गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश में होने जा रहे पंचायत और नगरीय निकायों के चुनाव में राजनीतिक घमासान के बीच बच्चों ने भी अपने हक की मांग उठाई है। शहरों की सरकारों यानी नगर पालिका और नगर निगम जैसी संस्थाओं के लिए चुनकर आने वाले नेताओं से बच्चे अपने लिए भी बेहतर जीवन की गारंटी मांग रहे हैं। बच्चे अपनी मांगों का एक एजेंडा लेकर इन दिनों भावी पंचों-सरपंचों से लेकर पार्षदों और महापौरों से मिल रहे हैं और उनसे अपील कर रहे हैं कि राजनीतिक आपाधापी और उठापटक में राजनेता उनके हितों और उनके भविष्य का भी ध्यान रखें।
पिछले कई सालों से यह मुद्दा चुनावों के दौरान उठता रहा है कि इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में तमाम बातों का जिक्र करते हैं, लेकिन बच्चों को वे हमेशा भूल जाते हैं। माना कि बच्चे मतदाता नहीं होते लेकिन वे भी देश के नागरिक हैं और यदि नेताओं के भाषणों को ही ले लिया जाए तो उन भाषणों के अनुसार तो वे देश का भविष्य हैं। पर अकसर देखने में आता है कि यह देश का ऐसा भविष्य है जिसकी राजनीति के वर्तमान को बिलकुल चिंता नहीं।
इसीलिए बच्चों ने खुद अपनी आवाज उठाने का फैसला किया है। इस काम में मध्यप्रदेश की संस्था चाइल्ड राइट्स ऑब्जर्वेटरी और यूनीसेफ जैसे संगठन उनकी मदद कर रहे हैं।
चाइल्ड राइट्स आब्जर्वेटरी की अध्यक्ष और राज्य की पूर्व मुख्य सचिव श्रीमती निर्मला बुच ने विभिन्न राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों को पत्र भेज कर आग्रह किया है कि वे बाल अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर केन्द्रित इस एजेण्डा को अपने पार्टी के घोषणा पत्र में शामिल करें और इसे चुनावों के दौरान प्रचारित भी करें। इस एजेंडा में बच्चों के लिए बजट, हिंसा की समाप्ति, शिक्षा-विशेषकर कोविड काल के दौरान सीखने में हुए नुक्सान की भरपाई, पानी और स्वच्छता, पोषण, स्वास्थ्य और टीकाकरण से जुड़े 24 बिन्दुओं को शामिल किया गया है। एजेण्डा में कहा गया है कि सभी नगरपालिकाएं और पंचायतें अपने बजट का कम से कम 30 प्रतिशत हिस्सा बच्चों और महिलाओं के लिए जरूरी सामाजिक अधोसंरचना कायम करने के लिए आवंटित करें। बच्चे यह भी मांग कर रहे हैं कि सभी नगरपालिकाएँ और पंचायतें बच्चों के अधिकारों की स्थिति (बाल विवाह, बाल उत्पीडन, बाल श्रम, बच्चों की तस्करी, शाला त्यागी बच्चे जैसे मुद्दे) को नगरीय निकाय समितियों और ग्राम सभा की बैठकों के एजेण्डा में रखें।
देखने में आ रहा है कि एक तरफ तो तेजी से हो रहे शहरीकरण के चलते बड़ी संख्या में लोगों का गांव से शहरों की ओर पलायन हो रहा है दूसरी ओर शहरों में आबादी व संसाधनों के बीच पर्याप्त संतुलन न होने के कारण मनुष्य की बुनियादी जरूरतों की व्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। ऐसे में जब बड़ों को भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तो बच्चों की तरफ ध्यान देने की बात तो कोई सोच ही नहीं रहा। बच्चे बाजार और रोजगार की अंधी दौड़ पर केंद्रित होती जा रही नगरीय व्यवस्था और असंतुलित नगर नियोजन की विसंगतियों के बीच पिसते जा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि यह समस्या केवल भारत या भारतीय गांवों अथवा शहरी क्षेत्रों की है। दरअसल पूरी दुनिया के बच्चे आज इस तरह के संकट से जूझ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डेवलपमेंट गोल में बच्चों के लिए जिन मुद्दों को प्रमुखता से शामिल गया है उनमें अत्यधिक गरीबी और भूख से निजात दिलाना, वैश्विक स्तर पर प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करना, लैंगिक समानता, बाल मृत्यु दर को कम करना, मातृ स्वास्थ्य को मजबूत करना, एचआईवी/एड्स और मलेरिया जैसी बीमारियों से प्रभावी रूप से लड़ना, स्वच्छ पर्यावरण का स्थायित्व सुनिश्चत करना और विकास के लिए वैश्विक सहयोग जैसे मुद्दे हैं। इसी तरह टिकाऊ विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) में भी बच्चों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा और देखभाल, गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, साफ पानी और सेनिटेशन की व्यवस्था, स्वच्छ ऊर्जा, असमानता की समाप्ति के साथ-साथ जल, थल और आकाश के पर्यावरण की देखभाल जैसे मुद्दे हैं।
