उपचुनाव ग्वालियर पूर्व
डॉ. अजय खेमरिया
ग्वालियर पूर्व की सीट 2008 के परिसीमन से पहले व्यापारी वर्ग के प्रभुत्व वाली हुआ करती थी, लेकिन अब इसका चुनावी गणित बदलकर ठाकुर, ब्राह्मण बहुल हो गया है। बीजेपी का गढ़ कही जाने वाली इस सीट पर बीजेपी की 2018 में हार दलित आंदोलन और पार्टी की अंदरूनी लड़ाई का नतीजा थी। मुन्नालाल गोयल यहां लगातार दो चुनाव हारने के बाद जीत सके थे। दोनों बार वे नजदीकी मुकाबले में अनूप मिश्रा और माया सिंह से हारे थे।
देश में पहली बार 1998 में ईव्हीएम जिन सीटों पर प्रयोग में लाई गई थीं, उनमें यह सीट भी थी। तब इसे लश्कर पूर्व के नाम से जाना जाता था और मौजूदा सांसद विवेक शेजवलकर, कांग्रेस के रमेश अग्रवाल से 317 वोट से हार गए थे। 2018 में मुन्नालाल गोयल 90133 वोट लेकर जीते थे और बीजेपी के सतीश सिकरवार 72314 वोट ही हासिल कर सके थे।
2013 में मुन्नालाल 58677 वोट पाकर हारे थे तब माया सिंह 59824 वोट लेकर पहली बार एमएलए चुनी गई थीं। 2008 में मुन्नालाल को 35567 और अनूप मिश्रा को 37105 वोट मिले थे। 2003 में अनूप मिश्रा ने 12716 वोट के अंतर से सिटिंग एमएलए रमेश अग्रवाल को हराया था।
परिसीमन के बाद यहां बसपा की ताकत बढ़ी है, क्योंकि दलित वर्ग के करीब 35 हजार वोट हैं। ब्राह्मण-दलित का कांबिनेशन यहाँ अपनाने की कोशिशें तो हुईं, लेकिन वे सफल नही हो पाईं। 2008 में बसपा के ब्रजेश शर्मा ने 14968 वोट लेकर अनूप मिश्रा की राह आसान की तो 2013 में आनन्द शर्मा ने 17969 वोट लेकर माया सिंह को पहली बार विधानसभा भिजवाने में मदद की।
2018 में बीजेपी के विरुद्ध सवर्णों की नाराजगी और दलितों की रणनीतिक वोटिंग के चलते पार्टी को यहां पहली बार इतना नुकसान झेलना पड़ा। बसपा भी 5446 वोटों पर सिमट गई। यहां के कुल 317 मतदान केंद्रों में से करीब 60 बूथ वैश्य व्यापारी बहुल हैं। पर्याप्त समर्थन के बावजूद मुन्नालाल गोयल यहां से हारते रहे, लेकिन सतीश सिकरवार की उम्मीदवारी के साथ जहां बीजेपी में गुटबाजी चरम पर पहुँच गई, वहीं दलित आंदोलन की चपेट में आए ठाकुर, ब्राह्मण और पहले से नाराज चल रहे सरकारी कर्मचारियों ने यहां बीजेपी की हार सुनिश्चित कर दी।
ब्राह्मण, दलित, वैश्य वोटर एक मुश्त मुन्नालाल के साथ चले गए दूसरा भिंड के जिन ठाकुर वोटरों पर डॉ. गोविंद सिंह का प्रभाव था, वे भी सतीश के विरुद्ध हो गए क्योंकि 2014 में मुरैना से गोविन्द सिंह, सतीश के काका वृन्दावन सिंह के, बसपा से लड़ने के कारण, चुनाव हार गए थे। बीजेपी और विरोधियों ने सतीश सिकरवार की दबंगई छवि को भी जमकर प्रचारित किया। बीजेपी के तमाम नेताओं के ऑडियो वायरल भी हुए जिनमे सतीश को हराने का जिक्र था।
नई परिस्थितियों में मुन्नालाल अब बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। 15 महीने के कार्यकाल में उनके पास उपलब्धि के नाम पर कुछ नहीं है। सिंधिया परिवार के प्रभाव को यहां नकारा तो नहीं जा सकता है इसलिए बीजेपी के परम्परागत वोटरों के आधार पर मुन्नालाल की सम्भावना को अन्य सीटों की तुलना में खारिज भी नहीं किया जा सकता है।
पर यहां बुनियादी दिक्कत बीजेपी के कार्यकर्ताओं के साथ मुन्नालाल का समेकन हैं जो बहुत ही दुष्कर काम है। यहां सतीश सिकरवार चुनाव हारने के बाबजूद एक बड़ी राजनीतिक ताकत हैं क्योंकि वह लगातार अपने क्षेत्र में सक्रिय बने हुए हैं। उनका राजनीतिक पुनर्वास किए बगैर यहां बीजेपी बहुत आश्वस्त नहीं हो सकेगी।
कांग्रेस की दिक्कतें भी यहां कम नहीं हैं, क्योंकि उसके पास कोई स्वाभाविक मजबूत विकल्प यहां नहीं है। अपेक्स बैंक के प्रशासक रहे अशोक सिंह का नाम यहां चर्चा में है, जो लोकसभा के चार चुनाव हार चुके हैं। लेकिन उनकी छवि एक भले और गंभीर व्यापारी की है। उनका परिवार विशुद्ध रूप से कैडर बेस्ड कांग्रेसी है।
सिंधिया के बीजेपी में जाने के बाद अशोक सिंह इस इलाके में पार्टी के बड़े नेता बन गए हैं। एक मत यह भी है कि अगर वे ग्वालियर पूर्व से चुनाव लड़कर हार गए तो यहां सिंधिया मुक्त कांग्रेस का आत्मबल बुरी तरह से टूट जाएगा। बावजूद इसके अशोक सिंह यहां सबसे बेहतर कैंडिडेट हो सकते हैं।
कांग्रेस की नजर बीजेपी में हाशिये पर चल रहे पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा पर भी है। वे दो बार यहां से विधायक रह चुके हैं और आजकल किनारे लगा दिये गए हैं। अटल जी के नाम पर ब्राह्मण वोटरों और अनूप मिश्रा की खुद की नेटवर्किंग के जरिए पार्टी मुन्नालाल को घेरने की रणनीति पर काम कर रही है।
कांग्रेस गिर्द के पूर्व बीजेपी विधायक ब्रजेन्द्र तिवारी को भी मनाने में लगी है। वे भी अपनी साफ और ईमानदार छवि के चलते यहां मुकाबले को रोचक बना सकते हैं। फिलहाल तिवारी भी बीजेपी से बाहर हैं। लेकिन इन दोनों नेताओं को लाना बहुत आसान भी नहीं है। वैसे दिग्विजयसिंह से नजदीकी रखने वाले, मीडिया जगत से जुड़े एक दो नाम भी लोगों ने चर्चा में चला रखे हैं लेकिन असल में कांग्रेस के पास यहां जमीनी कैंडिडेट का अभाव है और उसकी खोज घूम फिर कर अशोक सिंह पर ही आकर टिक जा रही है।
मौजूदा परिस्थिति में यहां कांग्रेस को सशक्त कैंडिडेट और बीजेपी को अपने कैडर को संतुष्ट करने की चुनौती सबसे बड़ी है।
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टीम मध्यमत