राकेश दुबे

मध्यप्रदेश में गुजरात की जीत की अजीबोगरीब प्रतिक्रिया हुई है। भाजपा के कार्यकर्ता बंटे से नज़र आ रहे हैं और कांग्रेस के कार्यकर्ता थोड़े और जोश में आ गये हैं। कांग्रेस में खम ठोकने की बात वाजिब है। लेकिन भाजपा में गुजरात फार्मूले ने उन लोगों को बैचैन कर दिया है जिनकी उम्र कुछ ज्यादा है। इस पंक्ति के नेताओं के ठीक पीछे खड़े वे कार्यकर्ता खुश है कि उनका नम्बर लग सकता है। वैसे भाजपा में आम कार्यकर्ता ग्वालियर में हुई किसी बैठक के नतीजों पर भी निगाह गड़ाए हुए हैं।

इसके विपरीत, भले ही कांग्रेस हिमाचल प्रदेश का चुनाव जीत चुकी है, लेकिन सत्ता में लंबी पारी खेलने के लिये उसे अभी और संघर्ष करना होगा। कांग्रेस के खेमे में इन सुझावों पर भी चर्चा हल पड़ी है, जैसे- विपक्ष को अपनी काम-काज की शैली में संरचनात्मक बदलाव करने की जरूरत है, इसके लिए उसे आम लोगों से जुड़ना होगा, जनता की नब्ज पहचाननी होगी। मध्यप्रदेश में होने वाले आगामी विधान सभा चुनाव के पूर्व गुजरात को समझना जरूरी है।

जैसे 2017 के चुनाव में भाजपा को गुजरात में केवल 99 सीटें ही मिली थी, जबकि कांग्रेस को 77 सीट मिली थी। इस प्रकार, बहुत कम सीटों के अंतर से भाजपा सरकार बनी थी, उसी समय से भाजपा अपनी सीटें बढ़ाने की रणनीति में जुट गयी थी। अपनी रणनीति के तहत उसने तात्कालिक सरकार के सभी मंत्रियों को बदलकर एक नयी सरकार का गठन किया। इससे पहले ऐसा कार्य किसी भी सरकार द्वारा नहीं किया गया था। प्रधानमत्री और गृहमंत्री द्वारा पिछले दो महीने से युद्धस्तर पर तैयारी की जा रही थी।

कारण नम्बर दो- गुजरात में समाज के हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देना। भाजपा ने हार्दिक पटेल जैसे कट्टर आलोचकों को भी अपने में समावेशित कर उन्हें भी प्रतिनिधित्व दिय। भाजपा समाज के हर समुदाय, वर्ग, जाति को साथ लेकर चली। मध्यप्रदेश में सभी को यह समझना होगा कि संगठन में शक्ति किसी एक-दो जाति के समीकरण या किसी व्यक्ति विशेष से नहीं आती, बल्कि यह विभिन्न समुदायों को समावेशित कर उन्हें नेतृत्व में भागीदारी देकर आती है।

राजनीति चौबीसों घंटे, सातों दिनों का खेल है। एक बार चुनाव में जीतकर या हारकर बाकी समय के लिये शीतनिद्रा में चले जाना मध्यप्रदेश में घातक साबित हो सकता है। पिछले चुनाव के बाद के घटनाक्रम ने यहाँ बहुत कुछ बदला है। भाजपा के कार्यकर्ता आत्ममुग्ध है, तो कांग्रेस वैराग्य की स्थिति में है। दोनों दलों के कार्यकर्ताओं को लोगों के बीच जाना होगा, बदलाव को सतत रूप से जारी रखना होगा।

आज मध्यप्रदेश में महंगाई, बेरोजगारी समेत अनेक बातों से लोग परेशान हैं, लेकिन सत्ता और विपक्ष में इन मुद्दों को मुद्दा बनाने की कोशिश ही नहीं की। सत्तारूढ़ दल कभी इन मुद्दों को जनता के बीच में नहीं लाता, यह विपक्ष का काम है जिससे जनता का विश्वास विपक्ष पर बनता है। हिमाचल में कांग्रेस की जीत की सबसे बड़ी वजह वहां के स्थानीय मुद्दों को जनता के बीच में लाना था। मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने इसे मुद्दा नहीं बनाया और अब बहुत देर हो गई है।

इन चुनावों में आम आदमी पार्टी एक कारक बनकर उभरी है। मध्यप्रदेश में भी वो दस्तक देगी। राजनीतिक गलियारों में यह बात हमेशा कही जाती है कि राजनीति के स्पेस में कभी कोई निर्वात नहीं होता। मध्यप्रदेश में उसकी कोशिश कांग्रेस द्वारा खाली की गयी जगह को भरने की है। गुजरात में कांग्रेस का गिरता वोट प्रतिशत और आप की बढ़त इस बात को प्रमाणित करती है। अभी से अंदाज लग रहा है कि मध्यप्रदेश में कोई और चुनौती भी भाजपा को झेलना होगी।

मुख्य चर्चा का विषय आज भाजपा का गुजरात फार्मूला है। यदि टिकटों का बंटवारा और अन्य कारक वैसे ही रहे तो भाजपा के वे लोग घर बैठ सकते हैं जो वर्षों से उपेक्षा झेल रहे हैं। पिछले चुनाव के बाद भाजपा में पैदा सिंधिया फैक्टर भी किसी चुनौती से कम नहीं है। प्रदेश की चुनावी बिसात का इंतजार कीजिए, अभी बिगुल कहाँ बजा है?(मध्यमत)
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