राकेश अचल
तमाम गुलामियों के बीच से गुजरते हुए भारत को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं, लेकिन देश में जाति का पेड़ धराशायी होने की बजाय वटवृक्ष की तरह और सघन होता जा रहा है। अब देश में जातीय आधार पर जनगणना की राजनीतिक मांग भी जोर पकड़ रही है। जाहिर है कि जातिवाद के जहर की खेती करने वाली राजनीति ही है, राजनीति ही देश में जातिवाद को खाद-पानी मुहैया करा रही है।
बहुत पीछे न भी जाएँ तो कोई छह सौ साल पहले भी जातिवाद ने समरसता को बुरी तरह प्रभावित करने की कोशिश की थी, उस समय भी संत कबीर ने तमाम जोखिम उठाते हुए जातिवाद के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। कबीर ने कहा था कि-‘ जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान। छह सौ साल बाद भी हम कबीर का दोहा तो नहीं भूल पाए लेकिन चूड़ी बेचने वालों से उसकी जाति पूछना नहीं भी भूले। जाति के आधार पर उसे धुनना नहीं भूले। बल्कि अब तो बाकायदा हम प्रतिनिधि मंडल के साथ देश के प्रधानमंत्री से जातीय आधार पर जनगणना करने की मांग करने में भी गर्व अनुभव करने लगे हैं।
जातिवाद को जहर समझने वाले हम जैसे लोग लगातार अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं, लेकिन जब देश की अदालतें इस मामले में अपना माथा पीटती नजर आती हैं तो निराशा और बढ़ जाती है। मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि -देश में आरक्षण के लगातार बढ़ रहे ट्रेंड से जाति व्यवस्था खत्म होने के बजाय स्थायी होती जा रही है। अब इसका अंत नहीं दिखता है। हाईकोर्ट ने कहा, ‘जाति व्यवस्था को खत्म करने के बजाय मौजूदा ट्रेंड इसे और स्थायी बना रहा है। आरक्षण की व्यवस्था को अंतहीन समय के लिए बढ़ाए जाने से ऐसा हो रहा है। जबकि यह कुछ वक्त के लिए ही थी ताकि गणतंत्र में असमानता को दूर किया जा सके।
अदालत कहती है- यह सही है कि किसी देश की आयु को मनुष्यों की उम्र से नहीं जोड़ा जा सकता। लेकिन 70 साल के समय में कम से कम परिपक्वता तो आ ही जानी चाहिए।’ अदालत का ये सवाल अनुत्तरित नहीं है। इस सवाल का उत्तर है कि हम छह सौ साल बाद भी जहाँ थे वहां से कुछ ही कदम आगे बढ़े हैं, लेकिन जितना आगे बढे हैं उससे कहीं ज्यादा पीछे भी चले गए हैं।
भारत की राजनीति जाति के खोल से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है, इसलिए क़ानून, संसद और अदालतें असहाय हैं। जाति व्यवस्था को निर्मूल करने की जितनी कोशिशें होती हैं उससे कहीं ज्यादा ताकतें जातिवाद को और मजबूत करने के लिए सक्रिय हो जाती हैं। समाज का ये अंतर्विरोध जातिवाद के जहर से हमारे सिस्टम को धीरे-धीरे जहरीला बनाता जा रहा है। जबकि सर्वमान्य तथ्य है कि जाति ही देश-दुनिया में बराबरी की दुश्मन है। जाति आजादी की दुश्मन है, जाति विकास की दुश्मन है। दुर्भाग्य ये है कि दुश्मन के साक्षात् सामने होते हुए भी कोई उसका नाश नहीं कर पा रहा है।
पिछले कुछ दशकों में अंतर्जातीय विवाहों को जातिवाद के उन्मूलन का एक उपकरण मान लिया गया था। बदलते सामाजिक ढांचे ने जातिवाद पर प्रहार किये लेकिन ये सब कोशिशें आभासी ही होकर रह गयीं। नाम के आगे से जाति लगाए बिना हमारा काम ही नहीं चलता। जाति से मुक्ति की जितनी भी कोशिशें की गयीं वे सबकी सब अवैज्ञानिक निकलीं। आरक्षण व्यवस्था समाज के कमजोर और पिछड़े समाज तथा जनजातियों को बराबरी के अवसर देने के लिए की गयी थी, किन्तु आरक्षण से बीते 75 साल में हम असल लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाए हैं। उलटे जातिवाद और मजबूत हो गया है। हम जाति के लिए ऑनर किलिंग जैसे नए शब्दों के हथियार लेकर घूम रहे हैं।
