क्या हम सैनिकों की सांसों के लिए यह भी नहीं कर सकते?

भारत सरकार द्वारा देश के विख्‍यात पर्यटन केंद्रों को रखरखाव के लिहाज से गोद दिए जाने की ‘धरोहर मित्र योजना’ को लेकर बवाल मचा हुआ है। खबरें हैं कि सरकार ने दिल्‍ली के लाल किले, आगरा के ताजमहल और कोणार्क के सूर्यम‍ंदिर सहित देश के विश्‍वप्रसिद्ध 93 पर्यटन स्‍थलों को इस स्‍कीम के तहत गोद देने के लिए चुना है।

सरकार के इस फैसले की चौतरफा आलोचना हो रही है। इसे देश की ऐतिहासिक और पुरातात्विक धरोहरों को कॉरपोरेट के हाथों में दे दिए जाने की साजिश बताया जा रहा है। देश के संस्‍कृति और पर्यटन मंत्री डॉ. महेश शर्मा की ओर से सरकार की मंशा को लेकर दी गई सफाई के बावजूद विरोध जारी है।

‘धरोहर मित्र’ योजना और उसके क्रियान्‍वयन पर विरोध की बात हम बाद में करेंगे। पहले जरा उस मसले पर बात कर लें जिसने इस खबर से भी कहीं अधिक गहराई से मेरा ध्‍यान आकर्षित किया। वैसे तो यह खबर लालकिला ‘डालमिया भारत’ कंपनी को गोद दिए जाने से दो दिन पहले की है, लेकिन दुर्भाग्‍य से उस ओर किसी का इतना ध्‍यान नहीं गया। वह रूटीन की खबर बनकर खो गई।

खबर यह थी कि पुणे के एक दंपती ने सियाचीन में तैनात जवानों को होने वाली ऑक्‍सीजन की कमी संबंधी परेशानी को देखते हुए वहां ऑक्सीजन जेनेरेशन प्लांट लगाने के लिए अपनी सारी ज्वेलरी बेच दी है। इस दंपती का कहना है कि वहां ऑक्सीजन का लेवल बहुत कम है जिस कारण यह प्लांट लगना बहुत आवश्यक है।

सुमेधा और योगेश चिताडे ने इसके लिए अपनी ज्वेलरी बेचकर करीब सवा लाख रुपये जुटाए हैं। सुमेधा के अनुसार वे सेना के कल्याण के लिए 1999 से काम कर रही हैं। इसी सिलसिले में एक बार जब वे सियाचीन बेस कैंप में थीं तो उन्हें पता चला कि वहां का मौसम बेहद जानलेवा है। सर्दियों में वहां का तापमान शून्य से 55 डिग्री नीचे पहुंच जाता है। जबकि गर्मियों में भी यह शून्य से 35 डिग्री नीचे रहता है।

सुमेधा के पति योगेश वायुसेना से समयपूर्व रिटायरमेंट ले चुके हैं। उन्‍होंने बताया कि अभी सैनिकों के लिए चंडीगढ़ से ऑक्सीजन सिलेंडर्स को 22,000 फीट की ऊंचाई तक पहुंचाया जाता है। ऐसे भी अवसर आते हैं जब कोई हेलीकॉप्टर नहीं होता जो वहां तक सिलेंडर पहुंचा सके।

ऑक्‍सीजन प्लांट वहीं लग जाता है तो परिवहन लागत भी बचेगी और सैनिकों की मदद भी हो पाएगी। खबरों के मुताबिक इस तरह के एक प्‍लांट की लागत करीब सवा करोड़ रुपए आती है। पावर प्लांट की सहायता से ऑक्सीजन सिलेंडर्स को भरा जाता है जिसका लाभ करीब 9,000 सैनिकों को मिलता है।

दरअसल सियाचीन दुनिया का सबसे ऊंचा सैन्‍य मोर्चा है वहां ऑक्सीजन की इतनी कमी है कि कई बार सोते हुए भी सैनिकों की जान चली जाती है। खासतौर से ठंड के दिनों में तो हालात और भी जानलेवा होते हैं।

