प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को महाराष्ट्र के शोलापुर की चुनावी सभा में जो भाषण दिया है उसने देश में जातिवाद का मुद्दा एक बार फिर गरमा दिया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘पिछड़ा वर्ग का होने की वजह से उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।’ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ‘चौकीदार चोर है’ और ‘सभी चोरों का सरनेम मोदी है’ जैसे बयानों का संदर्भ देते हुए मोदी ने कहा, “पिछड़ा होने की वजह से, हम पिछड़ों को अनेक बार ऐसी परेशानियां झेलनी पड़ी हैं।‘’
उन्होंने कहा- ‘’कांग्रेस और उसके साथियों ने अनेक बार मेरी हैसियत बताने वाली, मेरी जाति बताने वाली बातें कही हैं।… कांग्रेस के नामदार ने पहले चौकीदारों को चोर कहा, जब ये चला नहीं तो अब कह रहे हैं कि जिसका भी नाम मोदी है वो सारे चोर क्यों हैं?… वो इस बार और आगे बढ़ गए हैं और पूरे पिछड़े समाज को ही चोर कहने लगे हैं।”
जिस समय मीडिया में प्रधानमंत्री की यह पीड़ा व्यक्त करने वाली खबरें चल रही थीं कि उन्हें गाली देते देते विपक्ष के लोग पूरे पिछड़े समाज को ही गाली देने लगे हैं, उसी समय मेरी नजर एक ऐसी खबर पर गई जो चौंकाने वाली थी। न्यूज वेबसाइट ‘द वायर’ हिन्दी ने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ की एक खबर के हवाले से बताया कि सीबीएसई ने फैसला किया है कि कक्षा दसवीं की सामाजिक विज्ञान की किताब के ‘लोकतंत्र और विविधता’ पर आधारित अध्याय को सत्र 2019-20 की अंतिम परीक्षा में शामिल नहीं किया जाएगा।
‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने यह खबर 16 अप्रैल को प्रकाशित की है और गूगल पर यदि आप सर्च करें तो आपको सीबीएसई के इस फैसले से जुड़ी खबरें और भी कई अखबारों व अन्य न्यूज वेबसाइट्स पर मिल जाएंगी। हालांकि सीबीएसई की वेबसाइट पर मैंने इस सर्कुलर को खोजने का प्रयास किया पर मुझे वो नहीं मिला। फिर भी मैं मानकर चलता हूं कि जब इतने बड़े और इतने सारे अखबारों ने इस खबर को जारी किया है तो वह गलत नहीं होगी।
खबरों के अनुसार सीबीएसई ने लोकतांत्रिक राजनीति किताब-1 के तीन अध्याय ‘लोकतंत्र और विविधता’, ‘लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन’ और ‘लोकतंत्र के लिए चुनौतियां’ के बारे में निर्णय किया है कि स्कूल की आंतरिक परीक्षा में तो इन अध्यायों का मूल्यांकन होगा, पर बोर्ड परीक्षा 2020 में इनका मूल्यांकन नहीं किया जाएगा। इस निर्णय के पीछे मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा छात्रों के पाठ्यक्रम का ‘बोझ’ कम करने की मंशा को कारण माना जा रहा है।
सीबीएसई के इस फैसले के निहितार्थ, इसके असर और इसकी गंभीरता के मायने क्या हैं, इस पर बात करने से पहले यह भी जान लेना जरूरी है कि जो अध्याय ‘बोझ’ या वार्षिक परीक्षा में मूल्यांकन के अयोग्य माने गए हैं उनकी विषय वस्तु क्या है? ‘लोकतंत्र के लिए चुनौतियां’ अध्याय में ‘चुनौतियों के बारे में विचार’, ‘राजनीतिक सुधार’ और ‘लोकतंत्र को फिर से परिभाषित करना’ शामिल है। जबकि ‘लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलन’ अध्याय लोकतंत्र के विस्तार में लोगों के संघर्ष की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में है। वहीं, ‘लोकतंत्र और विविधता’ वाले अध्याय में भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में सामाजिक भेदभाव और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बीच संबंधों का विश्लेषण है।
‘द वायर’ की रिपोर्ट के मुताबिक नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) के पूर्व चेयरमैन कृष्ण कुमार कहते हैं कि ‘एनसीईआरटी की किताबों को राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के बाद सावधानीपूर्वक तैयार किया गया था। इसका उद्देश्य था कि शिक्षक और छात्रों में लचीलापन बना रहे और छात्र उस विषय में रुचि पैदा करें, न कि परीक्षा के लिए किताबें पढ़े’’… लेकिन अब सीबीएसई इन किताबों से उस लचीलेपन को निकाल रही है जिसे छात्रों को विषय में रुचि पैदा करने के लिए लाया गया था।‘’
इस संबंध में विशेषज्ञों ने एक मुद्दा क्षेत्राधिकार के अतिक्रमण का भी उठाया है। कृष्ण कुमार के मुताबिक पाठ्यक्रम और किताबें तैयार करने का काम एनसीईआरटी का है न कि सीबीएसई का। क्या पढ़ाया जाए और किस तरह पढ़ाया जाए यह सीबीएसई का क्षेत्राधिकार नहीं है। ऐसी ही राय कई अन्य शिक्षाविदों की भी है1
लेकिन इस पूरे मामले में एक सरकारी स्कूल के शिक्षक की प्रतिक्रिया ध्यान देने लायक है। उन्होंने कहा-‘‘सीबीएसई ने इन तीन अध्यायों को छात्रों के लिए वैकल्पिक की श्रेणी में रखा था। चूंकि अब ये अध्याय स्कूल की आंतरिक परीक्षा में तो शामिल होंगे लेकिन बोर्ड की परीक्षा में इससे संबंधित सवाल नहीं पूछे जाएंगे, तो अब छात्र इन अध्यायों को गंभीरता के साथ नहीं पढ़ेंगे।’’
और यही वह मुद्दा है जिस पर गंभीरता से सोचने और ध्यान देने की जरूरत है। जिस समय देश की राजनीति को, चुनावों के जरिये, अधिक से अधिक सामाजिक और जातिगत ध्रुवीकरण की ओर ले जाया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ इसके सामाजिक पहलुओं को बताने और समझाने वाली सामग्री के प्रति छात्रों में अरुचि पैदा करने वाले कदम उठाए जा रहे हैं।
पिछले कुछ सालों में जिस तरह से सरकारों ने जाति और वर्ग आधारित फैसले किए हैं और जिस तरह समाज में जाति के महत्व को बढ़ावा दिया जा रहा है, उस संदर्भ में तो युवा पीढ़ी के लिए और ज्यादा जरूरी हो जाता है कि वह देश के इस जातिगत और वर्गगत तानेबाने को बारीकी से जाने और समझे।
छात्रों को इस व्यवस्था के गुण दोषों के बारे में निष्पक्ष होकर सारी बातें बताई जानी चाहिएं ताकि बड़े होकर वे न सिर्फ इन मुद्दों पर वस्तुपरक ढंग से सोच सकें, बल्कि चुनावी राजनीति में ऐसे मुद्दों को आधार बनाए जाने पर, समाजहित को ध्यान में रखते हुए निर्णय कर सकें। पर ऐसा लगता है कि सरकारें अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए तो ऐसे विषयों को बचाए रखना अथवा उन्हें और पुष्ट करना चाहती है, लेकिन लोगों को उनके बारे में जागरूक होने देना नहीं चाहती। (जारी)