उलझन तो है भाई, बड़ी उलझन है। तय करना मुश्किल है कि इधर रहकर बोलें या उधर रहकर। देखते ही देखते मामला इतना उच्चस्तरीय हो गया कि अब इधर और उधर के पाले में एक तरफ सुप्रीम कोर्ट है और दूसरी तरफ सरकार… यानी मुश्किल और बढ़ गई, किसका पक्ष लें, सरकार का या सुप्रीम कोर्ट का…?
आप सोच रहे होंगे कि यह क्या पहेली है, मैं अपने पाठकों को क्यों उलझाना चाहता हूं। लेकिन यह उलझने वाला मामला ही है। क्योंकि न तो सरकार का पक्ष लेकर सुप्रीम कोर्ट को नाराज किया जा सकता है और न ही सुप्रीम कोर्ट का पक्ष लेकर सरकार को…
आइए, पहले जरा वह मामला जान लीजिये जिसने यह दुविधा पैदा की है। दरअसल देश में इन दिनों आरोपियों को सड़क पर देखते ही मार डालने के आदेश जारी हो गए हैं। सोशल मीडिया की ओर से जारी ये आदेश इतने प्रभावी हैं कि फास्ट ट्रैक कोर्ट भी इनके आगे शरमा जाए। अब अपराध और अपराधी का फैसला कोर्ट नहीं भीड़ कर रही है।
अंग्रेजी में इसके लिए शब्द गढ़ा गया ‘मॉब लिंचिंग’ और हिंदी वालों ने उसका अनुवाद किया है ‘भीड़ हिंसा’… इसी भीड़ हिंसा ने देश के सामने यह दुविधा पैदा कर दी है कि लोग सुप्रीम कोर्ट के साथ खड़े हों या फिर सरकार के साथ जाएं।
दरअसल दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने सड़कों पर हो रही इस हिंसा को लेकर निर्देश दिए थे कि ‘मॉब लिंचिंग’ पर सरकार कानून बनाए और संविधान के अनुसार काम करे। कोर्ट का कहना था कि शांति स्थापित करना सरकार का दायित्व है, कोई भी अपने आप में कानून नहीं हो सकता।
लेकिन संसद के चालू सत्र के दौरान जब विपक्ष ने यह मामला उठाया तो सत्तारूढ़ दल के नेताओं की ओर से कहा गया कि इसके लिए अलग से कानून बनाने की कोई जरूरत नहीं है। बताया जाता है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने भी कोई नया कानून बनाने के विचार को खारिज कर दिया है।
संसद में यह मामला उठने पर भाजपा की सांसद और वरिष्ठ वकील मीनाक्षी लेखी ने अलग ही तर्क देते हुए कहा कि ऐसी घटनाएं आर्थिक असमानता के कारण हो रही हैं। उन्होंने बंगाल और केरल में हुई दो घटनाओं का जिक्र किया। इनमें से एक में मुर्गी चोरी जैसे मामूली आरोप में भीड़ ने एक व्यक्ति को मार डाला था।
गुरुवार को संसद में शून्यकाल के दौरान मॉब लिंचिंग का मामला उठाए जाने पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि ऐसे मामले दुर्भाग्यपूर्ण हैं और हम इन घटनाओं को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई कर रहा है। इस संबंध में सोशल मीडिया सेवा प्रदाताओं को भी फर्जी समाचार पर रोक लगाने के इंतजाम करने को कहा गया है।
दरअसल मुख्य सवाल यह है कि क्या कोई कानून बनाने भर से किसी अपराध को होने से रोका जा सकता है? भले ही आज के ज्यादातर कानूनों की बुनियाद अंग्रेजों के जमाने में रखी गई हो, लेकिन उनमें आज भी इतनी गुंजाइश तो है कि आप चाहें तो किसी भी अपराधी को सजा दिला सकते हैं।
यह ठीक है कि सामाजिक परिस्थितियों और लोगों की मनोवृत्तियों में बदलाव आने के साथ साथ अपराध के तौर तरीके भी बदले हैं और उनसे निपटने के लिए कानूनों में आवश्यक संशोधन जरूरी हैं, लेकिन क्या कानून बनाने भर को ही अपराधी मुक्त समाज का विकल्प माना जा सकता है?
ज्यादा दूर क्यों जाएं, देश में दुष्कर्म और महिला अत्याचार को लेकर पिछले कुछ सालों के दौरान अनेक बर्बर और जघन्य घटनाएं हुई हैं। ऐसी हर घटना के बाद सख्त कानून बनाने और अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग भी उठती रही है। इसी दबाव का नतीजा है कि सरकारें गैंग रेप या नाबालिगों से दुष्कर्म के मामलों में फांसी की सजा वाले कानून लेकर आई है।
लेकिन देखने में आ रहा है कि ऐसे कानून बनने या कड़े प्रावधान करने के साथ ही नाबालिगों और यहां तक कि छोटे छोटे बच्चों से दुष्कर्म की घटनाओं का जैसे तांता लग गया है। सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं भी लगातार हो रही हैं। जबकि इस बीच कई अदालतें मामले की त्वरित सुनवाई करते हुए चंद दिनों में ही दोषियों को फांसी अथवा आजीवन कारावास जैसी सजाएं सुना चुकी हैं।
इसका मतलब यह है कि नया कानून बना देने या कानून को सख्त बनाने भर से ही काम नहीं चलने वाला। अपराध की रोकथाम के लिए और भी उपाय करने होंगे। इन उपायों में सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले उपायों के साथ साथ गवर्नेंस और कानून व्यवस्था के माहौल को ठीक करने वाले उपाय भी जरूरी हैं।
अकेला कानून कुछ नहीं कर सकता यदि लोगों में खुद के द्वारा किए गए अपराध पर सजा मिलने का डर न हो। यदि अपराधी कानून या सजा से डरना छोड़ दें तो दुनिया की कोई ताकत उन्हें अपराध करने से नहीं रोक सकती।
ऐसे में हमें सामाजिक व्यवस्था में ही ऐसे बदलाव लाने होंगे जो अपराध के प्रति घृणा और नकारात्मकता का भाव जगाएं। दिक्कत केवल अपराध होने की ही नहीं है। एक बड़ा बदलाव जो कुछ सालों से महसूस हो रहा है वो यह है कि लोग अपराध को या तो महिमामंडित करने लगे हैं या फिर उन्हें जायज ठहराने लगे हैं।
किसी भी अपराधी को किसी भी कानून से ज्यादा बड़ी और गहरी सजा समाज और उसका अपना परिवार दे सकता है। लेकिन यदि समाज का ही एक तबका किसी अपराध या अपराधी के पक्ष में खड़ा होकर उसकी पैरवी करने लगे और उसके किए को गलत ठहराने के बावजूद यह कहे कि ऐसा करना जरूरी हो गया था, तो यह प्रवृत्ति पूरे समाज के लिए घातक है। क्योंकि इसका कोई अंत नहीं।
यदि एक पक्ष आज किसी एक घटना को लेकर किसी अपराधी का पक्ष लेता है तो तय मानिये कि भविष्य में दूसरा पक्ष भी अपने किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए अपराध को लेकर ऐसा ही व्यवहार करेगा। जब समाज में अपराध या अपराधियों के ऐसे हिमायती पैदा हो जाएं तो फिर कोई भी कानून किसी का क्या बिगाड़ लेगा?