‘ब्लडमून’ और भारत की ग्रहदशा

राकेश अचल

साल 2021 का पहला चन्द्रग्रहण भारत के लोग नहीं देख सके,  कोई बात नहीं उनकी तरफ से अमेरिका में मैंने आज ये चंद्रग्रहण देख लिया। खगोलशास्त्रियों को ये ग्रहण बड़ा खूबसूरत लगता है। मैं चंद्रग्रहण में ही यह लेख लिख रहा हूँ। हम भारत वालों को ग्रहण अच्छे नहीं लगते। हम भावुक लोग हैं इसलिए किसी को मुसीबत में फंसा देखकर द्रवित हो जाते हैं। इंसान तो छोड़िये हमें चन्द्रमा और सूरज का ग्रहण तक दुखी कर देता है। जब तक ग्रहण से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती हमारे यहां आज भी ऐसी पीढ़ी है, जो अन्न-जल ग्रहण नहीं करती।

अब जमाना बदल गया है। अब हमें कोई ग्रहण परेशान नहीं करता, फिर चाहे ग्रहण सूरज-चाँद को लगे या इंसानों को। दुनिया ने बहुत से ग्रहण देखे हैं लेकिन पिछले साल से जो ग्रहण दुनिया को लगा है उससे मोक्ष का रास्ता साल भर बाद भी नहीं दिखाई दे रहा। पिछले साल इस ग्रहण का सूतक लगा था। इंसानियत को लगे इस ग्रहण का नाम कोविड-19 है। दुनिया परेशान है,  दान, पुण्य, हवन, दवा, दुआ सब करके देख लिए लेकिन इस ग्रहण की लहरें आती-जाती रहती हैं। इस विषाणु से मोक्ष अब एक सपना सा लगने लगा है।

आपने यदि जीवन में कुछ ग्रहण देखे हों तो आपको पता होगा कि सामन्य ग्रहण के अलावा ‘ब्लड’ और ‘सुपर’ ग्रहण भी होते हैं। ये ग्रहण कभी बड़े खूबसूरत लगते हैं तो कभी बड़े ही भयावह। सूरज को ढँक लें तो धरती पर अन्धेरा छा जाता है और चन्द्रमा को ढँक लें तो चांदनी नदारद हो जाती है। इंसानियत को लगे इस ग्रहण से दुनिया को और कम से कम भारत को तो दिन में ही तारे नजर आ गए हैं। सरकार की पूरी और कथित रूप से ईमानदार कोशिशों के बावजूद देश के पास न भरपूर टीका है और न इंजेक्शन, दवाओं की तो बात जाने ही दीजिये।

कोविड-19 नाम के इस ग्रहण से मोक्ष के लिए तरस रहे भारत को अब कोढ़ में खाज हो गयी है। अब कोविड के मरीजों को काली, सफेद और पीली फंगस का भी शिकार होना पड़ रहा है। जैसे वायरस को हम विषाणु कहते हैं, वैसे ही फंगस को हम फफूंद कहते हैं। फफूंद एक नकारात्मक संज्ञा है। फफूंद का लगना किसी चीज का खराब हो जाना है। अब आदमी को फफूंद लग गयी है तो आप समझ लीजिये कि इंसानियत का क्या होगा? भारत में आम आदमी की दशा उस पीड़ित जैसी हो गयी है जिसने पहले से नशा कर रखा हो और ऊपर से कोई बिच्छू डंक मार दे।

दुनिया के वैज्ञानिक भले ही कोविड-19 की पुख्ता दवा न खोज पाए हों लेकिन उन्होंने चंद्रग्रहण के नए-नए नाम खोजने में महारत हासिल कर ली है। आज के चंद्रग्रहण को वैज्ञानिक ‘फ्लावर मून’ कह रहे हैं, उन्हें चन्द्रमा एक पुष्प की तरह दिखाई दे रहा है। देखने का अपना-अपना नजरिया होता है। हमारे प्रधानमंत्री ने कोविड-19 नाम के ग्रहण को बहुरूपिया और धूर्त बताया है। हम लोगों का आत्मविश्वास दुनिया में सबसे ज्यादा है। हमारे पास भले ही दवा-दारू और टीके न हों लेकिन आत्मविश्वास है और हम पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी जनता को आगाह कर देते हैं कि वो बहुरूपियों और धूर्त विषाणुओं से सावधान रहे। हमने ये चेतावनी लोकतंत्र को अधिनायकत्व के ग्रहण से बचाने के लिए भी दी थी लेकिन किसी ने सुना ही नहीं।