उन दुर्गम बर्फीले इलाकों में हमारे सैनिक कई फुट बर्फ की परत में कमर में रस्सी बांधकर चलते हैं ताकि अगर कोई बर्फ में धंस जाए तो उसे बचाया जा सके। सैनिकों को 20-22 दिनों तक ऐसे ही चलना पड़ता है। इस दौरान ऑक्‍सीजन की कमी उनकी सबसे बड़ी परेशानी है।

निश्चित रूप से चिताड़े दंपति का यह योगदान अनुकरणीय है। उन्‍होंने जिस तरह की पहल की है उससे अन्‍य लोगों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। लेकिन यहां मेरे कुछ दूसरे सवाल भी हैं जो इस पूरे मामले की पृष्‍ठभूमि से जुड़े हैं और सेना, सीमा और सुरक्षा से संबंधित मसलों को लेकर सरकारों की भूमिका पर उंगली उठाते हैं।

पहला सवाल तो यही है कि क्‍या हमारी सरकार, रक्षा मंत्रालय और सेना का पूरा तंत्र इस बात से अनभिज्ञ है कि सियाचीन मोर्चे पर हमारे सैनिकों को किस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है? आए दिन फालतू के बयानों में उलझने वाले हमारे नेताओं को क्‍या कभी इस ओर देखने की फुर्सत मिल पाएगी?

यह बहुत गंभीर और चिंता करने वाली बात है कि सीमा पर देश की हिफाजत में लगे सैनिकों के लिए वहां सांस लेने लायक ऑक्‍सीजन भी पर्याप्‍त मात्रा में और समय पर नहीं पहुंच पाती। यह सूचना रोंगटे खड़े कर देने वाली है कि वहां ऑक्‍सीजन सिलेंडर समय पर न पहुंचने के कारण कई बार सैनिक जानलेवा हादसों का शिकार हो जाते हैं।

यदि ये खबरें सही हैं तो इतनी छोटी सी बात के लिए सैनिकों का मर जाना पूरे देश के लिए शर्म की बात है। जो खबरें सामने आई हैं वे कहती हैं कि सियाचीन इलाके में ऑक्‍सीजन प्‍लांट लगाने में सवा करोड़ रुपए से भी कम का खर्च आता है। यदि ऐसा ही है तो सरकारों और सैन्‍य प्रशासन को डूब मरना चाहिए। क्‍या हम सैनिकों की जान की रक्षा के लिए इतनी सी राशि भी मुहैया कराने की स्थिति में नहीं हैं?

चिताड़े दंपति ने जो किया वह तो अनुकरणीय है ही, लेकिन सवा करोड़ के प्‍लांट के लिए उनके द्वारा जुटाई गई सवा लाख रुपए की राशि नाकाफी है। हां उनका जज्‍बा जरूर अरबों खरबों रुपये वाला है उसको सलाम, पर क्‍या 24 लाख करोड़ रुपए के सालाना बजट वाली हमारी सरकार सैनिकों के लिए इतना छोटा सा काम भी नहीं कर सकती?

कहने को राजनीतिक दल अपनी चुनावी रैलियों में और छोटे मोटे कार्यक्रमों में ही करोड़ों रुपए फूंक देते हैं, लेकिन हमारे सैनिकों को मात्र सवा करोड़ के ऑक्‍सीजन प्‍लांट के लिए भी तरसना पड़ता है। उसके लिए भी एक दंपति अपने सारे गहने बेचकर राशि जुटाने की पहल करता है।

हम लालकिले, ताजमहल और कोणार्क के सूर्य मंदिर जैसी धरोहरों का रखरखाव नहीं कर सकते, हम अपने सैनिकों के लिए ऑक्‍सीजन प्‍लांट नहीं लगवा सकते तो फिर सरकार का बजट है किस बात के लिए? देश की तरक्‍की और विकास की चमकीली तसवीरें आए दिन पेश की जाती हैं, आर्थिक हालत मजबूत होने के लगातार दावे किए जाते हैं। जब देश में चारों ओर से इतना पैसा आ रहा है, लोगों को चूसकर खजाना लगातार भरा जा रहा है तो वह पैसा जा कहां रहा है? सारा धन कहां और किस बात पर खर्च हो रहा है?

 

 

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