मौसम का मिजाज बेवफा प्रेमिका व आज की राजनीति के कुछ शीर्षस्थ महापुरुषों की प्रतिबद्धता की तरह अचानक बदल गया है। सूरज कल तक गली के गुंडे की तरह अपनी प्रचंडता का रौब गाँठता हुआ मानो घर घर चौथ वसूल रहा था। शायद यही देख प्रकृति के चितेरे स्व. रामविलास शर्मा ने कहा था-
‘सूरज यों निकला पहाड़ से
गुंडा ज्यों छूटा तिहाड़ से…’
किंतु अब वही सूरज आसमानी संसद में ‘बादल पार्टी’ के आगे विश्वास का मत प्राप्त करने में असफल होकर भीगी बिल्ली-सा दुम दबाए बैठा है। ‘गरम दल’ का पतन हो गया है और ‘नरम दल’ ने सरकार बना ली है। यदि दिल्ली जैसी कोई अनहोनी न हुई तो यह सरकार आठ-नौ माह तो चलेगी ही।
सूरज नाम है अनुशासन का। हर बात में सख्ती, हर कहीं कानून-कायदा। यही अनुशासन ग्रीष्म के दो महीनों में साधारण अनुशासन न रहकर सन् ’75 की ‘इमरजेंसी’ के डंडे वाले अनुशासन में बदल जाता है। किसकी मजाल जो सूर्यदेव जी के निजाम में नंगे सिर प्रवेश कर सके। किसकी मजाल जो उस महाप्रतापी से आँख भी मिला सके। अभी मई माह में एक सामाजिक दायित्व के निर्वाहवश सारा दिन धूप में घूमता रहा। हर पल यही कामना करता रहा कि काश, कुछ पल के लिए पवनपुत्र हनुमान इस आर्यावर्त पर उतर आएँ और एक बार फिर चंद पल के लिए ही सही, रवि का भक्षण कर लें…। बहरहाल नंगे सिर घूमकर सूर्यदेव के राज का जो अनुशासन मैंने तोड़ा, मुझे उसकी जबर्दस्त सजा मिली। तीन दिन अस्पताल में ‘बंद’ रहना पड़ा, खाकी वर्दी की बजाय सफ़ेद वर्दी वालों के बीच। खाकी वर्दी वाले शायद डंडे से मेरी ‘लू’ उतारते, यहाँ मेरी ‘लू’ के लिए मोटी मोटी सुइयाँ थीं। वहाँ शायद कलाई पर लौह कंगन पहनाए जाते, यहाँ ग्लूकोज-सेलाइन के ‘नाजुक’ बंधन थे। वहाँ बंधन में बाँधने वाले मेरी वंशावली का मनचाहा बखान करते, यहाँ बंधन बाँधनेवालों (और वालियों) ने मुझसे सिर्फ यह पूछकर कि ‘क्या खाया था, क्या पिया था’ और ‘छूटते’ वक्त ‘क्या खाना-पीना’ है बोलकर ही संतोष कर लिया था। फ्लोरेंस नाइटिंगेल की शिष्याओं ने इतनी बार मेरा चर्म-भेदन कर डाला कि उसकी मीठी चुभन अभी भी बाकी है। नर्सिंग-होम का व दवाइयों का हर वक्त भुगतान करते यूँ लगा मानो सूर्यदेव के एकसूत्री ‘लू लगाओ कार्यक्रम’ के समर्थन में हस्ताक्षर करके ‘मीसा’ के तहत छूटकर आ रहा हूँ। परीक्षा में कम नंबर लाने वाले बच्चे को बार बार ताने मारने वाले बाप सा जुल्म ढा रहा था सूरज। लिहाजा जिस तरह बाप के तानों से तंग आकर कुछ बच्चे घर छोड़कर भाग जाते हैं और कुछेक दुनिया छोड़ देने की नादानी कर बैठते हैं, उसी तरह कुछ नवधनाढ्य सूरज के गरम मिजाज से तंग आकर हिल स्टेशनों की ओर पलायन कर गए थे और यूपी, आंध्र और तेलंगाना में कुछ लोग परलोक गमन कर गए थे। धरती माँ को अपने लालों पर अंततः दया आना ही थी, सो बादलों की गड़गड़ाहट के माध्यम से उसने मुनादी करवा ही दी…”मेरे जिगर के टुकड़ों…मेरे लालों… तुम्हारे पिता का क्रोध शांत हो गया है। तुम जहाँ भी हो चले आओ…कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। रो-रोकर मेरी हालत खराब हो गई है…तुम्हें सताने वाली दुष्ट बहिन रोहिणी अपने ससुराल चली गई है… तुम्हारे छोटे मामा आषाढ़, बड़े मामा सावन व नानाजी भादौ तुम्हारे स्वागत के लिए तैयार खड़े हैं…।‘’