हमारा सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि हम सूरज, चन्द्रमा और सौर्यमंडल के बारे में दुनिया से ज्यादा जानते हैं। हमारे पंचांग ही इन्हीं के आधार पर बनते हैं। हम जानते हैं कि ‘ब्लडमून’ क्या है और ‘सुपरमून’ क्या है? लेकिन हम नहीं बता सकते कि कोविड-19 क्या है और ब्लैक, व्हाइट और यलो फंगस क्या है? हमारे आयुर्वेदाचार्य भी इस मामले में मौन हैं जबकि उनके पास कम से कम तीन हजार साल पुराना चिकित्सा शास्त्र मौजूद है। आयुर्वेद से 28 सौ साल बाद जन्मा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान जिसे एलोपैथी कहा जाता है,  इस विषाणु और फंगस से मोक्ष दिलाने के लिए यत्न कर रहा है,  लेकिन हमारे संत-महंत इसे स्वीकारने को राजी नहीं हैं। वे इसे झुठलाते हैं। इसे हिन्दू-मुस्लिम बताते हैं।

मुझे याद है अपना बचपन। उस समय जब भी कोई ग्रहण पड़ता था तब हमारे यहां हमारी दादी, नानी सभी जलपात्रों में तुलसी के पत्ते डालकर उन्हें चादर से ढांक देती थीं,  पूजाघर पर पर्दा लटका दिया जाता था, मंदिरों के कपाट बंद रहते थे,  लेकिन अब सब बदल गया है। लोगों को ग्रहण के साथ जीने की आदत पड़ गयी है। संवेदना का असमय अवसान हो चुका है। कोविड-19 के दिशा निर्देशों ने हमें संवेदनहीन बना दिया है। अब लोग मृतकों के अंतिम संस्कार तक में जाने के लिए राजी नहीं। दो-चार मजबूरन चले भी जाएँ तो अस्थियां लेने कोई नहीं जाना चाहता। हद तो ये है कि मृतकों को जानवरों की तरह बिना अंतिम संस्कार के दफनकया जा रहा है या उनके शव पानी में बहाये जा रहे हैं,

संवेदनशीलता को लगे इस ग्रहण से पूरी दुनिया का तो पता नहीं लेकिन कम से कम हमारे मुल्क में तो सारा ताना-बाना ही टूटा जा रहा है। समाज से अगर संवेदनशीलता ही तिरोहित हो जाएगी तो आखिर में बचेगा क्या? कोविड-19 से पहले भी दुनिया में बड़ी से बड़ी महामारियां आयी हैं लेकिन मनुष्य जितना जड़ आज हुआ है इससे पहले कभी नहीं था। हमारे चिकित्‍सक तब भी महामारियों में सेवा करते हुए मारे गए थे और आज भी मारे जा रहे हैं, किन्तु दुर्भाग्य कि अनपढ़,  जाहिल धर्म के ठेकेदार अधनंगे लोग उनका मखौल उड़ा रहे हैं और सत्ता प्रतिष्ठान उनका साथ दे रहा है। अदालतें मौन हैं।

हम विश्व का मार्गदार्शन करने की हैसियत रखते थे, विश्वगुरु थे भी शायद, लेकिन हमारी जड़ता ने हमसे ये सब जैसे छीन लिया है। हमारी सियासत, हमारी अर्थव्यवस्था,  हमारा स्वास्थ्य, हमारी शिक्षा को ग्रहण लगा हुआ है किन्तु कोई इन सबको मोक्ष दिलाने के बारे में सोचना नहीं चाहता। जिस दिन दुनिया में इस साल का पहला चंद्रग्रहण चल रहा है तब हमारे भाग्य विधाता टीवी चैनलों पर सम्भाषण दे रहे हैं। गनीमत है कि वे चींवर पहने हुए अवतरित नहीं हुए। जिंदगी के लिए मौत से निहत्थी लड़ रही मानवता को कोई बुद्ध, कोई ईसा, कोई राम भरोसा नहीं दिला सकता। जिंदगी होगी तभी ये सब होंगे। तो आइये चंद्रग्रहण की फ़िक्र छोड़ें, उसे तो कुछ घंटों बाद मोक्ष मिल ही जाएगा, लेकिन हम सब उन सबके बारे में सोचें जिनका ग्रहण मोक्ष केलिए तरस रहा है। आप मेरी बात समझ रहे हैं न?(मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

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