उपचुनाव- मुरैना सीट
डॉ. अजय खेमरिया
बसपा के टिकट वितरण से एक बात बिलकुल स्पष्ट हो गई है कि 27 उपचुनाव में लड़ाई केवल नुकसानी कोण से नहीं लड़ी जायेगी। इसी मंच पर हमने पहले भी विस्तृत आकलन कर बताया था कि बसपा को लेकर यह धारणा कि “वह कांग्रेस को नुकसान पहुंचाती है” ठीक नहीं है। तथ्य यह है कि ग्वालियर चंबल में वह बीजेपी को भी बराबर का नुकसान करती है। अंचल की जिन सीटों पर बसपा ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं फिलहाल वे बीजेपी के लिए ज्यादा सिरदर्द देने वाले हैं।
मुरैना में रामप्रकाश राजौरिया ने बीजेपी के गणित को फिलहाल गड़बड़ा ही दिया है। राजौरिया 2013 में बीजेपी के रुस्तमसिंह को बस हराते हराते ही रह गए थे। ऐन वक्त पर अगर कांग्रेस रणनीतिक तरीके से मैदान से न हटी होती तो राजौरिया 2013 में ही मुरैना से एमएलए होते। उनके परिस्थितिजन्य प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मुरैना नगर निगम क्षेत्र के लगभग 160 बूथों पर वह रुस्तम सिंह से आगे थे। रुस्तम सिंह शहर से मात्र 9500 वोट ही हासिल कर पाए थे। कुल 41 फीसदी वोट पाकर राजौरिया महज 1704 वोट से ही पीछे रह गए थे।
इस बीच राजौरिया के रास्ते अगर 2018 में उन्हीं के बाहुबली समधी बलबीर डंडोतिया न आये होते तो मुरैना से कहानी कुछ और भी हो सकती थी। आप, बीजेपी से होते हुए रामप्रकाश अब फिर से हाथी की सवारी करने जा रहे हैं। बीजेपी से रघुराज कंषाना की उम्मीदवारी तय है और संभव है कांग्रेस से भी प्रबल मावई या राकेश मावई उम्मीदवार हों। जाहिर है जातिगत पेंच भी अब मुरैना में फंस गया है। कांग्रेस के गुर्जर नेता किसी सूरत में अपना दावा छोड़ना नही चाहेंगे क्योंकि 1993 के बाद से यहां कोई गुर्जर पहली बार 2018 में ही जीता था जो अब बीजेपी से उम्मीदवार है।
बीजेपी के साथ कांग्रेस के लिए भी बसपा ने मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। बसपा के टिकट पर परशुराम मुद्गल यहां से चुनाव जीत चुके हैं इसलिये उस चुनावी समीकरण को आप खारिज नहीं कर सकते हैं जो बसपा की जीत सुनिश्चित करता हो। हालांकि सवाल राजौरिया के बसपाई कैडर के गड़बड़ाने का भी है, क्योंकि वे ‘आप’ से 2018 में लड़ गए थे फिर भाजपा में भी पोलिटिकल टूरिस्ट की तरह घूम लिए।
लेकिन मुरैना सीट पर बसपा के प्रतिबद्ध वोटर को भी आप नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। क्योंकि 1998 से लगातार बसपा का वोट बैंक तेजी से बढ़ा है। 2008 के चुनाव में 26 फीसदी वोट लेकर बसपा के परशुराम मुद्गल रुस्तम सिंह को पटखनी दे चुके हैं। सवाल 2020 में 2013 के दोहराने का है, उस चुनाव में उन्हें बसपा वोट बैंक के अलावा बीजेपी में रुस्तम विरोधी लॉबी औऱ नॉन गुर्जर अधिकतर जातियों का समर्थन मिला था जिनमें वैश्य वर्ग भी शामिल था।
इस चुनाव में अगर वह अपनी स्वीकार्यता को 2013 की तरह कायम रख पाते हैं तो दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए मुरैना कठिन लड़ाई साबित होने जा रहा है। 2018 में बसपा का बड़ा वोट कांग्रेस की तरफ डायवर्ट हो गया था। 2013 के 41 फीसदी के उलट बसपा पिछले चुनाव में 20 फीसदी पर सिमट गई थी। खास बात यह है कि यह 21 फीसदी का स्विंग सीधे कांग्रेस के खाते में गया था। गुर्जर कैंडिडेट होने के बावजूद दलित कोर वोटर ने 2018 में कांग्रेस का साथ दिया था। अगर यही ट्रेंड 2020 में भी रहा तो मामला सीधे बीजेपी के लिए खतरे का कारण बनेगा।
फिलहाल मुरैना में कांग्रेस के लिए कैंडिडेट का चयन ही बड़ी चुनौती है, क्योंकि जिलाध्यक्ष राकेश मावई के अलावा प्रबल मावई हर कीमत पर लड़ने के लिए आमादा हैं। चूंकि बीजेपी से रघुराज कंषाना का लड़ना तय है, ऐसे में दो गुर्जरों के बीच लड़ाई बसपा को फायदा न पहुँचा दे! एक नाम डॉ. राकेश माहेश्वरी का भी बहुत ही संजीदा है। अगर कांग्रेस ने नॉन गुर्जर कार्ड खेला तो वह एक मजबूत प्रत्याशी साबित हो सकते हैं, लेकिन दुविधा मावई बन्धुओं की सामने होगी और उस स्थिति में रघुराज अकेले गुर्जर रह जायेंगे।
मुरैना में बसपा के उम्मीदवार ने फिलहाल गणित खराब कर दिया है। रघुराज कंषाना के पास एक विधायक के रूप में कोई खास उपलब्धि भी नहीं है, लेकिन उनका लोकव्यवहार भी किसी के लिए शिकायत का सबब नहीं रहा है। बावजूद इसके यह उपचुनाव उनके लिए आज तो 2018 की तरह कतई आसान नजर नहीं आ रहा है। मुरैना में सबसे बड़ा इशू जातिगत समीकरण ही रहता है, इसलिए इंतजार कीजिये कांग्रेस टिकट की घोषणा का।
(अगले चरण में पढि़ये मुरैना जिले की जौरा सीट का विश्लेषण।)