हाँ तो अब जबकि पहली फुहारें गिर चुकी हैं और गर्मी की त्राहि-त्राहि से राहत मिल चुकी है तो ऐसा लग रहा है जैसे समस्त आतंकवादियों ने एकतरफा संघर्ष विराम लागू कर दिया हो। अँगरेजी साहित्य के रोमांटिक युग के प्रसिद्ध कवि जॉन कीट्स को एक अँधेरी रात में बुलबुल की तान सुनकर इतनी अलौकिक खुशी हुई थी कि उन्हें लगने लगा था कि मृत्यु के लिए इससे अच्छा समय और नहीं हो सकता। कुछ ऐसी ही खुशी वर्षा के आगमन पर इन कीट पतंगों को हो रही है। वे खुश-खुश और इतने खुश हैं कि हाराकिरी करने पर तुले हुए हैं। आकाश अक्सर स्याह बादलों से भर उठता है। कभी किसी श्वेत-श्याम फिल्म सा दृश्य उपस्थित हो जाता है, तो कभी बादल रुई के ढेर से इधर से उधर खानाबदोशों की तरह ठौर-ठिकाना बदलते नजर आते हैं। कभी स्याह रंग बढ़ जाता है और नागिनों की तरह बिजलियाँ चमकने लगती हैं, तो लगता है मानो शूर्पणखा, रामानुज लक्ष्मण द्वारा नाक काट लिए जाने पर क्रोधित हो विलाप कर रही हो। कभी लगता है कि यह धरा स्वयं माता यशोदा है और बादल उनके पुत्र नंदकिशोर हैं जिन्हें वे पवन का झूला झुला रही हैं। अब जबकि चिट्ठी-पत्रियाँ बीते युग की बात हो गई हैं, मोबाइल में कभी नेटवर्क तो कभी ‘लो बैटरी’ का खतरा हो, इंटरनेट में हैकिंग का खतरा हो तो ऐसे में क्यों न हम ‘उन’ तक अपना संदेश भेजने के लिए विरही यक्ष की तरह इन आवारा बादलों को ही काम पर लगाएँ। लेकिन ई-मेल और इंटरनेट चैटिंग के युग में आजकल के प्रेमियों में इतना धैर्य कहाँ कि वे बादल को यक्ष की तरह अपनी व्यथा समझाते फिरें। फिर भी मेरा विश्वास है कि, समय, काल और देह की सीमा से परे शाश्वत प्रेम करने वाला कोई प्रेमी अपने अलौकिक प्रेम के इज़हार के लिए एक बार फिर मेघों को अपना दूत बना सकता है।
कई पेड़-पौधे वर्षा ऋतु में अपने वसन ‘मिनी’ से ‘मिडी और ‘मैक्सी’ में परिवर्तित कर देते हैं। मगर मुझे सबसे अधिक सुहाता है कदंब। सावन-भादौ में कदंब के पेड़ पर लगे छोटे-छोटे मोतीचूर के लड्डू जैसे हल्के पीत-श्वेत वर्ण के फूल एक बड़ी निर्मल-सी खुशबू बिखेर देते हैं। कदंब के बारे में कहा जाता है कि यह ऐसा मस्तमौला अवधूत वृक्ष संत है, जो देता ही देता है, लेता कुछ नहीं। कीचड़ और फिसलन भरी जमीन इसके प्रिय ‘हेबिटेट’ (वास स्थान) हैं। इसे कृत्रिम उद्यानों में नहीं पनपाया जा सकता। निश्चित ही कदंब प्रकृति के अधिक निकट है और शायद इसी कारण इसके दो पर्याय ‘हरिप्रिय’ (कृष्ण को प्रिय) और ‘हलिप्रिय’ (बलदाऊ को प्रिय) भी पड़ गए हैं। किंतु शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि इस अवधूत का जीवन अब चिट्ठी-पत्रों की तरह संकट में है और लालची मनुष्य जो कि ‘नीड’ (Need) की सीमा पाए कर ‘ग्रीड’ (लालच) तक पहुँच चुका है, की नजर इस पर भी पड़ गई है। दरअसल इसे सुखाकर इसका केमिकल ट्रीटमेंट कर लिया जाता है, जिससे यह बिल्कुल चंदन का आभास देता है। फिर इसकी मूर्तियाँ बनाकर सैकड़ों गुना महँगे दाम पर चंदन के नाम से बेची जाती हैं।
