संदर्भ एवं विश्‍लेषण सामग्री
भारत में जातिगत जनगणना को लेकर लगातार हो रही बहस के बीच आखिरकार नरेंद्र मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का फैसला कर लिया है। हालांकि ऐसी जनगणना अलग से न होकर मूल जनगणना का ही हिस्‍सा होगी। आजादी के पहले होने वाली जनगणना में जातिगत गणना भी होती थी लेकिन 1947 के बाद से इसे बंद कर दिया गया। पिछले कुछ सालों से यह मुद्दा चुनावी राजनीति के केंद्र में था। बिहार में नीतीश सरकार ने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया था। कांग्रेस भी लगातार इस मांग को उठा रही थी। ऐसे में बिहार चुनाव से कुछ समय पहले सरकार ने यह फैसला कर बड़ा दांव खेला है।
जातिगत जनगणना पर लगातार तेज होती बहस में जहां एक ओर इसे सामाजिक न्याय की दिशा में जरूरी कदम बताया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर इसे समाज में नई दरारें पैदा करने वाला कदम माना जा रहा था। बीते कुछ वर्षों में कई राजनीतिक दलों और संगठनों ने जाति आधारित जनगणना की मांग को मजबूती से उठाया। देश की जनता में भी इसके समर्थन में तेजी दिखाई दी थी। समर्थन करने वाले लोगों का कहना रहा है कि समाज के पिछडे और वंचित लोगों की भलाई के लिए योजनाएं बनाने और उन्‍हें उनका सटीक और समुचित लाभ दिलाने के लिए यह डाटा जरूरी है कि समाज में विभिन्‍न जातियों की स्थिति क्‍या है।
क्या है जातिगत जनगणना?
जनगणना भारत की एक अहम प्रक्रिया है, जो हर 10 साल में होती है। इसमें केवल आबादी की गिनती ही नहीं की जाती, बल्कि लोगों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, और पारिवारिक स्थिति का भी ब्योरा लिया जाता है। वर्ष 2011 की पिछली जनगणना में 29 सवाल पूछे गए थे, लेकिन जाति से संबंधित कोई सवाल शामिल नहीं था।
स्वतंत्रता से पहले की जनगणनाओं में सभी जातियों की गिनती की जाती थी। लेकिन 1947 के बाद यह प्रक्रिया बंद कर दी गई, क्योंकि यह आशंका थी कि जातियों की गिनती से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की गणना अब भी की जाती है। लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और सामान्य वर्ग की गिनती नहीं होती।
क्यों उठ रही है मांग?
जातिगत जनगणना की मांग करने वाले कहते रहे हैं कि इससे समाज में व्याप्त गैर-बराबरी का सही चित्र सामने आएगा। इससे यह जानकारी भी मिलेगी कि किन समुदायों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति सबसे कमजोर है और उन्हें किन क्षेत्रों में सहायता की सबसे अधिक आवश्यकता है। इसके आधार पर नीतियां बनाकर सरकारी संसाधनों का न्यायसंगत बंटवारा किया जा सकेगा।
जहां तक इस बारे में जनता की राय का सवाल है पिछले साल एक सर्वे में फरवरी 2024 में जहां 59 फीसदी लोग जाति जनगणना के पक्ष में थे, वहीं अगस्त 2024 में यह संख्या बढ़कर 74 फीसदी हो गई थी। यानी जनता में इसका समर्थन लगातार बढ़ रहा था।
केवल गिनती नहीं, सामाजिक-आर्थिक ब्‍योरा भी जरूरी
जातिगत जनगणना की मांग करने वाले यह भी कहते रहे हैं कि केवल जातियों की संख्या गिनना पर्याप्त नहीं होगा। इसके साथ यह भी जानना जरूरी है कि किस जाति या समुदाय की आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति क्या है। इससे यह भी पता चलेगा कि किस समुदाय को अब तक किन क्षेत्रों में कम अवसर मिले हैं।
जातिगत जनगणना से यह भी जाना जा सकेगा कि देश की सरकारी नौकरियों, न्यायपालिका, मीडिया, व्यापारिक संस्थानों व अन्‍य क्षेत्रों में किन जातियों का कितना प्रतिनिधित्व है। इससे यह तय करने में मदद मिलेगी कि आरक्षण और संसाधनों का वितरण कैसे और किस आधार पर होना चाहिए।
आरक्षण में बदलाव की संभावना और चुनौतियाँ
जातिगत जनगणना के बाद यह मांग उठ सकती है कि आरक्षण को जनसंख्या के अनुपात में बांटा जाए। इस प्रक्रिया में उप-वर्गीकरण की बात भी सामने आ सकती है, जिसमें यह देखा जाएगा कि क्या आरक्षण का लाभ कुछ ही जातियों तक सीमित रह गया है और बाकी पिछड़े वर्ग अभी भी पीछे हैं।
हालांकि, इसका विरोध करने वालों का मानना है कि जातिगत आंकड़ों का राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है और इससे समाज में जातीय तनाव बढ़ सकता है। इतिहास गवाह है कि जब 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी को आरक्षण दिया गया था, तब देशभर में भारी विरोध प्रदर्शन हुए थे।
समाधान या संघर्ष की शुरुआत?
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जातिगत जनगणना के बाद समाज में एक दौर का संघर्ष जरूर शुरू हो सकता है। लेकिन कई लोगों का मानना है कि अगर हमें एक समान और न्यायपूर्ण समाज की ओर बढ़ना है, तो इस कठिन रास्ते से गुजरना ही होगा।
यह भी कहा जाता रहा है कि जाति आधारित जनगणना कोई जादू की छड़ी नहीं है। इससे केवल आंकड़े मिलेंगे, लेकिन अगर उन पर ठोस नीति के तहत अमल नहीं हुआ, तो इसका कोई असर नहीं होगा।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जातिगत असमानता एक गंभीर मुद्दा है। जातिगत जनगणना इस असमानता को मापने का एक तरीका हो सकता है, जिससे यह तय किया जा सके कि किसे कितनी और किस तरह की सहायता की जरूरत है। हालांकि, इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि यह प्रक्रिया पारदर्शी और उद्देश्यपूर्ण हो, ना कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए।
नोट- समाचार पत्र इस सामग्री का उपयोग कर सकते हैं। बस उसके साथ अंत में साभार मध्‍यमत जरूर लिखें।

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