आइए, जिंदा पितरों की भी सुधि लें!

जयराम शुक्ल

चलिए इस पितृपक्ष का तर्पण जिंदा पितरों का हालचाल जानने से करें। इनमें से कई घर में ही पितर बन जाने की प्रतीक्षा में हैं, कइयों को घर में ठौर नहीं इसलिए वृद्धाश्रमों में खैरात की रोटी तोड़ रहे हैं। बहुतेरे ऐसे भी हैं जो काशी-मथुरा-हरिद्वार जैसे तीर्थों में भगवद् भजन करते हुए आसमान से सरगनशेनी की प्रतीक्षा में हैं। महानगरों में तनहाई में जी रहे कइयों को तो धन के लालच में उनके नौकर चाकर ही टुटुआ दबाकर मनुष्य से पितर योनि में भेज रहे हैं। अतरे-दुसरे ऐसे समाचार पढ़ने-सुनने को मिलते हैं कि साँय-साँय सूने पड़े बँगले में उपेक्षा, एकाकीपन, असुरक्षाबोध जनित अवसाद में खुद ही ईहलीला खत्म कर रहे हैं।

इस पर विमर्श करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कल हम सब भी पितर में परिवर्तित हो जाने वाले हैं। इस विमर्श में यह मनाही नहीं है कि पितरों का पिंडा पारने, गयाधाम जाकर उन्हें तारने और घर में हलवा, पूड़ी खीर की श्राद्ध नहीं करिए। करिये, कम से कम पुरखे इसी बहाने याद तो आते हैं। हमारे पुराणों, श्रुत व स्मृति कथाओं की बातों के अर्थ हैं। चूँकि समयकाल के साथ बदलाव नहीं हुआ इसलिए वह संस्कृति रुढि परंपराओं में बदल गई।

पितरपख में कौव्वे का बड़ा महत्व है। ऐसा मानते हैं कि कौव्वे के रूप में हमारे पितर आते हैं। वैग्यानिक दृष्टि से भी पशु पक्षी हमारे पुरखे हैं। इसलिए इन्हें वेदपुराणों से लेकर हर तरह के साहित्य व संस्कृति में श्रेष्ठता मिली है। पशु पक्षियों को निकाल दीजिए हमारी समूची लोकपरंपरा प्राणहीन हो जाएगी। गरुड़ के नाम से एक पुराण ही है। इस गरुड़ पुराण में ही हमारी पितर संस्कृति का बखान है। लेकिन गरुड़ को ग्यान मिला कौव्वे से। ये रामचरित के कागभुशुण्डि कौन हैं। ये गरुड़ के गुरुबाबा हैं। आज हम जिस रामकथा का पारायण करते हैं। उज्ज्यिनी में इन्होंने ही गरुड़ को सुनाया था। एक निकृष्ट तिर्यक योनि पक्षी को भी कागभुशुण्डि ने पूज्य और सम्मानीय बना दिया। कागभुशुण्डि का चरित्र इस बात का प्रमाण है कि नीचकुल में जन्मने वाला भी प्रतिष्ठित और सम्मानित हो सकता है।

बहरहाल हम चर्चा कर रहे थे जिंदा पितरों की। इसी क्रम में एक ऐसे ही जिंदा पितर की सत्यकथा सुनिए। पितरों की श्रेणी में पहुंचने से पहले ये बड़े अधिकारी थे। ऑफिस का लावलश्कर चेले चापड़ी, दरबारियों से भरापूरा बंगला। जब रसूख था और दौलत थी, तब बच्चों के लिए वक्त नहीं था। लिहाजा बेटा जब ट्विंकल-ट्विंकल की उम्र का हुआ तो उसे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया। आगे की पढ़ाई अमेरिका में हुई। लड़का देश, समाज, परिवार, रिश्तेदारों से कैसे दूर होता गया, साहब बहादुर को यह सब महसूस करने का वक्त ही नहीं मिला। वे अपने में मुदित रहे। उधर एक दिन बेटे ने सूचना दी कि उसने शादी कर ली है। इधर साहब बहादुर दरबारियों को बेटे की आधुनिक जमाने की शादी के किस्से सुनाकर खुद के भी आधुनिक होने की तृप्ति लेते रहे क्योंकि बेटे से उसके शादी के निर्णय के सही गलत परिणाम पर चर्चा के लिए भी वक्त नहीं था उनके पास।

