गिरीश उपाध्याय : पहलगाम नरसंहार के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच चार दिन चले सैन्य टकराव और उसमें पाकिस्तान को हुए भारी नुकसान के बाद, दोनों देशों के बीच युद्धविराम (Ceasefire) की घोषणा से जहां एक ओर पूरे उपमहाद्वीप ने राहत की सांस ली है, वहीं दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कई नए सवाल भी खड़े हो गए हैं। सबसे प्रमुख सवाल यह है कि इस संघर्ष विराम में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अप्रत्याशित या अवांछित मध्यस्थता और सक्रिय भूमिका के कूटनीतिक मायने क्या हैं, और इसका भारत, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति व नेतृत्व के लिए क्या संदेश है।
ट्रंप फैक्टर : अचानक या पूर्व नियोजित हस्तक्षेप?
पाक प्रायोजित आतंकियों की बर्बर हरकत के बाद भारत ने जवाबी कार्रवाई करते हुए 7 मई को पाकिस्तान में आतंकवादियों के नौ ठिकाने ध्वस्त कर दिए थे। यह कार्रवाई भारत ने बगैर सीमा पार किए की थी और उसमें न तो पाकिस्तान के नागरिक और न ही किसी सैन्य ठिकाने को निशाना बनाया गया था। उसके बावजूद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पहली प्रतिक्रिया हैरत में डालने वाली थी। भारत की इस कार्रवाई को लेकर उनके मुंह से जो पहला शब्द निकला था वह था शर्मनाक… उसके बाद पाकिस्तान के उप राष्ट्रपति जेडी वेंस की एक प्रतिक्रिया आई जिसमें उन्होंने कहा- भारत पाक तनाव की स्थिति से अमेरिका को कोई लेना देना नहीं है…
लेकिन अचानक अमेरिका ने ऐसी पलटी मारी कि दुनिया भौचक रह गई। दस मई को भारत पाक की तरफ से युद्धविराम को लेकर कोई घोषणा होती, इससे पहले ही डोनाल्ड ट्रंप ने जंप मारी और सोशल मीडिया एक्स पर एक संदेश ठोक दिया। उसमें उन्होंने कहा- “संयुक्त राज्य अमेरिका की मध्यस्थता में एक लंबी रात की बातचीत के बाद, मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि भारत और पाकिस्तान पूर्ण और तत्काल युद्धविराम पर सहमत हो गए हैं। दोनों देशों को बधाई, जिन्होंने सामान्य बुद्धि और महान बुद्धिमत्ता का उपयोग किया।”
ट्रंप का दावा है कि युद्धविराम की पटकथा उनकी मध्यस्थता में तैयार हुई। उन्होंने न केवल पाकिस्तान के साथ सीधे संपर्क स्थापित किया, बल्कि भारत के कुछ रणनीतिक सलाहकारों से भी अनौपचारिक संवाद के जरिए वार्ता के दरवाजे खोले। 12 मई को तो ट्रंप ने हद ही पार कर दी। उन्होंने एक तरह से अपनी कथित धमकी को उजागर करते हुए मीडिया को बताया कि ‘’मैंने भारत पाक दोनों से कहा था कि यदि आप टकराव खत्म नहीं करेंगे तो अमेरिका आपके साथ कोई व्यापार नहीं करेगा। और दोनों देश मान गए…
जबकि दूसरी तरफ युद्धविराम की जानकारी देते हुए भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी और बाद में सैन्य कार्रवाई के महानिदेशक ने बताया कि युद्धविराम का प्रस्ताव सीधे पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई महानिदेशक ने अपने भारतीय समकक्ष को दिया था और दोनों देशों के बीच सीधे हुई बातचीत एवं उच्चस्तरीय परामर्श के बाद इस पर सहमति बनी। और ऐसा भारतीय सेना की सफल और सटीक कार्रवाई के बाद हुआ। ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि क्या यह ट्रंप की निजी कूटनीति थी या एक दीर्घकालिक अमेरिकी रणनीति का हिस्सा?
