सरयूसुत मिश्रा
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और विधायक कमलनाथ मध्यप्रदेश विधानसभा में अपनी ही पार्टी की ओर से शिवराज सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान सदन से नदारद रहे। अविश्वास प्रस्ताव पर कमलनाथ का विश्वासघात कांग्रेस जिंदगी भर नहीं भूल पाएगी। अविश्वास प्रस्ताव के समय पार्टी का व्हिप भी अवश्य जारी होता है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ही पार्टी व्हिप का उल्लंघन करें तो फिर उस पार्टी में एकजुटता अनुशासन के बारे में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं बचती।
क्या ऐसा माना जा सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव को लेकर कमलनाथ और नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह के बीच में मतभेद थे? प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष क्या अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाना चाहते थे? नेता प्रतिपक्ष क्या कमलनाथ की मर्जी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए थे? अविश्वास प्रस्ताव का माहौल ऐसा बनाया गया था कि जैसे विपक्ष सरकार के विरुद्ध तथ्यों और प्रमाण के साथ आरोपों की झड़ी लगा देगा, लेकिन अविश्वास प्रस्ताव कांग्रेस के लिए ही सेल्फ गोल साबित हो गया।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब अविश्वास प्रस्ताव के आरोपों का जवाब दे रहे थे, तब सदन में ना तो नेता प्रतिपक्ष उपस्थित थे और ना ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और विधायक कमलनाथ वहां थे। कांग्रेस की पूरी टीम बंटी हुई दिखाई पड़ रही थी। सदन में टोका-टोकी का नजारा अप्रत्याशित था। कई बार तो ऐसा लगने लगा था कि विपक्ष ने सदन की मर्यादा का भी ध्यान नहीं रखा। मुख्यमंत्री को अपनी बात पूरी करने के लिए न मालूम कितनी बार रुकना पड़ा।
विपक्ष नेतृत्वविहीन दिखाई पड़ रहा था। सत्तापक्ष की ओर से एक मंत्री द्वारा तो यह टिप्पणी की गई कि सबसे पहले विपक्ष को कार्यवाही के नेतृत्व के लिए नेता चुन लेना चाहिए ताकि सदन की मर्यादा को ध्यान में रखकर सभी सदस्य मर्यादित आचरण कर सकें। अविश्वास प्रस्ताव के प्रति कांग्रेस के आंतरिक मतभेद और खींचातानी से यह बात तो हवा में ही गायब हो गई है कि अविश्वास प्रस्ताव में जो आरोप लगाए थे उनकी सत्यता कितनी है?
सारे आरोप सिखाए और पढ़ाए हुए ही लगे। जो भी आरोप लगाए गए, वे सब कभी ना कभी मीडिया में प्रकाशित हो चुके हैं। अविश्वास प्रस्ताव में ऐसा एक भी आरोप नहीं दिखाई पड़ा जो नया हो जो पहले से मीडिया में प्रकाशित नहीं हुआ हो और जिसे पार्टी ने अपने सोर्सेस से पब्लिक के बीच जाकर जमीन से पकड़ कर उठाया हो।
चुनाव के पहले विपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव सरकार के खिलाफ चुनावी मुद्दों का परसेप्शन बनाने के लिए लाया जाता है। ऐसे जनहित के मुद्दे इसमें शामिल किए जाते हैं जिनसे जनता ग्रसित हो पीड़ित हो। सदन के अंदर उन मुद्दों पर तथ्यों व प्रमाणों के साथ सरकार को घेरा जाता है। एक ऐसा माहौल बनाया जाता है कि सरकार जनहित से कटी हुई है। इस परसेप्शन वार में कांग्रेस स्वयं पराजित हो गई है। मुद्दे तो अपनी जगह पर हैं मुद्दई पार्टी ही बिखरी हुई दिखाई पड़ रही है। अविश्वास प्रस्ताव का जो हश्र हुआ है उससे तो ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस में विभाजन के जो बीज सरकार के पतन के साथ पड़े थे, वह अभी भी दबे हुए पड़े हुए हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस विधायकों ने क्रॉसवोटिंग की थी, उसी तरह से अविश्वास प्रस्ताव पर क्रॉसमाइंड स्पष्ट रूप से सदन में दिखाई पड़ा है। अविश्वास प्रस्ताव की गतिविधियों और कार्यवाहियों का अगर बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो ऐसा दिखाई पड़ रहा है कि चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी बिखराव के नए संकट की तरफ बढ़ रही है।
कांग्रेस का नो कॉन्फिडेंस मोशन, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को नया कॉन्फिडेंस दे गया है। उन्होंने सदन में सरकार की ओर से जनहित में किए जा रहे कामों को सफलतापूर्वक गिनाया है। गुजरात चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में ऐसा माना जा रहा है कि अनुसूचित जाति और जनजाति बाहुल्य सीटें अगली सत्ता निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी, इसका नजारा विधानसभा के सदन में देखा जा रहा था।
मुख्यमंत्री ने अपने पूरे भाषण में एससी-एसटी के लिए सरकार के महत्वपूर्ण फैसलों को बारीकी से रेखांकित किया। जयस के संरक्षक और कांग्रेस के वर्तमान विधायक डॉक्टर हीरालाल अलावा को इंगित करते हुए सदन में जिस तरह का माहौल दिखाई पड़ रहा था, वह इस बात का संकेत कर रहा था कि भविष्य की आदिवासी राजनीति नई करवट लेने की तरफ बढ़ रही है।
कमलनाथ जब से मध्यप्रदेश की राजनीति में आए हैं तब से पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया है। राजनीति के सिकंदर ने अविश्वास प्रस्ताव को अनाथ क्यों छोड़ा? यह बात लोगों को परेशान कर रही है। कांग्रेस समर्थकों में इस बात पर गहरी चिंता है कि ऐसे क्या अमूर्त कारण हैं जिसके कारण लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा ‘नो कांफिडेंस मोशन’ के समय उनका सबसे बड़ा नेता सदन से गायब रहा। उनकी रहस्यपूर्ण गैरमौजूदगी कांग्रेस के भविष्य का संकेत कर रही है।
लोकतंत्र विचारों और मुद्दों पर राजनीति का माध्यम है। कांग्रेस के विधायकों ने कमलनाथ के प्रति 3 साल पहले जो नो कॉन्फिडेंस दिखाया था। शायद उसके बदले में कमलनाथ ने अविश्वास प्रस्ताव के प्रति अपना नो कॉन्फिडेंस प्रदर्शित किया है। नेता प्रतिपक्ष और पीसीसी चीफ को गुटीय नजरिये से देखा जाय तो दोनों अलग गुटों से आते हैं। अविश्वास प्रस्ताव का हश्र गुटीय कारणों से भी हो सकता है।
जिन नेताओं को राजनीति ने सारी सुख-सुविधाएं दी हैं जिन्होंने पूरी उम्र राजनीतिक सुख-सुविधाओं के बीच गुजारी है, जिनमें संघर्ष का माद्दा नहीं बचा हो, उन्हें पदों पर रहने का नैतिक अधिकार नहीं हो सकता। राजनीति में नैतिकता की बात शायद बेमानी ही कही जाएगी। भारत जोड़ने का दावा करने वाली कांग्रेस अपने विधायक जोड़कर रखने में ही असफल हो रही है। विपक्ष की मजबूती लोकतंत्र के लिए शुभ मानी जाती है। मध्यप्रदेश ऐसे शुभ का दर्शन कब कर पाएगा यह कहना मुश्किल है।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)
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