राकेश दुबे
भारत सरकार ने संसद में यह जानकारी देते हुए हाथ खड़े कर दिए हैं कि देश भर में बच्चों के खिलाफ अपराध की धाराओं के तहत दर्ज पचास हजार से ज्यादा मामलों में बच्चों को न्याय का इंतजार है। किसी भी देश और समाज में अपराधों पर काबू पाने की कड़ी व्यवस्था के बावजूद अगर आपराधिक घटनाओं पर लगाम नहीं लग पाती, तो यह सरकार और तंत्र की नाकामी का ही सबूत कहा जाएगा।
जिस देश में बच्चों के खिलाफ न सिर्फ अपराध की घटनाएं लगातार जारी हों, और उनमें न्याय मिलने की दर भी काफी धीमी हो तो यह एक बेहद अफसोसनाक स्थिति है। इसे देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ ही कहा जा सकता है। सबको पता है कि हमारे देश में बच्चों के बहुस्तरीय उत्पीड़न और उनके यौन शोषण जैसे अपराधों की रोकथाम में जब पहले के बनाए गए कानूनी प्रावधान नाकाफी साबित हुए, तब पाक्सो यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम जैसी विशेष व्यवस्था की गई।
इसके विपरीत आज भी हालत यह है कि इस कानून के तहत परिभाषित अपराधों के शिकार बहुत सारे बच्चे और उनके परिजन इंसाफ के आस में महीनो से बैठे हैं। सवाल है कि बच्चों को जघन्य अपराधों से बचाने और न्याय दिलाने के लिए विशेष तंत्र गठित किए जाने के बावजूद ऐसे मामलों की सुनवाई या इस पर फैसला आने की रफ्तार इस कदर धीमी क्यों है? इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
संसद में देश की सरकार ने खुद यह स्वीकारा है कि देश भर में बच्चों के खिलाफ अपराध की धाराओं के तहत दर्ज “पचास हजार से ज्यादा मामलों में बच्चों को न्याय का इंतजार है।“ ये वे मामले हैं, जो एक साल के भीतर दर्ज किए गए हैं। जहां कम से कम दर्ज मामलों को ही निर्धारित या फिर जल्दी निपटाने और न्याय की व्यवस्था होनी चाहिए थी, वहीं अब केंद्र सरकार इससे संबंधित मुकदमों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए समय को तीन वर्ष और बढ़ाने की तैयारी कर रही है।
भारत सरकार के कानून मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल तक यौन अपराध के लंबित मामलों में उत्तर प्रदेश अव्वल है, जहां अकेले बाल यौन शोषण के 68 हजार 238 मामले विचाराधीन हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि केंद्र शासित प्रदेश और राज्यों के पास कुल लाख 98 हजार 208 मामले लंबित पड़े थे, जिनमें से सरकारी एजंसियों ने कुल 64 हजार 959 का निपटारा किया है।
और यह स्थिति तब है जब इस प्रकार के मुकदमों की सुनवाई और फैसले के लिए 768 त्वरित विशेष अदालतों का गठन किया गया है, जिनके तहत 418 विशिष्ट पाक्सो न्यायालय मौजूद हैं। यही नहीं, पाक्सो के तहत दर्ज मामले में त्वरित सुनवाई और सजा दिलाने के लिए दो महीने की समय सीमा भी तय की गई है। मगर व्यवस्था की हकीकत बहुत अलग है।
किसी से यह छिपा नहीं है कि यौन शोषण और इस प्रकृति के अन्य उत्पीड़न के लिहाज से बच्चे हर जगह और हर वक्त किस स्तर के जोखिम से गुजरते हैं। घर के बाहर से लेकर दहलीज के भीतर भी कई स्तरों पर उन्हें यौन उत्पीड़न और शोषण को झेलना पड़ता है। सामाजिक आग्रह और सोचने-समझने के सलीके उपेक्षा से भरे और अन्य दोषों के इतने शिकार हैं कि कई बार आरोपी व्यक्ति अपने ही परिवार या पड़ोसी होने की वजह से मामलों को दबा दिया जाता है।
यह सामाजिक अपराध है। इस धारणा के पुष्ट होने में कोई संदेह नहीं है कि एक ओर समाज में परंपरागत मानस और रूढ़ धारणाओं की वजह से तो दूसरी ओर सरकारी और न्यायिक तंत्र की जटिल व्यवस्था के चलते बच्चों को अपने खिलाफ होने वाले यौन अपराधों से उपजी जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे में यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शोषण के चक्र में पिसते और इंसाफ से वंचित बच्चों से जैसी पीढ़ी तैयार होगी, वह किसी भी समाज और देश के हित में नहीं होगी।(मध्यमत)
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