आओ ग्वालियर की विरासत बचाये

राकेश अचल

मैंने कुछ दिन पहले ही लिखा था की ग्वालियर प्रदेश के दूसरे शहरों के मुकाबले अपनी पहचान तेजी से खो रहा है। पहचान के लिए हर शहर के पास अपनी विरासत होती है। इसे बचाना हर शहर की जिम्मेदारी है। अब ग्वालियर शहर की सबसे पुरानी विरासत नैरोगेज ट्रेन को बचाने का समय आ गया है। इस विरासत का एक हिस्सा दशकों पहले ब्राडगेज में बदला जा चुका है जबकि एक हिस्से को बीते एक साल से बंद कर दिया गया है। कुछ साल पहले इसी विरासत को लेकर आज के केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और आज के ही राज्य सभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया ने आमने सामने की लड़ाई लड़ी थी। आज इस विरासत को बचाने का जिम्मा भी इन्हीं दो नेताओं के कंधों पर है।

हाल में केंद्रीय आवास मंत्रालय द्वारा जारी ‘ईज आफ लिविंग’ की जिस सूची में ग्वालियर 34वें नंबर पर है उसी ग्वालियर के पास 1895 में ये रेल थी, जो कल तक जनता की सेवा कर रही थी। कोई 126 साल पुरानी ये रेल सेवा इसीलिए विरासत की श्रेणी में आती है और इसे बर्बाद करने के बजाय इसे संरक्षित करने की जरूरत है ताकि आने वाली पीढ़ी समझ सके कि विरासत का मतलब क्या होता है। ग्वालियर के स्वप्‍नदृष्टा शासक रहे माधवराव सिंधिया द्वितीय ने यह रेल जयविलास पैलेस से शिवपुरी तक अपनी निजी यात्रा के लिए तैयार की थी, बाद में इसे जनता के लिए समर्पित कर दिया गया था। अभिलेख बताते हैं कि भारत पर दो सौ साल शासन करने वाले इंग्लैंड के राजा जार्ज प्रथम और रानी भी 1904 और 1911 में इस रेल से यात्रा का आनंद उठा चुके हैं। ये रेल अब अतीत का हिस्सा बनती जा रही है।

ग्वालियर के शासकों ने ग्वालियर से शिवपुरी और श्योपुर तक और ग्वालियर से भिंड तक रेल लाइन बिछवाई थी। इसमें से ग्वालियर से शिवपुरी और भिंड लाइन अब ब्राडगेज लाइन में बदली जा चुकी है लेकिन श्योपुर लाइन पिछले साल तक जनसेवा में लगी हुई थी। रियासतकाल में ये रेल तब तक कोयले से चलाई गयी जब तक कि आजाद भारत में भारतीय रेल ने इसे गोद नहीं ले लिए। बाद में ये ट्रेन डीजल इंजिन से चलाई गयी तो इसे डीआरसी कहा जाने लगा। देश के सबसे छोटे गेज की ये रेल 1950 तक रियासत की सम्पत्ति थी।

दुनिया के सबसे लम्बे नैरोगेज वाली ये रेल विरासत के साथ ही वनांचल के करीब 250 गांवों की जीवनरेखा रही है। करीब 28 स्टेशनों पर रुकने वाली इस रेल की रफ्तार 35 किमी रहती है। इस रेल को ब्रॉडगेज में बदले जाने के कथित प्रयासों का ज्योतिरादित्य सिंधिया ने विरोध किया तो समर्थन में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रभात झा ने इसी रेल में बैठकर राजनीति की। दोनों नेताओं के खिलाफ रेल का राजनीतिक इस्तेमाल करने को लेकर आरपीएफ ने मुकदमा दर्ज किया, लेकिन सजा किसी को नहीं हुई, क्योंकि सब आरोपी रसूखदार रहे। सियासत के बावजूद ये रेल बंद होने से बचाई नहीं जा सकी।

ग्वालियर की ये रेल आज के मेट्रो रेल की माँ कही जा सकती है। ग्वालियर में महल से उपनगर मुरार और गोला का मंदिर तक जाने वाली ये रेल शहरी लोगों की मेट्रो रेल ही थी। इसका उपयोग मुरार सैन्य छावनी में माल ढोने के लिए भी किया जाता था। आज इस मेट्रो रेल के अधिकांश स्टेशन अतिक्रमण की चपेट में हैं। लेकिन भारतीय रेल और महाराज इस सम्पत्ति को बचा नहीं सके।

