अजय बोकिल
क्या विडंबना है कि कोरोना संकट में जहां प्रवासी मजदूरों की बदहाली और विवशता देख पूरा देश सिहर रहा था, वहीं 6 राज्यों ने ताबड़तोड़ तरीके से श्रमिक हितैषी कानूनों को बदल डाला। लॉक डाउन के बीच किए गए इस दूरगामी फैसले से नया राजनीतिक घमासान और आशंका का माहौल बन गया है। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कोरोना संकट में इन सुधारों को मजदूरों की आवाज दबाने वाला बताया। आठ राजनीतिक दलों ने इन सुधार के खिलाफ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखा है।
श्रमिक संगठनों का कहना है कि कानून में बदलाव से देश में पहले ही मुसीबत झेल रहे श्रमिकों का शोषण और बढ़ेगा। जबकि उद्योगपतियों का मानना है यह सही समय पर लिया गया सही फैसला है, क्योंकि पुराने श्रम कानूनों के चलते उद्योगों को चलाना और बाजार की कड़ी प्रतिस्पर्द्धा में टिकना मुश्किल था। इस बारे में सरकारों का कहना है कि श्रम कानून ढीले करने का मकसद कोरोना के कारण ठप पड़ी आर्थिक गतिविधियों को फिर पटरी पर लाना है।
जिन राज्यों में ताबड़तोड़ तरीके से यह श्रम कानून बदले गए हैं, उनमें अधिकांश भाजपा शासित हैं। संकेत यही है कि केन्द्र में मोदी सरकार पहले राज्यों में श्रम कानूनों के बदलाव के नतीजे टेस्ट करना चाहती है, बाद में इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा। हालांकि सरकार के इन फैसलों का आरएसएस से सम्बद्ध श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ ने विरोध किया है, लेकिन उसका कोई खास मतलब नहीं है, सिवाय खुद का वजूद बचाने के।
वैसे भी मोदी सरकार की तमाम नीतियां मोटे तौर पर उद्योगपतियों और मालिकों के पक्ष में झुकी ज्यादा मानी जाती हैं। जबकि श्रमिक संगठनों का तर्क है कि देश की अर्थव्यवस्था की बदहाली के पीछे रोड़ा पुराने श्रम कानून नहीं, सरकार की अदूरदर्शी आर्थिक नीतियां ज्यादा हैं। कहा यह भी जा रहा है कि कोरोना के बाद संभवत: चीन छोड़ने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने यहां आकर्षित करने के लिए श्रम सुधार लागू कर राज्य इसकी तैयारी कर रहे हैं। हालांकि ऐसी कौन-सी और कितनी वैश्विक कंपनियां भारत आना चाहती हैं, इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं है। फिर भी माहौल कुछ ऐसा ही बनाया जा रहा है।
चीनी कंपनियां आएं न आएं, लेकिन कोरोना के माहौल में श्रम कानूनों में तुरत फुरत बदलाव कर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इन फैसलों को ‘क्रांतिकारी पहल’ बताते हुए कहा कि अभी तो यह शुरूआत है। अगले 1 हजार दिनों तक कई श्रम कानून बदले जाएंगे, जिनमें कारखाना अधिनियम 1948 तथा औद्योगिक विवाद अधिनियम शामिल है। अब कारखानों में थर्ड पार्टी इंस्पेक्शन होगा। रजिस्टर से मुक्ति और काम की शिफ्ट में संशोधन का अधिकार कारखानों को होगा। उद्योगों में काम की अवधि प्रतिदिन 8 घंटे से बढ़कर 12 घंटे कर दी गई है तथा सप्ताह में 72 घंटे का ओवरटाइम होगा। कारखाना मालिक उत्पादन बढ़ाने के लिए सुविधानुसार शिफ्टों में परिवर्तन कर सकेंगे।
मप्र के बाद यूपी में योगी सरकार ने राज्य में अगले तीन साल के लिए श्रम कानूनों से उद्योगों, संस्थानों को छूट देने का फैसला किया। इसके लिए अध्यादेश भी लाया जा रहा है। वहां ट्रेड यूनियनों को मान्यता देने वाला कानून तथा अनुबंध श्रमिकों व प्रवासी मजदूरों से संबंधित कानून भी समाप्त कर दिए गए हैं। गुजरात में रूपाणी सरकार ने राज्य में कम से कम 1200 दिनों के लिए काम करने वाली सभी नई परियोजनाओं या पिछले 1200 दिनों से काम कर रही परियोजनाओं को श्रम कानूनों से लगभग पूरी छूट दे दी है।
राज्य सरकार ने उन वैश्विक कंपनियों के लिए 33 हजार हेक्टेयर जमीन की पहचान भी कर ली है, जो चीन से अपना कारोबार स्थानांतरित करना चाहती हैं। मप्र सरकार ने भी भोपाल में भेल कारखाने से अपनी 6 सौ एकड़ जमीन वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। कुछ इसी तरह के कदम महाराष्ट्र, ओडिशा तथा गोवा सरकार ने भी उठाए हैं।
केंद्र की मोदी सरकार ने आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए इन ‘संरचनात्मक श्रम सुधारों’ का समर्थन किया है। भाजपा सरकारों का मानना है कि सुधारवादी मानसिकता और श्रम कानून शिथिल करने से ज्यादा उद्योग आएंगे और इससे विकास सुनिश्चित होगा। वैसे भी केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद श्रम कानूनों को ज्यादा से ज्यादा ढीला करने की नीति पर काम चल ही रहा था।