हरीतिमा तो खैर वर्षा की पहचान है ही, कीचड़ और मेंढक भी मानो इन्हीं दिनों के लिए बने हैं। सारे मेंढक मानो गर्मी के ताप से झुलस गए थे और इंतजार ही कर रहे थे कि कब पहली फुहार गिरे और कब वे अपनी अगन मिटाएँ। गड्ढों से बाहर आकर मेंढक यूँ टर्राने लगते हैं, मानो खोया बछड़ा मिल जाने पर गाय रँभाने लगती है। वर्षा जल से आल्हादित हो मेंढक एक दूजे पर यूँ लंबी लंबी छलांगे भरकर उछलने लगते हैं जैसे पिता के काम से लौटने पर नन्हा बालक उनकी ओर भागता है। कभी ‘ग्रीष्म निद्रा’ तो कभी ‘शीत निद्रा’ के नाम पर साल भर से सोए पड़े मेंढक वातावरण को लोकसभा के शून्यकाल सा बनाने पर तुले हुए हैं। जब से जीवविज्ञान की प्रयोगशालाओं में इनके कटने पर पाबंदी लग गई है तब से इनका टर्राना जरा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। उछल कर सुविधाजनक स्थान पर बैठने की इनकी विशिष्टता को जब से राजधानी वालों ने अपना लिया है तब से बेचारे थोड़े परेशान जरूर रहने लगे हैं।
मंत्री जी खुश हैं क्योंकि हेलिकॉप्टर से बाढ़ का नजारा देखने कहीं न कहीं तो जाना ही पड़ेगा। सोच रहे हैं कि इस बार किसी नई जगह बाढ़ आना चाहिए ताकि कुछ ‘चेंज’ हो जाए। मुन्नू की अम्मा, मुन्नू और उसके पाँचों भाई-बहिन जिद कर रहे हैं कि इस बार हम भी चलेंगे हेलिकॉप्टर में घूमने। देखें, किसका नंबर लगता है। प्रतिपक्ष खुश है कि सरकार की टाँग खिंचाई का एक और मौका मिलेगा, “फलां जगह बाढ़ आई, सरकार ने कुछ कदम नहीं उठाए…फलां जगह सूखा पड़ा, सरकार के कदम वहाँ भी (बक़ौल शरद जोशी) जरूरत से ज्यादा ठोस हो गए इसलिए नहीं उठ पाए…!” सरकार से इस ‘भारी असफलता’ को लेकर इस्तीफा माँगा जा सकता है और यह भी हो सकता है कि इस मुद्दे का लागत लाभ का गणित अनुकूल पा कोई ‘जूझारू’ नेता धरना, प्रदर्शन या बाढ़ पीड़ित के घर ‘एक रात गुजारने’ जैसा कोई क्रांतिकारी कदम उठा ले। और कुछ हो न हो ‘वाक ऑउट’ से तो कोई नहीं रोक सकेगा।
किसान खुश हैं। ईश्वर ने लगता है निदा फाजली की इन पंक्तियों पर दाद दे दी है- “गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला/ चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड-धानी दे मौला।‘’ मेरे घर के आसपास आषाढ़ और सावन के महीनों में बिलकुल प्राकृतिक झील बन जाती है। हर वर्ष मेंढकों के टर्राने का शोर एक किस्म की मादकता भर देता है। कुछ मेंढक तो ऐसे टर्राने लगते हैं गोया उन्हें भी बिना बहुमत के सरकार बनाने का मौका मिल गया हो। पास के स्कूल के बच्चे घर को लौटते हुए मेरे घर के आसपास बनी झील में पत्थर फेंक रहे हैं और कॉपियों के पन्ने फाड़-फाड़कर नाव तैरा रहे हैं। नाव जब तक सूखी है, तैरती है, भीगते ही डूब जाती है और अनजाने में एक संदेश छोड़ जाती है कि जहाँ तक हो सके अन्तःकरण को कागज की नाव की तरह सूखा यानी शुद्ध रखें वर्ना पाप की आर्द्रता जहाँ लगी कि नाव का डूबना तय है।
( श्री ओम वर्मा हिन्दी के सुपरिचित लेखक और कवि हैं। उनके व्यंग्य, दोहे, गजल एवं सामयिक विषयों पर आलेख धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट, सहित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। उनका एक व्यंग्य संकलन व एक दोहा संकलन प्रकाशनाधीन है।)