इस रेल में रोजाना कोई पांच हजार यात्री सफर करते थे, मैंने भी इस रेल से यात्रा का आनंद लिया है और दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि हमारे पास विरासतों को सवांरने का शऊर होता तो आज यही रेल भारतीय रेल को पर्यटन के जरिये ही बहुत कुछ कमाकर देती। इस रेल से वनांचल के जो दृश्य नजरों के सामने से गुजरते थे वे ‘डिस्कवरी चैनल’ पर दिखाए जाने वाले दृश्यों से कम नहीं थे। बीच-बीच में भारतीय रेलवे बोर्ड के कुछ समझदार अफसरों ने इस विरासत को बचाने का प्रयास भी किया लेकिन कामयाब नहीं हुए। शहर के बीच से गुजरने वाले ट्रैक के चारों ओर की गंदगी इसमें सबसे बड़ी बाधा साबित हुई।

पिछले एक साल से बंद पड़ी इस विरासत महत्व की रेल की कुल जमा सम्पत्ति आज भी सौ करोड़ से ज्यादा की है जबकि इसकी तमाम चल-अचल सम्पत्ति को रसूखदार लोग हड़प चुके हैं। आज भी अनेक रसूखदारों के घर, होटल, इस रेल की सम्पत्ति पर बने हुए हैं। ग्वालियर की इस विरासत को रेल मंत्री रहते हुए स्वर्गीय माधवराव सिंधिया ने भी बचाने की कोशिश की थी। उनका भी इस रेल से भावनात्मक लगाव था क्योंकि ये रेल उनके पितामह ने शुरू कराई थी। आज भी इस रेल को ब्रॅाडगेज में बदलने के लिए 1200 करोड़ का प्रस्ताव बनाकर रख लिया गया है, लेकिन ‘हाथ न मुठी, खुरखुरा उठी’ वाली बात है।

मुझे संतोष है कि राज्य सभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर की इस विरासत को बचाने के लिए रेल मंत्री से खतो-किताबत शुरू की है, लेकिन बाक़ी सब मौन हैं। जरूरत इस बात की है कि शहर में बात-बात पर नेतागीरी करने वाले लोग इस रेल को बचाने के लिए अभी सामने नहीं आये हैं। बहुत जरूरी है कि पूरा शहर इस विरासत के महत्व को समझे और इसे बचाने के लिए सिंधिया के साथ खड़ा हो। जनयाचिकाएं तैयार करे, स्थानीय जन प्रतिनिधि राज्य सरकार के जरिये इस विरासत को बचाने के लिए विधानसभा से प्रस्ताव पारित करायें, आंदोलन करें। अन्यथा एक दिन ये विरासत बचेगी नहीं।

ग्वालियर वाले भूल जाते हैं कि उनसे उनकी पहचान योजनाबद्ध तरीके से छीनी जा रही है। अभी हाल में ही प्रदेश का सबसे पुराना छापाखाना बंद करने का फैसला सरकार ने कर लिया है। विक्टोरिया मार्किट और टाउनहॉल का इस्तेमाल एक दशक बाद आज भी शुरू नहीं हो सका। बेहतर हो कि सरकार शहरों की पहचानें मिटाने के बजाय उन्हें संग्राहलयों में तब्दील कर दे। अतीत को काठ-कबाड़ में बेचकर राज्य का खजाना नहीं भरा सकता। ग्वालियर का छापाखाना भवन संग्रहालय के लिए बेहतरीन स्थल है। ऐसा छापाखाना यदि इंग्लैंड या अमेरिका में होता तो उसे लोग जान से भी ज्यादा प्यार करते, लेकिन हम तो शहरों का नाम बदलने से ज्यादा कुछ चाहते ही नहीं है।

आपको याद दिला दूँ कि इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व ग्वालियर की पहचान तानसेन समारोह को तानसेन की समाधि से हटाने का कुत्सित प्रयास किया गया था, तब मैंने खुद इसके खिलाफ भूखहड़ताल की थी और जब पूरा शहर इसके खिलाफ खड़ा हुआ तो सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा था। आज जरूरत ग्वालियर दुर्ग के चारों ओर की बसाहटों को हटाकर वहां एक रिंग रोड बनाये जाने की है जो केवल पर्यटकों के लिए हो तो इस किले से भी सरकार आमेर के किले की तरह कमाई कर सकती है, लेकिन सवाल नीयत का है।

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