ओम वर्मा
देश की सबसे बड़ी व सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होते हुए भी, पंजाब को छोड़ दें तो कांग्रेस आज हाशिए पर सिमटी हुई है। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव व बाद से उसका जनाधार निरंतर खिसकता ही जा रहा है। पंजाब में कांग्रेस की जीत मुझे अकाली दल की हार अधिक नज़र आती है। तो क्या वर्तमान स्थिति से यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि कांग्रेस अब क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह गई है।
यह तो अब पूरी तरह साबित हो गया है कि राहुल गांधी में कांग्रेस की नैया पार लगाने की कूवत नहीं है। वे खुद तो डूबे ही, अपने साथ अखिलेश को भी ले डूबे हैं। राहुल गांधी विचारधारा के मामले में बिलकुल शून्य हैं। आपको याद होगा कि बीजेपी सरकार के पूर्ण वित्तीय वर्ष के लिए पहले बजट सत्र में जबकि प्रतिपक्ष की भूमिका बहुत ही अहम हो जाती है, वे पार्टी उपाध्यक्ष जैसे जिम्मेदार पद पर होते हुए भी ‘ अवकाश’ पर चले गए थे। उससे पूर्व एक सत्र में वे सदन में सोते हुए देखे गए थे।
यानी कभी भौतिक रूप से तो कभी मानसिक रूप से वे सदन में थे ही नहीं। हद तो तब हो गई जब दोनों बार उनकी स्थिति को ‘विचारमग्न’ होने या चिंतन पर जाना बताया गया। उनका विपश्यना शिविर के लिए थाईलैंड जाना वैसा ही था जैसे राजतंत्र में किसी राजकुमार को राजतिलक से पहले गुरुओं के पास भेजा जाता था। कुछ किस्से कहानियों में गणिकाओं के पास ‘तहजीब प्रशिक्षण’ हेतु भेजे जाने का उल्लेख भी मिलता है।
दो माह के लिए मुख्य भूमिका से दूर रहकर परदेस में जाकर ‘ज्ञान’ प्राप्त करने या चिंतन मनन करने से पार्टी को तो कुछ हासिल नहीं हुआ था, ‘चिंता’ जरूर हासिल हो गई थी। वे भूल गए कि उनको जयपुर शिविर में उपाध्यक्ष पार्टी का नेतृत्व सम्हालने के लिए बनाया गया था न कि अवकाश पर जाने के लिए!
तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना ही पड़ता है, जमीन पर बैठे-बैठे चिंतन करने से कोई तैरना नहीं सीख सकता। काश राहुल गांधी भी हनुमान जी की तरह यह संकल्प दोहराने की हिम्मत रख सकते कि कांग्रेस को सत्ता में लौटाए बिना मोहि कहाँ बिश्राम! पर इसके बाद वे फिर किसी गुप्त अभियान पर अमेरिका प्रस्थान कर गए।
जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार घोषित किया था तब यह बात कोई भी कांग्रेसी न तो समझ सका था न ही 10, जनपथ को समझा सका था कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी को उतारना शेर के आगे सिर्फ बंदूक का लायसेंस दिखाने वाली बात होगी। तभी राहुल की तुलना में प्रियंका को लाना शायद ज्यादा फलदायी हो सकता था। लेकिन यह भी एक तरह से वंशवाद की बेल को सींचना ही होता।
कांग्रेस की दौड़ कहाँ तक? एक गांधी से दूसरे गांधी तक! यदा-कदा कोई पार्टीमेन काँग्रेस को गांधी परिवार के आभा मण्डल से दूर ले जाने के उपक्रम में आवाज उठा दे या कोई विरोध पत्र लिखे तो उसे या तो ‘लेटर बम’ करार दे दिया जाता है या जयंती नटराजन बना दिया जाता है। संवैधानिक ढंग से निर्वाचित वर्तमान प्रधानमंत्री की कार्यशैली या किसी अन्य गुण की कोई कांग्रेसी अगर प्रशंसा कर बैठे तो उसकी आवाज या तो बैंड-बाजा-बरात के शोर में दुल्हन की सिसकियों की तरह दब जाती है या उसे बगावत मान कर नोटिस थमा दिया जाता है।
आज कांग्रेसियों को दिल पर हाथ रखकर इस पर विचार करना चाहिए कि जिस देश की आबादी में 65 प्रतिशत युवा हों वहाँ राहुल गांधी की स्वीकार्यता आखिर क्यों नहीं बन सकी? अब समय आ गया है कि कांग्रेसी नेहरू-गांधी परिवार का भाट-चारणों की तरह गुणगान बंद करें। लोकतंत्र का तकाजा है कि कांग्रेसी वंशवाद व परिवारवाद के दायरे से बाहर निकलें। यूपी चुनावों के वर्तमान परिणामों से ज़ाहिर हो गया है कि राहुल गांधी कांग्रेस पर बोझ हैं और उनसे मुक्ति पाए बिना कांग्रेस जनता का विश्वास प्राप्त नहीं कर सकती।
आगे अगर सत्रहवीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राहुल गांधी को पीएम के लिए प्रोजेक्ट करती है तो वह एक तरह से बीजेपी को वाकओवर देना ही होगा। इससे कांग्रेस को भी दिल्ली सीएम के लिए किरण बेदी की पेराशूट लैंडिंग जैसे परिणाम भुगतना पड़ सकते हैं और कांग्रेस पर ‘वंशवादी’ होने का जो दाग लगा है वह और गहरा जाएगा।
कांग्रेस व उसके समर्थकों की स्थिति उमर अब्दुल्ला के इस ट्वीट से समझी जा सकती है कि ‘अब 2019 नहीं 2024 की तैयारी में जुटें! यहाँ दिग्विजयसिंह के ट्वीट पर भी ध्यान देना चाहिए जिसमें वे राहुल गांधी से अनुरोध करते हैं कि उन्हें अब कांग्रेस को बदलना चाहिए। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उनका इशारा है कि राहुल बाबा स्वेच्छा से नेतृत्व छोड़ दें?