बच्‍चे विकास की परिभाषा में आते हैं या नहीं?

यह कहना तो सरासर नाइंसाफी होगी कि पिछले दस सालों में मध्‍यप्रदेश ने कोई तरक्‍की नहीं की है। कई मोर्चे ऐसे हैं जहां मध्‍यप्रदेश ने खुद को आगे बढ़ाया है। लोग कहने लगे हैं कि दशकों से इस प्रदेश के माथे पर चिपका बीमारू का टैग भी हट गया है। कई मामलों में मध्‍यप्रदेश ने मिसाल कायम की है। कुछ अति उत्‍साही इसे ‘विकास प्रदेश भी कह देते हैं।

लेकिन तरक्‍की की इस इबारत का दूसरा पहलू भी है। आप कह सकते हैं कि विकास दोनों तरह से हुआ है। सकारात्‍मक भी और नकारात्‍मक भी। और ये जो नकारात्‍मक है उसकी भी अनेक दिशाएं और कई आयाम हैं। लेकिन आज बात उनकी जिन्‍हें हमारे नेता देश का भविष्‍य कहते हुए नहीं थकते। जो नौनिहाल देश की बुनियाद और देश का सपना कहे जाते हैं, मध्‍यप्रदेश में उनकी दशा ठीक नहीं है। मध्‍यप्रदेश भले ही बीमारू के टैग से बाहर आ गया है लेकिन इस प्रदेश के बच्‍चे अपने जीवन पर मंडरा रहे खतरे से बाहर नहीं आ पाए हैं।

राष्‍ट्रीय सेम्‍पल सर्वे 2014 के जो आंकड़े 13 सितंबर को जारी हुए हैं वे मध्‍यप्रदेश की दुर्दशा और यहां की भयावह तसवीर को उजागर करने वाले हैं। आज भी राज्‍य में जन्‍म लेने वाले एक हजार बच्‍चों में से 52 बच्‍चे जिंदा नहीं बच पाते। यह आंकड़ा तब और चिंताजनक हो जाता है जब हम यह देखते हैं कि शिशु मृत्‍यु दर का राष्‍ट्रीय औसत 26 ही है। यानी हम बच्‍चों की मौत के मामले में राष्‍ट्रीय औसत से दुगुने हैं। और इसी कारण हमें एसआरएस 2014 की सूची में शिशु मृत्‍यु दर के मामले में एक बार फिर अव्‍वल रहने का गौरव प्राप्‍त हुआ है।

अपने बचाव के लिए कहा जा रहा है कि मध्‍यप्रदेश में शिशु मृत्‍यु दर में 2013 के एसआरएस की तुलना में दो अंकों की कमी आई है। 2013 में प्रति हजार मौतों की संख्‍या 54 थी जो इस बार घटकर 52 हो गई है। लेकिन यह केवल मन समझाने की बात है। बच्‍चों की मौत पर यदि हम इन धीमी गति के समाचारों से संतुष्‍ट हैं तो, लानत है ऐसी व्‍यवस्‍था और ऐसी संतुष्टि पर।

यहां एक ही उदाहरण देना पर्याप्‍त होगा। 1999 में अविभाजित मध्‍यप्रदेश में शिशु मृत्‍यु दर 90 और 2000 में 87 थी। 2000 में छत्‍तीसगढ़ मध्‍यप्रदेश से अलग हो गया। उसके बाद के 14 सालों में छत्‍तीसगढ़ इस मामले में अभूतपूर्व कमी लाने में कामयाब रहा है और ताजा एसआरएस आंकड़ों के अनुसार वहां शिशु मृत्‍यु दर 43 है। यानी हमारी तुलना में छत्‍तीसगढ़ ने अपने आंकड़ों में नौ अंकों का सुधार किया है। तो और कहीं से न सही, लेकिन हम अपना ही हिस्‍सा रहे इस पड़ोसी राज्‍य से ही कुछ प्रेरणा ले लें।

दरअसल हमने पिछले दस सालों में विकास भले ही किया हो लेकिन स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्रों में हमारी जो दुर्दशा हुई है वह अभूतपूर्व है। स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र में तो हालत यह है कि प्रदेश में जितनी संख्‍या में डॉक्‍टरों की जरूरत है, उसके आधे भी डॉक्‍टर हमारे पास नहीं हैं। सरकार इस दिशा में नित नए प्रयोग कर रही है, लेकिन हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। यहां तक कि स्‍वास्‍थ्‍य सेवा के सवालों से पिंड छुड़ाने के लिए सरकारी अस्‍पतालों को निजी क्षेत्र को सौंपे जाने जैसा घातक कदम भी उठाया जा चुका है, लेकिन हालात जस के तस हैं।

मूल मुद्दा है कि विकास का मतलब आखिर क्‍या? पिछले माह भोपाल के ही एक चर्चित गैर सरकारी संगठनविकास संवाद ने कान्‍हा में राष्‍ट्रीय मीडिया संवाद का आयोजन किया था। उसका विषय था ‘’आजाद भारत में विकास’’। मुझे भी उसमें भाग लेने का अवसर मिला। मेरा कहना था कि मेरे हिसाब से विकास का पहला अर्थ है बुनियादी सेवाओं की गुणवत्‍तापूर्ण उपलब्‍धता। यदि अस्‍पताल हैं और इलाज नहीं तो उस स्‍वास्‍थ्‍य सेवा का कोई अर्थ नहीं, स्‍कूल हैं और शिक्षा नहीं, तो ऐसी शिक्षा व्‍यवस्‍था को क्‍या चाटें?  सड़क हो लेकिन वह पैदल चलने लायक भी न हो और बिजली के खंभे लग जाएं पर बिजली न हो तो ऐसा विकास किस काम का? और क्‍या ऐसी स्थिति को विकास कहा भी जा सकता है? प्रदेश में आज भी सड़क या अस्‍पताल परिसर में प्रसव होने की खबरें आम हैं, समय पर सुविधाएं न मिलने से गर्भवती महिलाओं और नवजात की मौतों की खबरें आती रहती हैं। हाल ही में श्‍योपुर में कुपोषित बच्‍चों की मौतों ने, कुपोषण के मामले को फिर सुर्खियों में ला दिया है। यानी बच्‍चों पर चौतरफा मार पड़ रही है।

मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि पिछले तीन सालों में स्‍वास्‍थ्‍य विभाग को 13 हजार 715 करोड़ और महिला एवं बाल विकास विभाग को 13 हजार 645 करोड़ रुपए का बजट दिया गया। लेकिन इसके बावजूद यदि शिशु मृत्‍यु दर में पिछले कुछ सालों में इक्‍का दुक्‍का अंकों की ही कमी आ रही है तो यह साफ संकेत है कि बजट का पैसा लोगों की सेहत पर लगने के बजाय भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ रहा है। रही बात बच्‍चों की, तो न तो वे राजनीति के एजेंडा में है और न विकास के, वे तो सिर्फ और सिर्फ मौत के एजेंडा में हैं…।

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