लेकिन व्यावहारिक धरातल पर देखें तो पंचायत से लेकर संसद के चुनाव तक में उम्मीदवारों की प्राथमिकता में ये मुद्दे कहीं नजर नहीं आते। योजनाएं बनती भी हैं तो वे भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की भेंट चढ़ जाती हैं। मध्यप्रदेश की ही बात करें तो नगरीय विकास और नियोजन के लिए यहां के सात शहर स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल हैं। ये शहर हैं इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, सागर, सतना और उज्जैन। इन सातों की तो छोडि़ये, प्रदेश के महानगर समझे जाने वाले शहरों जैसे इंदौर, भोपाल, ग्वालियर और जबलपुर में ही बच्चों से जुड़ी बुनियादी बातों के लक्ष्य पूरे नहीं हो सके हैं। उदाहरण के लिए नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-5) की रिपोर्ट कहती है कि 6 माह से 59 माह आयु वर्ग, यानी पांच साल से कम उम्र के बच्चों में भोपाल में 68.5 प्रतिशत बच्चे, ग्वालियर में 78.4 प्रतिशत, इंदौर में 78.8 प्रतिशत और जबलपुर में 37.8 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं।
इसी तरह पांच साल से कम के आयु वर्ग में भोपाल में 29.1 प्रतिशत, ग्वालियर में 33 प्रतिशत, इंदौर में 24.9 प्रतिशत और जबलपुर में 31.3 प्रतिशत बच्चे बहुत कम वजन के हैं। इसके अलावा भोपाल में 24.9 प्रतिशत, ग्वालियर में 14.8 प्रतिशत, इंदौर में 27.5 प्रतिशत और जबलपुर में 36.4 प्रतिशत बच्चे कृशकाय यानी बहुत दुबले हैं। ये सारे लक्षण बच्चों में कुपोषण के संकेत देते हैं। इसी तरह शत प्रतिशत टीकाकरण के लक्ष्य से भी प्रदेश के कई प्रमुख शहर आज भी दूर हैं।
इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के एजेंडा में मांग की गई है कि सभी स्थानीय स्वशासन संस्थाएं कुपोषण मुक्त समुदाय के लिए काम करें और इसके लिए औपचारिक, अनौपचारिक समितियों और समूहों को गतिशील कर सामुदायिक भागीदारी को बढ़ायें। यह संस्थाएँ स्वास्थ्य केन्द्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य की देखरेख और बेहतर सेवाओं की समुदाय तक पहुँच सुनिश्चित करें। इसके साथ ही जरूरी मानव संसाधन जैसे डाक्टर, नर्स और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की जरूरत पूरी करवाएं।
शिक्षा का क्षेत्र लें तो आज भी कई जिलों के सरकारी स्कूलों में पीने के पानी, बिजली, शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों की दरकार है। कई भवन जर्जर हैं तो अनेक में बच्चों के ठीक से बैठने की व्यवस्था तक नहीं है। और जब ये जरूरी सुविधाएं ही बच्चों को नही मिल पा रहीं तो आधुनिक युग की आवश्यक मानी जाने वाली इंटरनेट जैसी सुविधा की बात तो सोचना ही बेमानी है।
शहरी क्षेत्रों में एक बड़ा मामला बच्चों को आपराधिक गतिविधियों में धकेला जाना या उनका नशे का शिकार होना भी है। इसके लिए शहरों में बच्चों के लिए सुधार गृह तक नहीं हैं। चाहे कितना भी बड़ा शहर ले लें वहां के चौराहों पर भीख मांगते हुए बच्चों का दिखना सामान्य बात है। एक बहुत बड़ा मामला बच्चों को अपराध या यौन हिंसा के कारोबार में धकेलने का है। गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) की रिपोर्ट कहती है कि 2021 में मध्यप्रदेश में हर दिन औसतन 29 बच्चे लापता हुए। क्राई की ‘स्टेटस रिपोर्ट ऑन मिसिंग चिल्ड्रन’ में कहा गया है कि 2021 में मध्य प्रदेश में लापता लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में पांच गुना अधिक है। प्रतिदिन प्रदेश से औसतन 24 लड़कियां और पांच लड़के लापता हुए। 2021 में मध्य प्रदेश में बच्चों के गुम होने के 10,648 मामले दर्ज किए गए हैं। आरटीआई के जरिये जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि लापता बच्चों के मामले में मध्यप्रदेश के पांच जिले इंदौर, भोपाल, धार, जबलपुर और रीवा शीर्ष पर हैं।
ये वो सारे विषय हैं जिनके बारे में किसी भी चुनाव में कोई चर्चा या बहस नहीं होती। पंचायतों और नगरीय निकायों को स्थानीय सरकार भी कहा जाता है। इस बार बच्चे अपनी समस्याओं और मांगों को लेकर इन स्थानीय सरकारों का गठन करने वालों के पास पहुंचे हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि धनबल और बाहुबल के साथ-साथ जातीय जोड़-तोड़ के गणित में उलझे राजनेता बच्चों की इस आवाज को भी सुनेंगे।
(मध्यमत)
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