कसम से! ऐसी ‘दयालु’ जनता दुनिया में शायद ही मिले

मध्‍यप्रदेश के किसानों के साथ कुदरत पिछले कई सालों से बरबादी का यह खेल खेल रही है। रबी की फसल जब खेत में खड़ी होती है और बंपर फसल की उम्‍मीद में किसान न जाने कौन कौन से सपने पाल रहा होता है, तभी खेत भारी बारिश या ओलों की मार से तबाह हो जाते हैं। और फसल की तबाही के साथ ही किसानों के सपने भी चूर चूर होकर बिखर जाते हैं।

रविवार को मौसम ने फिर वैसी ही करवट बदली और कई जिलों के किसानों की किस्‍मत को तबाह करके चला गया। प्रदेश के करीब दो दर्जन जिलों पर पड़ी मौसम की इस मार से गेहूं और चने की खड़ी फसल पर तो कहर बरसा ही, आसमानी बिजली गिरने से छह लोगों की मौत भी हो गई। मौसम विभाग ने अभी एक दो दिन मौसम के तेवर ऐसे ही रहने की आशंका जताई है।

रविवार को हुई बारिश और ओलाबारी के बाद कृषि विभाग ने सभी जिलों से रिपोर्ट बुलवाई है। कलेक्‍टरों से फसलों की तबाही के साथ जान माल के नुकसान का ब्‍योरा भी भेजने को कहा गया है। मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने किसानों को भरोसा दिलाया है कि चिंता करने की जरूरत नहीं है, उनके नुकसान की भरपाई की जाएगी।

मौसम जब जब भी इस तरह किसानों से बदला निकालता है, तब तब सरकार और प्रशासन का काम बढ़ जाता है। चूंकि यह चुनाव का साल भी है, इसलिए जिलों के अधिकारियों पर दबाव और ज्‍यादा है, क्‍योंकि सरकार किसी भी तरह के असंतोष का जोखिम मोल लेना नहीं चाहती। यही वजह है कि जिलों के छोटे मोटे अफसरों से लेकर कलेक्‍टर तक ‘हाइपर एक्टिव’ नजर आ रहे हैं।

ऐसे ही माहौल में एक कलेक्‍टर की सक्रियता सोमवार को फेसबुक पर छाई रही। दरअसल एबीपी न्‍यूज के संवाददाता ब्रजेश राजपूत ने रविवार को अपनी फेसबुक वॉल पर मुख्‍यमंत्री के गृह जिले सीहोर के कलेक्‍टर तरुण कुमार पिथोड़े का एक फोटो पोस्‍ट किया। फोटो में कलेक्‍टर पिथोड़े साधारण वेशभूषा में किसी व्‍यक्ति के साथ मोटरसायकल पर जा रहे हैं।

ब्रजेश ने इस फोटो के साथ लिखा- ‘’ऐसे दृश्य इन दिनों कम दिखते हैं इसलिये इस फोटो को शेयर कर रहा हूं। साधारण सी मोटर साइकिल पर पीछे बैठे ये दुबले पतले शख्स तरुण कुमार पिथौडे हैं जो भोपाल के पास सीहोर के कलेक्टर हैं। भोपाल और आसपास आज अचानक मौसम ने करवट बदली और तेज हवा बारिश के साथ ओले गिरे, जब तक हम लोग फेसबुक और ट्विटर पर ओलावृष्टि की फोटो डाल रहे थे, तब तक ये कलेक्टर महोदय जिला मुख्यालय छोड निकल पड़े खड़ी फसल पर ओलों की मार देखने। नसरुल्लागंज के पगारी गांव में जब एक किसान ने अपने खेत की चौपट फसल दिखानी चाही तो उसी के साथ उसी की सवारी पर सवार हो निकल पड़े कलेक्टर साहब।‘’

ब्रजेश ने आगे लिखा- ‘’इन दिनों जब हमारे एमपी में कलेक्टर सवाल पूछने पर गांव वालों को तमाचा मारने की नसीहत देते हों और जेल भेज देते हों उस प्रदेश में ऐसे अधिकारी देख अच्छा लगता है.. उम्मीद है आप भी ऐसे ही प्रशासनिक अधिकारी को पसंद करेंगे।‘’

