इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से सोमवार को दिया गया एक आदेश पूरे देश में दिन भर चर्चा का विषय रहा। कोर्ट ने योगी सरकार को आदेश दिया कि उसने सार्वजनिक स्थानों पर कथित दंगाइयों के फोटो वाले जो पोस्टर लगाए हैं वे तत्काल हटाए जाएं। कोर्ट ने सरकार की इस कार्रवाई को ‘निजता के अधिकार’ का उल्लंघन बताया है।
सरकार ने इन पोस्टर्स में जिन लोगों के फोटो सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किए थे ये वे लोग थे जिन्हें सरकार ने कथित रूप से नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान तोड़-फोड़ करने का आरोपित माना था। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा की खंडपीठ ने कहा कि- “बिना कानूनी उपबंध के नुकसान वसूली के लिए पोस्टर में फोटो लगाना अवैध है। यह निजता के अधिकार का हनन है। बिना कानूनी प्रक्रिया अपनाए किसी की फोटो सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शित नही किए जा सकते।”
कोर्ट में सरकार की ओर से महाधिवक्ता राघवेंद्र सिंह ने कहा कि “सड़क किनारे उन लोगों के पोस्टर व होर्डिग लगाए गए हैं, जिन्होंने कानून का उल्लंघन किया है। इन लोगों ने सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया है। पूरी प्रक्रिया कानून के मुताबिक अपनाई गई है। उन्हें अदालत से नोटिस जारी किया गया था। अदालत में उपस्थित न होने पर पोस्टर लगाने पड़े।”
लेकिन हाईकोर्ट ने इस दलील को नामंजूर करते हुए लखनऊ के डीएम और कमिश्नर को आदेश दिया कि इस तरह के पोस्टर, बैनर व फोटो आदि तत्काल हटाए जाएं। अदालत ने अपने आदेश के अनुपालन को लेकर शासन/प्रशासन से 16 मार्च को क्रियान्वयन रिपोर्ट के साथ हलफनामा दाखिल करने को भी कहा है।
कोर्ट के इस आदेश को योगी सरकार के लिए बड़ा झटका बताया जा रहा है। सीएए विरोध के दौरान हुए हिंसक प्रदर्शनों पर उत्तरप्रदेश सरकार ने सख्ती बरतते हुए दंगाइयों/उपद्रवियों की जिम्मेदारी तय करने का कदम उठाया था। सरकार ने कहा था कि जो लोग सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के दोषी हैं उस नुकसान की वसूली भी उन्हीं से की जाएगी। पहले प्रशासन ने ऐसे लोगों को चिह्नित किया और बाद में नोटिस जारी कर तय राशि जमा करने को कहा गया लेकिन लोग नहीं आए। इसके बाद प्रशासन ने उस सूची में शामिल सारे नामों को फोटो के साथ राजधानी के चौराहों पर पोस्टर बनवा कर टंगवा दिया।
इस पूरे मामले में इस बात की गुंजाइश होने से इनकार नहीं किया जा सकता कि दंगाइयों की सूची तैयार करने में राजनीति का एंगल भी रहा हो लेकिन मूल सवाल यह है कि जब भी ऐसी घटनाएं हों तो सरकार और प्रशासन आखिर क्या करे? क्या दंगा करने वालों और सार्वजनिक संपत्ति को आग लगाने और उसकी तोड़फोड़ करने वालों को यूं ही छुट्टा छोड़ दिया जाए? कोर्ट ने ऐसे लोगों के पोस्टर लगाए जाने को नागरिकों की ‘निजता के अधिकार’ का उल्लंघन माना है। राज्य सरकार को स्पष्ट करना होगा कि उसने ऐसा करते समय कानूनी प्रावधानों का पूरी तरह पालन किया या नहीं, लेकिन अब समय आ गया है जब अधिकारों के साथ साथ कर्तव्यों पर भी उतनी ही गंभीरता और सख्ती से चर्चा हो।
सीएए के विरोध के नाम पर देश ने राजधानी दिल्ली से लेकर कई शहरों में हिंसा का जो तांडव देखा है उसे यूं ही अभिव्यक्ति की आजादी या निजता के अधिकार के दायरे में समेटकर नहीं देखा जा सकता। माना कि लोगों को धरना देने, प्रदर्शन करने और सरकार के फैसलों का विरोध करने का अधिकार हमारा संविधान देता है लेकिन संविधान में यह कहां लिखा है कि ऐसा करते समय यदि विरोध प्रदर्शन करने वाले सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाएं या हिंसा करें तो भी उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। यदि आज हमने इस मामले में उचित कदम नहीं उठाया तो भविष्य में ऐसी घटनाएं और ऐसे तमाम आदेश/निर्देश हिंसा से बचाव का एक ऐसा आवरण बन जाएंगे जिनसे समाज को होने वाले नुकसान को कभी नहीं रोका जा सकेगा। कोर्ट को यह भी कभी न कभी तो तय करना ही पड़ेगा कि सार्वजनिक हिंसा से होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी किसकी मानी जाए?