओं में से कोई भी खुद इस पैमाने पर खरा नहीं उतरता। कड़वी बात करने वाले नेताओं को अब राज्य सभा में बने रहने का मोह त्याग कर संगठन में ही काम करना चाहिए, उन्हें यदि पदों से हटाया जाता है तो उससे खफा होने की जरूरत नहीं है। किसी न किसी को त्याग करना पडेगा?
अगले आम चुनाव से पहले कांग्रेस यदि भाजपा के मुकाबले पूरी गंभीरता से खड़ी होना चाहती है तो उसे हिंदी भाषी राज्यों में अपनी पूरी ताकत झोंकना होगी। कांग्रेस को तय करना होगा कि वो अगला चुनाव अपने दम पर लड़ेगी या क्षेत्रीय दलों के सहयोग से। कांग्रेस जब तक क्षेत्रीय दलों की बैसाखी हटाकर नहीं फेंकेगी तब तक उसका कल्याण सम्भव नहीं है।
गठबंधन के दौर ने ही भारत की राजनीति का कबाड़ा किया है। गठबंधन की राजनीति से सियासत में सौदेबाजी का नया युग शुरू हुआ जो अब चरम पर है। बहरहाल देखते जाइये कि कांग्रेस का कायाकल्प कब तक पूरा हो पायेग। हाल का फेरबदल तो एक शुरुआत है।