इस ‘मुफ्तखोरी’ को सिर्फ कोसने से ही काम नहीं चलेगा

दिल्‍ली चुनाव को लेकर दो मुद्दों पर सबसे ज्‍यादा बात हुई है। पहली शाहीन बाग धरने के बहाने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर और दूसरी आम आदमी पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में मुफ्त दी जाने वाली सुविधाओं पर। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को लेकर जितनी बात हुई है उतनी बात मुख्‍य मीडिया में मुफ्त योजनाओं को लेकर नहीं हुई। हां, सोशल मीडिया में इस मुद्दे पर काफी घमासान मचा हुआ है।

दरअसल चुनावों में जनता को मुफ्त सुविधाओं का चस्‍का कई साल पहले लग गया था। दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों ने इस मामले में खूब ‘नवाचार’ किए। पहले खाद्य सामग्री और फिर अलग अलग सामान मुफ्त बांटने की ऐसी होड़ मचाई कि पूरा चुनाव ही मजाक बनकर रह गया। लोग सरकारों के कामकाज पर ध्‍यान देने या उसके आधार पर अपने वोट का फैसला करने के बजाय चुनाव घोषणा पत्रों में मुफ्त योजनाओं की सूची के इंतजार में रहने लगे।

धीरे धीरे यह रोग पूरे भारत में फैल गया। राज्‍यों के चुनाव में जब ऐसी घोषणाओं का फायदा मिलता दिखा तो पार्टियों ने लोकसभा चुनावों में भी इस फार्मूले को आजमाना शुरू कर दिया। केंद्र में सरकार बनाने वाला कोई भी दल इस मुफ्त के रोग से अछूता नहीं है। अब हालत यह है कि लोगों की दाढ़ में जहां मुफ्त की योजनाओं का खून लग चुका है वहीं राजनीतिक दलों की दाढ़ में इन योजनाओं से हासिल होने वाले वोटों का।

दिल्‍ली के चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने 10 सूत्री गारंटी कार्ड जारी करते हुए जनता से वायदा किया था कि 200 यूनिट बिजली मुफ्त मिलती रहेगी। आने वाले पांच साल में 20 हज़ार लीटर पानी मुफ्त मिलता रहेगा। 12वीं तक की शिक्षा मुफ्त होगी और आगे की पढाई के लिए व्‍यवस्‍था की जाएगी। लोगों को बेहतर और मुफ्त इलाज मिलेगा। माहिलाओं और छात्राओं को बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा रहेगी।

आम आदमी पार्टी ने जब मुफ्त योजनाओं का ऐलान किया तो भाजपा भी कहां पीछे रहने वाली थी। भाजपा ने भी अपने चुनाव घोषणा पत्र में लोगों से वादा किया कि सत्‍ता में आने पर वो गरीबों को 2 रुपये प्रति किलो आटा, कॉलेज जाने वाली गरीब छात्राओं को मुफ्त इलेक्ट्रिक स्कूटी और 9वीं में जाने वाले छात्रों को साइकिल देगी। 200 यूनिट बिजली और 20 हजार लीटर पानी मुफ्त मिलेगा। इसके अलावा गरीब परिवार में बेटी के जन्म के वक्त उसका अकाउंट खोलेंगे और बेटी के 21 साल की होने पर 2 लाख रुपये दिए जाएंगे। इसी तरह गरीब विधवा महिला की बेटी की शादी के लिए 51 हजार रुपये की मदद दी जाएगी।

जब आम आदमी पार्टी और भाजपा ने अपने घोषणा पत्रों में मुफ्त वाले वादे किए तो कांग्रेस भी इसी फार्मूले पर चली उसने अपने घोषणा पत्र में पानी और बिजली के मामले में दो कदम आगे बढ़कर ऐलान किया कि उसके राज में 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त होगी और 300 से 400 यूनिट तक बिजली इस्तेमाल करने पर 50 फीसदी की छूट मिलेगी। इसी तरह 20 हजार लीटर तक पानी मुफ्त मिलेगा और इससे कम खर्च करने पर 30 पैसा प्रति लीटर का कैशबैक मिलेगा।