अब यदि इसे अमेरिकी संस्थागत कूटनीतिक का प्रयास माना जाए, तो यह दर्शाता है कि अमेरिका भारत-पाक तनाव का इस्तेमाल कर दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव पुनः स्थापित करना चाहता है। और यदि यह केवल ट्रंप की पहल थी, तो यह अमेरिका के भीतर भारत-पाक नीति को लेकर हो रही बहस का संकेत है, और यह स्थिति भी भारत के लिए उतनी ही चुनौतीपूर्ण है।
भारत की दुविधा: युद्ध, शांति और रणनीतिक संतुलन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि एक निर्णायक और दृढ़ राष्ट्रवादी नेता की रही है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी सैन्य कार्रवाइयों से उन्होंने अपने राजनीतिक समर्थकों को यह भरोसा दिलाया कि भारत अब ‘मूकदर्शक’ नहीं रहेगा। ऐसे में यदि यह संदेश जाए कि ट्रंप की पहल पर भारत युद्धविराम की ओर बढ़ा, तो इससे उनकी रणनीतिक दृढ़ता पर सवाल उठ सकते हैं, खासकर चुनावी और कूटनीतिक मंचों पर।
इसके साथ ही, मोदी सरकार को यह चिंता भी जरूर होगी कि कहीं अमेरिका इस समझौते के जरिए पाकिस्तान को फिर से अंतरराष्ट्रीय वैधता और समर्थन तो नहीं दिला रहा? इस सवाल को यदि भारत-पाक सैन्य टकराव के बीच ही, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा पकिस्तान को 2.4 अरब डॉलर की मदद दिए जाने के फैसले से जोड़ा जाए तो मामला और गंभीर हो जाता है। क्योंकि यह फैसला भारत के विरोध के बावजूद हुआ और दुनिया जानती है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं किस हद तक अमेरिका के प्रभाव में काम करती हैं। भारत पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पूरी ताकत के साथ पाकिस्तान को ‘आतंकवाद के केंद्र’ के रूप में प्रस्तुत करता आ रहा है। ट्रंप के रुख से उस नैरेटिव को झटका लग सकता है।
भारत-अमेरिका संबंधों पर असर संभावित
भारत ने पिछले एक दशक में अमेरिका के साथ अपने संबंधों को रक्षा, तकनीक और रणनीति के स्तर पर पुख्ता किया है। QUAD जैसे मंचों में साझेदारी से लेकर भारत-प्रशांत (Indo-Pacific) रणनीति तक, भारत अब अमेरिका का अहम सहयोगी बन चुका है। लेकिन अगर अमेरिका, ट्रंप की पहल के बहाने, पाकिस्तान से अपने रिश्ते बेहतर करने की कोशिश करता है, तो भारत को कूटनीतिक असहजता का सामना करना पड़ सकता है।
इसके अलावा, अगर अमेरिकी राजनीतिक वर्ग यह संकेत देने लगे कि भारत-पाक मसले को सुलझाने में अमेरिका को ‘मध्यस्थ’ का स्थान मिलना चाहिए, तो यह भारत की पारंपरिक ‘द्विपक्षीय समाधान’ की नीति को कमजोर करेगा।
चीन का कोण और रणनीतिक संतुलन
इस मामले में एक और फैक्टर चीन का है। चीन पहले से ही पाकिस्तान का निकटतम सामरिक सहयोगी है और वह भी ट्रंप की भूमिका को लेकर सतर्क है। यदि अमेरिका पाकिस्तान से अपने रिश्ते फिर मजबूत करता है, तो चीन को इस क्षेत्र में अपना प्रभाव कम होने का डर हो सकता है। इसके चलते वह भारत पर दबाव बढ़ा सकता है खासतौर से उन सीमा क्षेत्रों में जहां उसका भारत के साथ पहले से ही विवाद चल रहा है और उनके अलावा आर्थिक गलियारों और हिंद महासागर क्षेत्र में।
ऐसे में भारत के सामने यह दुविधा होगी कि यदि पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति बदलती नजर आए, भारत अमेरिका के साथ अपनी साझेदारी कैसे जारी रखे।
भारत के लिए आगे की राह
ट्रंप की भूमिका ने भारत को एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या अमेरिका वास्तव में भारत का दीर्घकालिक रणनीतिक साझेदार है, या वह केवल क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन बनाए रखने की भूमिका में है। प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह एक कूटनीतिक परीक्षा है, जहां उन्हें युद्ध और शांति, स्वायत्तता और साझेदारी, तथा राष्ट्रीय सम्मान और अंतरराष्ट्रीय यथार्थ के बीच संतुलन साधना होगा।
भारत को अब न केवल अपनी विदेश नीति में लचीलापन दिखाना होगा, बल्कि अपनी कूटनीतिक संप्रभुता को लेकर और अधिक मुखर भी होना होगा। वैश्विक मंचों पर यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि भारत किसी भी ‘मध्यस्थ’ की भूमिका को स्वीकार नहीं करता, और शांति उसकी शक्ति से उपजी है, मजबूरी से नहीं।
भारत-पाकिस्तान युद्धविराम के पीछे ट्रंप की भूमिका केवल एक घटनाक्रम नहीं, बल्कि एक संकेत है, बदलती विश्व व्यवस्था, बदलती साझेदारियों और भारत के सामने खड़ी नई दुविधाओं का। यह लगभग वैसी ही चुनौती है जो पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के सामने आई थी और उन्होंने झुकने के बजाय अमेरिकी प्रतिबंधों का मुकाबला करने की राह चुनी थी। अब यह मोदी के भारत की कूटनीतिक चतुराई पर निर्भर करेगा कि वह इस अवसर को कैसे संतुलन, संप्रभुता और साख में बदलता है।
पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अटल बिहारी वाजपेयी झुकने के बजाय अमेरिकी प्रतिबंधों का मुकाबला करने की राह चुनी थी। अब यह मोदी जी के भारत की कूटनीतिक चतुराई पर निर्भर करेगा कि वह इस अवसर को कैसे संतुलन, संप्रभुता और साख में बदलता है।