डॉ. अजय खेमरिया
“मुझे बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने बहुत प्यार दिया लेकिन पार्टी ने मेरे अनुभव और सक्रियता का उपयोग नही किया”
इस संतुलित बयान के साथ पूर्व मंत्री बालेंदु शुक्ला ने कांग्रेस में घर वापसी कर ली। नेताओं के दलबदल की घटनाएं वैसे तो विमर्श का क्षणिक बायस रहती हैं, लेकिन बालेंदु के बहाने ग्वालियर अंचल के उस सियासी पक्ष को भी समझने की कोशिशें होनी चाहिये जो इस इलाके की जातीय गोलबंदी से भी जुड़ा है।
खासकर चंबल का मिजाज भी रेवांचल की तर्ज पर एक दौर में ब्राह्मण-ठाकुर के आपसी वर्चस्व पर केंद्रित रहा है। बालेंदु 1985 से 1998 तक यहां बड़ा ब्राह्मण चेहरा रहे हैं, लेकिन गिर्द में अनूप मिश्रा से मिली शिकस्त के बाद वे मुख्यधारा की राजनीति में पुनर्स्थापित नही हो सके। स्व.माधवराव सिंधिया के बालसखा के रूप में उनकी पहचान रही लेकिन सिंधिया के असमय निधन के बाद उनकी सियासी धमक पूरी तरह से गायब हो गई।
जाहिर है 70 पार के बालेंदु मौजूदा राजनीति के लिए उतने फिट न रहे हों, लेकिन उनके भाजपा छोड़ने के साथ ही इस विमर्श ने भी जोर पकड़ा है कि क्या बीजेपी दूसरे दलों से आये नेताओं को अपनी रीतिनीति में ढाल नहीं पाती है? इस घटनाक्रम के साथ ही इस तथ्य को समझना होगा कि अंचल में ब्राह्मण वर्ग की दूरियां बीजेपी के साथ मतदान व्यवहार के नजरिये से तो नहीं बढ़ रही हैं?
क्योंकि 2013 में जिस प्रभावी पोजिशन को कांग्रेस से छोड़कर राकेश चौधरी बीजेपी में आये थे उनका मोहभंग क्यों हो गया? क्यों अनूप मिश्रा जैसे कद्दावर नेताओं की नाराजगी को पार्टी हल्के से लेती रही है। क्या नरोत्तम मिश्रा के लिए सियासी तौर पर एक बड़ा अवरोधक पार्टी के अंदर से ही खड़ा किया जाता रहा है।
क्यों, ब्रजेन्द्र तिवारी, गणेश गौतम, हरिबल्लभ शुक्ला, सीपी शर्मा, परशराम मुदगल जैसे नेता बीजेपी में आये और फिर निकल गए? डॉ. धर्मवीर वेदप्रकाश शर्मा, नरेंद्र बिरथरे, शम्भू तिवारी जैसे तमाम नेता क्षमताओं के अनुरूप पार्टी में स्थान नही अर्जित कर पाए हैं, आखिर क्यों?
ग्वालियर बीजेपी के अध्यक्ष कमल माखीजानी का बालेंदु को लेकर यह कहना कि “पार्टी के कार्यकर्ताओं को उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता था” अपने आप में बीजेपी की ब्राह्मण राजनीति में शीर्ष के खदबदाहट को प्रमाणित करता है। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इस क्षेत्र में मिली प्रचंड सफलता के पीछे कहीं न कहीं सवर्ण नाराजगी के साथ ब्राह्मणों का अलगाव भी एक कारक कहा जा सकता है।
2013 और 2018 में मुरैना जिले की किसी सीट से ब्राह्मण को टिकट नहीं मिली। शिवपुरी में 2003 के बाद, गुना, अशोकनगर (2018 चंदेरी छोड़) में 1980 से और श्योपुर जिले में 1993 से किसी ब्राह्मण को बीजेपी ने अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है। ग्वालियर महानगर में अनूप मिश्रा को छोड़कर 1990 में डॉ. धर्मवीर अकेले ब्राह्मण केंडिडेट थे।
अनूप मिश्रा को पार्टी ने बहुत अवसर दिये हैं, यह तथ्य है पर इसके पीछे उनकी अटल जी की कतिपय विरासत को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। जाहिर है ग्वालियर अंचल में कांग्रेस इस जातीय समायोजन को अपने पक्ष में करने की जुगत भिड़ा रही है। इसीलिए राकेश चौधरी को ठाकुर लॉबी के विरोध के बाबजूद मेहगांव से टिकट देने की तैयारी की जा रही है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के विरुद्ध बीजेपी टिकट पर लोकसभा लड़ने वाले हरिबल्लभ शुक्ला को पोहरी से उतारने पर विचार चल रहा है। संभव है बालेंदु शुक्ला को ग्वालियर पूर्व से उम्मीदवार बनाया जाए। पार्टी बीजेपी के पूर्व विधायक ब्रजेन्द्र तिवारी को भी तोड़ने में लगी है। हालांकि अनूप मिश्रा की नाराजगी को फिलहाल कुछ कम कर लिया गया है, इसके बाबजूद पार्टी के अंदर खाने ब्राह्मण नेताओं की नाराजगी कहीं न कही विमर्श के केंद्र में नजर आ रही है।
वैसे यह भी तथ्य है कि बालेंदु और राकेश चौधरी जैसे नेता अपनी विश्वसनीयता को बुरी तरह खो चुके हैं, मौजूदा दौर की समावेशी सियासत में उनका प्रभाव खत्म प्रायः है। लेकिन अंचल की चुनावी राजनीति में प्रतीकों और परसेप्शन का अपना महत्व है। सिंधिया के दलबदल से हलकान कांग्रेस इस नए जातीय नैरेटिव को खड़ा करके खुद को स्थापित करने का प्रयास कर रही है।
यूं तो बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा भी मुरैना से आते हैं, लेकिन वे संघ प्रचारक अधिक हैं और उनका सीधा दखल कभी इस अंचल में नहीं रहा है। देखना होगा कि मौजूदा सरकार के भविष्य को निर्धारित करने वाले ग्वालियर अंचल में बीजेपी कांग्रेस के इस नैरेटिव को कैसे ध्वस्त करती है।
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टीम मध्यमत