कांग्रेस ने यह भी वादा किया कि ट्रांसजेंडरों को ‘शीला पेंशन योजना’ के तहत 5,000 रुपये प्रति महीने की राशि दी जाएगी। ग्रेजुएट को हर महीने 5 हजार रुपये और पोस्ट ग्रेजुएट को 7,500 रुपये बेरोजगारी भत्‍ता दिया जाएगा और बीपीएल कोटे वाले परिवारों के एक सदस्य को स्टार्टअप के लिए 25 लाख रुपये की एकमुश्त राशि देंगे।

यानी दिल्‍ली के चुनाव मैदान में उतरा कोई भी दल ऐसा नहीं था जिसने बढ़चढ़कर मुफ्त योजनाओं का ऐलान न किया हो। चुनाव नतीजे आने के बाद सोशल मीडिया पर इन मुफ्त योजनाओं के वादों को लेकर कमेंट्स की बाढ़ आ गई। 48 सीट लाने का दावा करने वाली भाजपा के नेता और समर्थक चुनाव में हार से सबसे ज्‍यादा खिसियाये और उन्‍होंने दिल्‍ली की जनता को उलाहना देते हुए यहां तक कह दिया कि लोग मुफ्त योजनाओं के हाथों बिक गए।

दरअसल ये ‘मुफ्त का माल’ वाले सारे वादे हमारी चुनाव प्रक्रिया को कमजोर करने वाले हैं। एक तरह से यह चुनाव से पहले जनता की ओर बढ़ाया गया रिश्‍वत का ऐसा हाथ है जिसे देने वाला और लेने वाला दोनों ही खुश नजर आते हैं। यह मामला चुनाव सुधार की प्रक्रिया से जुड़ा है। चूंकि मुफ्तखोरी की थैली में सारे ही दल उतरे हुए हैं इसलिए कोई इसका खुलकर न तो विरोध करता है और न ही इस पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए आवश्‍यक कदम उठाए जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि मुफ्त के माल का यह मुद्दा अभी दिल्‍ली चुनाव के समय ही उठा हो। 2013 में भी यह मसला चुनाव आयोग के सामने आया था। उस समय आयोग चुनाव सुधार को लेकर राजनीतिक दलों के पास पहुंचा था और उनसे कुछ मामलों पर पूरी तरह रोक लगाने की अपेक्षा की थी। इनमें चुनाव से पूर्व छह महीनों के दौरान कोई भी नीतिगत घोषण न करने और घोषणा पत्र में मुफ्त वाली घोषणाएं न किए जाने की बात शामिल थी।

चुनाव से ठीक पहले मतदाताओं को लक्ष्‍य करके बडे-बड़े नीतिगत फैसले लेने के साथ चुनावी घोषणा पत्र में मुफ्त सामान बांटने का बढ़ता चलन देख आयोग ने प्रस्ताव किया था कि चुनाव की अधिसूचना जारी हो या न हो, संसद या विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के 6 महीने के पहले ही अपने आप नई योजनाओं के ऐलान पर रोक लग जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र में मुफ्त सामान के वादे पर अंकुश लगाने के लिए गाइडलाइन बनाने का सुझाव दिया था। इस पर चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों के साथ मीटिंग कर उनकी राय जानी थी। हालांकि सभी दलों ने घोषणा पत्र बनाने में आयोग की दखलंदाजी को नकार दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सुझाव के बाद आयोग ने इस तरह की रोक के लिए सरकार को लिखा था।

गरीबों और वंचितों के लिए कल्‍याणकारी योजनाएं निश्चित रूप से चलनी चाहिए और निर्धन वर्ग को बुनियादी सुविधाओं के लिए मदद भी मिलनी चाहिए लेकिन चुनाव में वोट कबाड़ने के लिए इनका इस्‍तेमाल ठीक नहीं। दुर्भाग्‍य से मतदाताओं को ऐसी ‘मुफ्तखोरी’ का चस्‍का लगाने का यह मामला अभी तक न्‍यायालय, सरकार और चुनाव आयोग के गलियारों में चक्‍कर लगा रहा है। चूंकि हर राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए इस लॉलीपॉप का इसतेमाल कर रहा है इसलिए कोई भी नहीं चाहता कि इस पर प्रतिबंध लगे। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक रिकार्ड वाले उम्‍मीदवारों को टिकट देने का सबब बताने के लिए राजनीतिक दलों को पाबंद किया है, उम्‍मीद की जानी चाहिए कि जल्‍दी ही वह इस ‘मुफ्तखोरी’ को लेकर भी कोई प्रभावी कदम उठाएगा।

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