अजय बोकिल
बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले वहशियों को फांसी की सजा देने का अध्यादेश लागू करने के राजनीतिक गुणा-भाग को अलग रखें तो जमीनी सवाल यह है कि नए कानून के तहत वास्तव में कितने बलात्कारी फांसी के फंदे तक पहुंच पाएंगे और इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे? क्या आरोपियों को जल्द से जल्द सजा और पीडि़ता को न्याय मिल पाएगा? क्या समाज में इस घृणित अपराध से बचने की सुबुद्धि जागेगी या फिर वह और जघन्य तरीके घटित होने लगेगा?
मोदी सरकार द्वारा आनन-फानन में लाया गया यह अध्यादेश राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू हो गया है। हालांकि यह पॉक्सो एक्ट पुराना है। कठुआ कांड के बाद इसमें ताजा संशोधन यह है कि अब 12 साल तक की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वालों को सजा ए मौत मिलेगी। साथ ही 16 साल तक की किशोरियों के साथ बलात्कार करने वालों की सजा भी 10 से बढ़ाकर 20 साल कर दी गई है।
मूल रूप से यह एक्ट दिल्ली में निर्भया कांड के बाद यूपीए सरकार ने लागू किया था। पॉक्सो यानी प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्राम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट 2012 (लैंगिक उत्पीड़न से बाल संरक्षण का अधिनियम 2012) । इस एक्ट के तहत नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराध और छेड़छाड़ के मामलों में कार्रवाई की जाती है। यह एक्ट बच्चों को सेक्सुअल हरासमेंट, सेक्सुअल असॉल्ट और पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर अपराधों से सुरक्षा प्रदान करता है।
इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध की अलग सजा तय की गई है। जिसका कड़ाई से पालन भी सुनिश्चित किया गया है। इस संशोधन के पीछे कठुआ कांड के अलावा सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका भी है, जो वकील आलोक श्रीवास्तव ने दायर की थी। वजह दिल्ली में 28 साल के एक युवक द्वारा अपनी ही आठ माह की कजिन से किया गया क्रूर बलात्कार था। पीडि़ता के पिता बेहद गरीब थे। बेटी का इलाज कराने के लिए तक उनके पास पैसे नहीं थे। वकील की मांग थी कि ऐसे मामले में दोषी को मौत की सजा दी जाए।
मोदी सरकार ने एक्ट में जो संशोधन किया, वह इस हिसाब से ठीक ही है कि सजा-ए-मौत से बड़ा कोई दंड मानवीय न्याय प्रणाली में नहीं है। नए एक्ट में ऐसे अपराध तेजी से निपटाने का प्रावधान भी है। यानी सरकार की मंशा पर कोई सवाल नहीं है। लेकिन इसके व्यावहारिक पक्ष पर जाएं तो हालात निराशाजनक और आत्मचिंतन के हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता और बाल अधिकार एक्टिविस्ट कैलाश सत्यार्थी की रिपोर्ट ‘द चिल्ड्रन कैननॉट वेट’ में बाल संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) 2012 के अंतर्गत भारत में बच्चियों के विरुद्ध यौन अपराधों के लम्बित मामलों की स्थिति पर चर्चा की गई है।
इसके मुताबिक वर्ष 2015-16 में सुनवाई अधीन मामलों में से केवल 10 प्रतिशत ही निपटाए जा सके थे। यदि बाल अपराध मुकदमे 2016 की दर से ही निपटाए जाएं तो अंजाम तक पहुंचने में 20 साल लगेंगे। मुकदमे निपटाने की रफ्तार भी राज्यों में अलग-अलग है। अरुणाचल जैसे राज्य में तो ऐसे मामलों के निपटारे के लिए सौ साल तक भी लग सकते हैं। तब तक पीडि़ता शायद ही जीवित रहे।
नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो फरवरी 2018 तक देश में पॉक्सो एक्ट के तहत देश में कुल 90 हजार 205 मामले पेंडिंग पड़े थे। देश में भर में बाल अपराध के मामले में मध्यप्रदेश तीसरे नंबर पर है। इसका अर्थ यह नहीं कि पॉक्सो एक्ट के तहत मामले तेजी से निपटाने के मामले में सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। पिछले दिनों सरकार ने अनेक स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर, स्पेशल जुवेनाइल पुलिस यूनिट्स की नियुक्तियां की हैं। साथ ही देश के 681 जिलों में 597 विशेष बाल न्यायालय खोले गए हैं।
लेकिन हकीकत यह है कि पर्याप्त कानूनों के होते हुए भी उसे लागू कराने वाली एजेंसियों का ढर्रा वही है। जांच एजेंसियां सरकार के इशारों पर काम करती हैं। इसीलिए उन्नाव में बड़ी मुश्किल से सत्तारूढ़ दल के आरोपी विधायक की गिरफ्तारी हो पाती है। कठुआ में बलात्कार को धार्मिक रंग दिया जाता है। ऐसे में कानून कितना ही कठोर क्यों न हो, उसका व्यावहारिक लाभ क्या है?
कोशिश यहां तक होती है कि फांसी की सजा तो दूर पुलिस कार्रवाई तक न हो सके। यानी सवाल नीयत का ज्यादा है। और यही पक्ष सबसे कमजोर है। हमारे क्षुद्र स्वार्थ बलात्कार की शिकार मासूम बेटियों की चीखों से ज्यादा बड़े हैं। विडंबना यह है कि जितने ज्यादा और कठोर कानून बन रहे हैं, अपराध उसी अनुपात में बढ़ रहे हैं। इसका सीधा मतलब है कि फांसी का भी किसी को खास भय नहीं है।
कठोरतम दंड से भी ज्यादा बड़ी समस्या आज समाज का निरंतर हो रहा नैतिक पतन है। नीति और अनीति की विभाजक रेखा को मिटाने की हर संभव कोशिश है। पाप और पाखंड को किसी भी प्रकार से प्रतिष्ठित करने का कुत्सित प्रयास है। हमारी निर्मम जीवन शैली, संवेदनाओं के सूखते स्रोत, स्वार्थ संधान, सामाजिक मर्यादाओं का बेखौफ कत्ल, नैतिकता को मूर्खता सिद्ध करना और जो मर्जी आए, वह बेखटके करने की कुप्रवृत्ति ने संवैधानिक तंत्र से ज्यादा सामाजिक तंत्र को हिला कर रख दिया है। कथनी और करनी में इतना बेशर्म फर्क भारत के इतिहास में शायद कभी नहीं रहा होगा।
सुनने में फांसी की सजा कलेजे को ठंडी करने वाली जरूर लगती है, लेकिन वो कितनों को मिलेगी, कब मिलेगी, यही यक्ष प्रश्न है। दुर्भाग्य से मासूम बेटियों से बलात्कार करने वाले ज्यादातर उनके अपने रिश्तेदार और परिचित ही निकलते हैं। ऐसे में कितने लोग हिम्मत से आगे आकर घर के ही किसी नराधम को फांसी के तख्त पर झूलता देखना चाहेंगे? दरअसल बच्चियों से बलात्कार कर उनकी हत्या कर देना पिशाचों और भेडि़यों का काम है। यह मनुष्यता की न्यूनतम आचार संहिता के परे और संवेदनाशून्य होने की जड़ मानसिक अवस्था है।
ध्यान रहे कि समाज कानून इसलिए बनाता है कि न्याय और नीतिमत्ता की गाड़ी ट्रैक पर रहे। लेकिन कानून समाज को नहीं बना सकता। जब समाज खुद ही गिरने को लालायित हो तो कड़े कानून उसे ऊपर कैसे उठा सकते हैं? असली सवाल यही है।
(सुबह सवेरे से साभार)