ब्रजेश की इस पोस्‍ट को, मेरे इसके बारे में जिक्र करने तक, करीब 1700 लोग लाइक कर चुके थे और 200 से अधिक लोगों ने इसे शेयर किया था। करीब 300 लोग इस पर कमेंट कर चुके थे। और लाइक करने, शेयर करने और कमेंट करने का यह सिलसिला जारी था।

अब मैं जो बात करना चाहता हूं वह थोड़ी अलग है। ब्रजेश राजपूत की पोस्‍ट और उस पर आई प्रतिक्रियाओं में 99 प्रतिशत लोगों ने कलेक्‍टर के फोटो को देखकर इस ‘महान’ कार्य के लिए उनकी सराहना करते हुए उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े हैं। ज्‍यादातर लोगों ने उन्‍हें ‘सलाम’ या ‘सैल्‍यूट’ भेजते हुए दुआ की है कि काश हर जिले को एक पिथोड़े साहब मिल जाएं…

मैं व्‍यक्तिगत रूप से तरुण कुमार पिथोड़े को नहीं जानता, न ही मैं उनके उस कदम का विरोध करने जा रहा हूं जो फेसबुक की पोस्‍ट दिखा रही है। उनकी सक्रियता की मैं भी सराहना करता हूं। लेकिन मेरा सवाल दूसरा है और सवाल यह है कि क्‍या अब प्रशासन से हमारी इतनी ही अपेक्षा रह गई है कि उसका कोई अफसर हमारे दुखदर्द देखने के लिए निकल भर पड़े? क्‍या यह महान लोकतंत्र इतने भर में ही अपने आपको धन्‍य मान ले रहा है कि आजादी के 70 सालों बाद चलो कम से कम इतना तो हुआ कि कोई अफसर मोटरसाइकल पर बैठकर हमारी तबाही देखने के लिए आया…

क्‍या हमारी अपेक्षाएं सिर्फ इतनी ही बची हैं? अभी यह भी पता नहीं कि उस अफसर ने जाकर यदि तबाही का जायजा लिया तो उसके बाद संबंधित किसान को किस तरह की राहत या मदद मिली। हमारा तंत्र जिस ढंग से काम करता है, उसके चलते हो सकता है कि जो किसान अपना बरबाद खेत दिखाने ले गया था उसे मुआवजा मिलने में सालों लग जाएं और उसके बाद भी अपने खून पसीने की बरबादी की भरपाई के रूप में पांच, दस या बीस रुपए के मुआवजे का चैक ही उसके हाथ लगे।

जैसाकि मैंने कहा, मैं न ब्रजेश राजपूत की भावनाओं का अनादर कर रहा हूं और न ही तरुण कुमार पिथोड़े की संवेदनशीलता का। लेकिन क्‍या यह समय खुद अपनी मानसिकता बदलने का नहीं है? हम जरा जरा सी बात पर ‘धन्‍य’ और ‘कृतार्थ’ होने वाली कौम क्‍यों बनते जा रहे हैं? वो आते हैं, वादे करके चले जाते हैं और हम उनके वादे पर ही निसार होकर उन पर अपना सबकुछ लुटा देते हैं। जबकि हर बार वही कहानी दोहराई जाती है जिसमें धोखे के अलावा कुछ नहीं मिलता।

हम क्‍यों भूल जाते हैं कि सरकार का, अफसरों का काम ही है किसी भी मुसीबत के समय जनता के साथ खड़े होना। इस काम के लिए ही वे सत्‍ता या प्रशासन में बैठे हैं। यदि हमारी अपेक्षा इसी में धन्‍य हो जाने की है कि कोई अफसर पैदल चलकर या सायकल पर आकर हमें देख गया या किसी नेता ने हमारी झोपड़ी में आकर, जमीन पर बैठकर हमारे यहां दो निवाले खा लिए, तो यकीन जानिए आपकी औकात हमेशा ही ऐसे टुकड़ों तक सीमित रहेगी।

यह आप पर निर्भर है कि आप ऐसे टुकड़ों पर पलना चाहते हैं या फिर आपकी उम्‍मीद उससे कुछ ज्‍यादा की है…

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