भारत में जातिवाद को जानबूझकर समाप्त नहीं किया जा रहा। अधिकांश राजनीतिक दल जातियों के आधार पर प्रत्याशियों का चयन करते हैं, उनकी हार-जीत का गणित लगाते हैं। फलस्वरूप अब जातीय आधार पर जनगणना की मांग तेज हो गयी है। ये मांग किसी समाज की ओर से नहीं उठी बल्कि कुछ राजनीतिक दल ही इस मांग के पीछे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि एक बार जातीय गणित साफ़ हो जाये तो चुनाव लड़ने में आसानी हो जाए। देश में कोई एक दल ऐसा नहीं बचा जो जातीय गणित को महत्व न देता हो, यहां तक कि वामपंथी भी इसका अपवाद नहीं हैं।
भारत जैसे विशाल देश में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए दृढ इच्छाशक्ति की जरूरत है, देश में यदि 1108 जातियां हैं तो इनसे दो गुना अधिक उप जातियां हैं, यानि जाति के भीतर जाति। जैसे प्याज के छिलके होते हैं वैसे ही जातियां हैं। दुनिया की जितनी जातियां हैं उनमें से अधिकांश को आप भारत में खोज सकते हैं। धर्म और जाति दो अलग मुद्दे हैं। अभी तक जनगणना में धर्म लिखा जाता रहा है। अनुसूचित जाति और जनजाति लिखा जाता रहा है, लेकिन भविष्य में और क्या-क्या लिखा जाएगा कोई नहीं जानता?
दुनिया में जितने भी देश ताकतवर बने हैं या जिन्होंने अपेक्षित प्रगति की है वे जातिवाद से लगभग उबर चुके हैं। यहां तक कि अब जातिभेद तो दूर रंगभेद भी कोई बड़ी समस्या नहीं रह गया है। जातिभेद और रंगभेद को समूल नष्ट करना इस युग की सबसे बड़ी चुनौती है। यानि कि बर्फ पिघल रही है। कुछ कानूनों की वजह से तो कुछ जागरूकता के चलते लेकिन भारत में ठीक उलटा हो रहा है। जाति लगातार मजबूत हो रही है और लोकतंत्र लगातार कमजोर। जातिवाद के कितने नुक्सान हैं ये किसी से छिपे नहीं हैं, लेकिन कोई भी इस केंचुली को उतार फेंकने के लिए तैयार नहीं है। नस्लों की कथित शुद्धता की अवधारणा भी इस जातिवाद के पीछे काम करती है।
भारत में जातियों के आधार पर संगठनों, संस्थाओं का पंजीयन खुद सरकार करती है, ऐसे में किसी एक को दोष कैसे दिया जा सकता है। हँसी तो तब आती है जब हम अपने राष्ट्रीय नायकों को जाति के आधार पर पूजने लगते हैं, उन्हें अपनी सुविधा से आपस में बाँट लेते हैं। बीते 75 साल में तो ये काम और तेजी से हुआ है। इसके लिए अकेले फासीवादी ही नहीं अपितु कथित प्रगतिशील और समतावादी भी समान रूप से दोषी हैं। आज की तारीख में तो सियासत ने जाति के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने को एक जरूरत ही बना लिया है।
अमेरिका में मैं अपने बेटे के पास जिस बस्ती में रहता हूँ वहां लोगों की जाति का पता करना कठिन है, क्योंकि कोई जातिसूचक शब्द इस्तेमाल ही नहीं करता। पर ये बीमारी भी यहां भारत से आ चुकी है। अमेरिकी समाज इसे लेकर हँसी उड़ाता है। यहाँ कोई संस्थान, बाजार या शहर किसी जाति के आधार पर नहीं है। हमारे यहां भी ऐसा हो सकता है, लेकिन नहीं होगा क्योंकि हम अलीगढ़ को हरिगढ़ और इलाहबाद को प्रयाग करने में ही उलझे हुए हैं। जातीय गौरव हमारे लिए अभी भी राष्ट्रीय गौरव के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण है। (मध्यमत)
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