पिछले साल जनवरी में ही केन्द्र सरकार ने ट्रेड यूनियन को कमजोर करने के मकसद से ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 में संशोधन कर दिया था, जिसके तहत ट्रेड यूनियनों के पंजीयन, दायित्वों और निधियों के उपयोग का प्रावधान है। श्रमिक संगठनों ने तब भी इसका विरोध किया था, लेकिन उनकी आवाज दबा दी गई। अब जिन 6 राज्यों ने श्रम कानून में बदलाव किए हैं, उसको लेकर मजदूर यूनियनों और कुछ अर्थशास्त्रियों को आशंका है कि इससे श्रम बाजार में अराजकता फैल सकती है। श्रमिकों की उत्पादकता को नुकसान हो सकता है और अब श्रमिकों का खुला शोषण होगा। उस पर कोई अंकुश नहीं रहेगा।
देश के बाकी राज्य भी आर्थिक गतिविधियां तेज करने तथा विदेशी निवेश आकर्षित करने की आड़ में श्रम कानूनों को और कमजोर कर सकते हैं। पंजाब और हरियाणा भी इसी दिशा में आगे बढ़ने पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं।
इस बारे में माइग्रेंट लेबर एक्टिविस्ट राजेंद्र नारायण का कहना है कि लेबर कानूनों के ये बदलाव हमें करीब 100 साल पीछे ले जाएंगे। पुराने श्रम कानूनों में संशोधनों के बाद मजदूरों के पास अपने अधिकारों के लिए लड़ने का कोई आधार ही नहीं बचेगा। ट्रेड यूनियन संगठन एआईसीसीटीयू के जनरल सेक्रेट्री राजीव ढीमरी का आरोप है कि मोदी सरकार पिछले 6 साल से 44 लेबर कानूनों को खत्म करके 4 कोड बनाने की कोशिश कर रही है। काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने से मजदूरों का ओवरटाइम बंद होगा और उन्हें कभी भी निकाला जा सकेगा।
आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) का कहना है कि इन बदलावों से राज्य सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। वह इनके खिलाफ प्रदर्शन करेगा। बीएमएस के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय के अनुसार देश में नौकरियों की वैसे ही कमी है। अब किसी को भी कभी भी निकाला जा सकेगा।
वैसे भी लॉक डाउन की सबसे बड़ी गाज तो नौकरियों पर ही गिरी है। एक जानकारी के मुताबिक देश में लॉक डाउन के पहले करीब 31 करोड़ कामग़ार थे। इसमें से 92 फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र से जुड़े थे। अर्थात इन्हें श्रम कानून भी कोई संरक्षण नहीं देते। यहां सवाल यह है कि सरकारें अचानक इतनी तेजी से श्रम कानून क्यों बदल रही हैं, वह भी तब, जब देश का आर्थिक चक्का लगभग जाम है।
इस बदलाव के पीछे एक तर्क यह है कि श्रम कानूनों में छूट से राज्यों में ज्यादा निवेश आएगा। नौकरियां बढ़ेंगी। लेकिन हकीकत यह है कि ज्यादातर निवेश देश के पांच राज्यों में ही आता है, क्योंकि वहां अधोसरंचना बेहतर है। दूसरी बात जो हमें समझाई जा रही है, वो है वैश्विक कंपनियों के चीन छोड़ भारत आने की। कहा जा रहा है कि ये तमाम सुधार उन कंपनियों को अपने यहां न्योतने के लिए हैं। क्योंकि ये कंपनियां वहीं कारखाने लगाती हैं, जहां जमीन सस्ती और आसानी से मिले, लालफीताशाही कम हो, श्रम कानूनों का अड़ंगा न हो, आर्थिक नीतियों में स्थिरता और सस्ता कर्ज मिले।
दूसरे शब्दों में उन्हें अपनी मर्जी से काम करने दिया जाए। सो, हमारे कई राज्य इन संभावित मेहमानों की आस में अभी से पलक-पांवड़े बिछा रहे हैं। लेकिन क्या सच में ऐसा होगा? या फिर यह केवल दिल को बहलाने वाला खयाल है। सरकार यह नहीं बता रही कि उसे कितनी वैश्विक कंपनियों के भारत आने के इच्छा पत्र मिले। कितने प्रस्तावों पर गंभीरता से विचार हो रहा है? जबकि पिछले दिनों खबर आई थी कि चीन छोड़ने वाली वैश्विक कंपनियों के परदेशगमन की प्राथमिकता में भारत का नाम बहुत नीचे है। उनकी प्राथमिकताओं में विएतनाम और बांगलादेश सहित अन्य दक्षिण एशियाई देश हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बैनर्जी ने भी चेताया है कि चीनी कंपनियां भारत आएंगी ही, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यहां विवाद का मुददा वह चीनी श्रम कानून मॉडल है, जिसका अनुकरण शायद मोदी सरकार करना चाहती है। चीन ने तमाम निजी कंपनियों को श्रम कानून से छूट दे रखी है, जिससे वे जमाने भर के सामान बहुत सस्ती कीमत पर तैयार कर दुनिया के बाजारों में थोक के भाव बेचकर भारी मुनाफा कमाती हैं। ये इसलिए भी संभव है, क्योंकि चीन साम्यवादी पूंजी समर्थक देश है। वहां राजनीतिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, न मजदूरों को संगठित होने का अधिकार है। यानी चीनी मॉडल की कामयाबी के लिए इन तत्वों का होना जरूरी है।
तो क्या मोदी देश को उसी दिशा में ले जा रहे हैं? कोरोना के बाद बड़ा खतरा देश में भयंकर बेरोजगारी फैलने का है। श्रम कानून में बदलाव लोगो को रोजगार दिलाने में कितने कामयाब होंगे, यह देखने की बात है। डर इस बात का ज्यादा है कि कहीं उलटा न हो जाए। न चीन के रहें, न भारत के।
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टीम मध्यमत