राकेश अचल
राजनीति में बेशर्मी की कोई सीमा नहीं होती। मामला चाहे दलबदल का हो या दलबदलुओं को टिकिट देने का। मध्यप्रदेश में कांग्रेस हो या भाजपा सब दलबदलुओं के सहारे सत्ता के शीर्ष पर बने रहना चाहते हैं। मार्च 2020 में भाजपा ने कांग्रेस का तख्ता पलट किया था और अब कांग्रेस दलबदलुओं के सहारे, होने वाले विधानसभा उपचुनावों में, भाजपा को पटकनी देना चाहती है। इस अनैतिक युद्ध में सबसे ज्यादा फजीहत निष्ठावान कार्यकर्ताओं की है, फिर चाहे वे इस पार्टी के हों या उस पार्टी के।
अगले महीने प्रदेश में विधानसभा की 28 सीटों के लिए उपचुनाव कराये जाना है। ये उपचुनाव कांग्रेस में सिंधिया गुट के 22 विधायकों के इस्तीफे के अलावा शेष विधायकों के निधन के कारण होने हैं। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस के 22 विधायक भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ताओं के लिए बोझ हैं, लेकिन एक अनुशासित राजनीतिक दल होने के कारण भाजपा कार्यकर्ताओं को मन मारकर इन दलबदलुओं के लिए न सिर्फ काम करना पड़ रहा है बल्कि उन्हें अपना नेता भी मानना पड़ रहा है।
सत्ता गंवा चुकी कांग्रेस की दशा घायल नाग जैसी है। कांग्रेस ने इन थोपे गए उपचुनावों में भाजपा को सबक सिखाने के लिए ‘कांटे से काँटा निकालने’ की नीति का सहारा लेने का प्रयास किया है। ग्वालियर में भाजपा से बगावत कर आये डॉ. सतीश सिंह सिकरवार के अलावा सुरखी और मुंगावली सीट पर भाजपा के ही बागियों को अपना प्रत्याशी बना दिया है। दलबदलुओं को सम्मान देने के पीछे कांग्रेस की भी वो ही विवशता है जो भाजपा की है। ये दलबदलू नेता किस पार्टी को कितना लाभ दिला पाएंगे ये अभी से कहना कठिन है।
दलबदलुओं का बोझ सर पर रखकर उपचुनाव जीतने के लिए संघर्षरत भाजपा और कांग्रेस के लिए ये चुनाव जीतना बेहद आसान नहीं हैं। लेकिन चुनाव तो चुनाव है। उपचुनाव में सर्वाधिक 16 सीटों वाले ग्वालियर-चंबल संभाग में भाजपा ने सरकार का खजाना खोल दिया है। बीते एक पखवाड़े में इस अंचल में कोई पांच हजार करोड़ से ज्यादा लागत की योजनाओं के शिलान्यास और उद्घाटन हो चुके हैं और अभी ये सिलसिला जारी है। ये बात अलग है कि सरकार का खजाना खाली है और अधिकांश योजनाएं कागजी हैं। इनमें से बहुत सी योजनाओं के लिए तो बजट में सांकेतिक प्रावधान तक नहीं किया गया है और बहुत सी योजनाएं पहले से चालू थीं, जिनका लोकार्पण कर दिया गया है।
मध्यप्रदेश विधानसभा के अधिकांश चुनाव में कांग्रेस के पास स्टार प्रचारकों का संकट है। पूर्व मुख्यमंत्री, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता का बोझ कमलनाथ के बूढ़े कन्धों पर है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनावों में व्यस्त कर दिया है। ऐसे में कांग्रेस के अधिकांश प्रत्याशियों को अपना चुनाव खुद लड़ना पडेगा। कांग्रेस के बाहरी चुनाव प्रचारक ऐन मौके पर यहां आएंगे जरूर, लेकिन वे मतदाताओं को कितना प्रभावित कर पाएंगे कहा नहीं जा सकता। दूसरी तरफ भाजपा के पास ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अलावा केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मुख्य चुनाव प्रचारक हैं। भाजपा के पास कांग्रेस के मुकाबले चुनाव प्रचारकों की इफरात है।
कोरोना संक्रमण काल में हो रहे इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा को पार्टी के आंतरिक असंतोष के साथ ही कोरोना से भी लड़ना पड़ रहा है। इस काल में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा अपने पिता को, पूर्व विधायक मुन्नालाल गोयल अपने अग्रज को खो चुके हैं। गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्र के पुत्र कोरोना से पीड़ित हैं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और ज्योतिरादित्य सिंधिया कोरोना को मात देकर मैदान में हैं, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह के खास उदय घाटगे को भी कोरोना ने छीन लिया है। कोरोनाकाल में कार्यकार्ताओं और मतदाताओं को घरों से बाहर निकालना आसान काम नहीं है।
बहरहाल चुनावी बिसात बिछाई जा जा चुकी है। किसी भी समय उपचुनाव की तारीखें घोषित हो सकती हैं। भाजपा को इन उपचुनावों में सत्ता में बने रहने के लिए ज्यादा से ज्यादा आठ-नौ सीटों की जरूरत है जो वो आसानी से जीत ले जाएगी। लेकिन चुनाव और क्रिकेट के बारे में भविष्यवाणी करना बुद्धिमत्ता नहीं होती। इसलिए मैं भी कोई भविष्यवाणी नहीं कर रहा। मेरा मानना है की सत्तारूढ़ भाजपा चाहे तो कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ भी कर सकती है और कांग्रेस भी चाहे तो भाजपा को नाक से चने चबाने पर विवश कर सकती है। सारा खेल प्रबंधन का है। अब तेल देखिये और तेल की धार देखिए…