एक दिन वह भी आया कि रिटायर हो गए। बड़ा बंगला सांय-सांय लगने लगा। सरकारी लाव-लश्कर, दरबारी अब नए अफसर का हुक्का भरने लगे। जब तक नौकरी की, नाते रिश्‍तेदारों को दुरदुराते रहे। रिटायर हुए तो अब वही नाते रिश्तेदार इन्हें दुरदुराने लगे। तनहाई क्या होती है अब उससे वास्ता पड़ा। वीरान बंगले के पिंजड़े में वे और पत्नी तोता मैना की तरह रह गए। एक दिन सूचना मिली कि विदेश में उनका पोता भी है जो अब पाँच बरस का हो गया। बेटे ने माता पिता को अमेरिका बुला भेजा।

रिटायर्ड अफसर बहादुर को पहली बार गहराई से अहसास हुआ कि बेटा, बहू, नाती पोता क्या होता है। दौलत और रसूख की ऊष्मा में सूख चुका वात्सल्य इस तनहाई में उमड़ पड़ा। वे अमेरिका उड़ चले। बहू और पोते की कल्पित छवि सँजोए।बेटा हवाई अड्डा लेने आया। वे मैनहट्टन पहुंचे। गगनचुंबी अपार्टमेंट में बेटे का शानदार फ्लैट था। सबके लिए अलग कमरे। सब घर में थे अपने अपने में मस्त। सबके पास ये सूचनाएं तो थीं कि एक दूसरे का जैविक रिश्ता क्या है पर वक्त की गरमी ने संवेदनाओं को सुखा दिया था। सभी एक छत के नीचे थे पर यंत्रवत् रोबोट की तरह। घर था, दीवारें थीं, परिवार नहीं था।

रात को अफसर साहब को ऊब लगी पोते की। सोचा इसी के साथ सोएंगे, उसका घोड़ा बनेगे, गप्पे मारेंगे, आह अंग्रेजी में जब वह तुतलाकर दद्दू कहेगा तो कैसा लगेगा..! कल्पनालोक में खोए वे आहिस्ता से फ्लैट के किडरूम गए। दरवाजा खोलकर पोते को छाती में चिपकाना ही चाहा कि वह नन्हा पिलंडा बिफर कर बोला, हाऊ डेयर यू इंटर माई रूम विदाउट माई परमीशन दद्दू। दद्दू के होश नहीं उड़े बल्कि वे वहीं जड़ हो गए पत्थर की मूरत की तरह। दूसरे दिन की फ्लाइट पकड़ी भारत आ गए। एक दिन अखबार में वृद्धाश्रम की स्पेशल स्टोरी में उनकी तस्वीर के साथ उनकी जुबान से निकली यह ग्लानिकथा पढ़ने व देखने को मिली।

इस कथा में तय कर पाना मुश्किल है कि जवाबदेह कौन? पर यह कथा इस बात को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि संयुक्त परिवारों का विखंडन भारत के लिए युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। संवेदनाएं मर रही हैं और रिश्ते नाते वक्त की भट्ठी में स्वाहा हो रहे हैं। कभी संयुक्त परिवार समाज के आधार थे जहां बेसहारा को भी जीते जी अहसास नहीं हो पाता था कि उसके आगे पीछे कोई नहीं। वह चैन की मौत मरता था। आज रोज बंगले या फ्लैट में उसके मालिक की दस दिन या महीने भर की पुरानी लाश मिला करती है। वृद्धों में खुदकुशी करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

पुरखे हमारी निधि हैं और पितर उसके संवाहक। हमारी संस्कृति व परंपरा में पितृपक्ष इसीलिए आया कि हम अपने बाप दादाओं का स्मरण करते रहें, और उनकी जगह खुद को रखकर भविष्य के बारे में  सोचें। हमारे पुरखे श्रुति व स्मृति परंपरा के संवाहक थे। भारतीय ग्यान परंपरा ऐसे ही चलती  चली आई है और वांगमय को समृद्ध करती रही है। ये पितरपक्ष रिश्तों की ऊष्मा और त्रासदी पर विमर्श का भी पक्ष है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की चेतावनी को नोट कर लें- जो पीढ़ी  पुरखों को विस्मृत कर देती है, उसका भविष्य रुग्ण और असहाय हो जाता है।

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