भाजपा की ‘सत्ता राजनीति’ का चरित्र

0
1505

विजयबहादुर सिंह

राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ और भाजपा जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में आस्था रखते हैं और हिन्दू धर्म और दर्शन को उसकी बुनियाद मानते हैं, उसकी मूल मंशाओं में भी उनकी आस्था नहीं है। हिन्दू दर्शनों में कुछेक तो निरीश्‍वरवादी और नास्तिक हैं। हिन्दू परम्परा में यह पारस्परिक असहमति हमेशा से रही आई है। खूबी यह भी रही कि इसी कुल और वंश-परंपरा में बुद्ध और महावीर जन्म लेकर नास्तिक दर्शनों की ओर चले गए जिसमें वेद और ईश्‍वर की कोई सत्ता ही नहीं है। नास्तिको वेद निन्‍दक: साफ बयान करता है कि ये दोनों वेद मार्गों से भिन्न आस्था-पथ के पथिक थे। मध्यकाल के भक्ति आंदोलन में निगुर्ण-सगुण अपनी जगह, पर सूफी मार्ग तो इस्लाम का विद्रोही मार्ग था। अजमेर का दरगाह शरीफ हो या फिर अमीर खुसरो के गुरु निजामुद्दीन औलिया सब सूफियों की देन होकर अब हमारी समृद्ध विरासत के हिस्से हो चुके हैं। तुलसी ने शैवों और वैष्णवों का समन्वय कराया। अकारण नहीं यही हिन्दू-दृष्टि आगे स्वीकारी गई। हिन्दू इसी सर्वग्राही और विशाल उदार हृदय के चलते हमेशा साम्प्रदायिक होने से बचता रहा। उसका अपना सच तो वस्तुत: वही था जो सबको स्वीकार होता चले।

इस  पर तो शायद ही कोई बहस हो कि दर्शन और धर्म सब मानव के उच्‍चतम चिन्तन और लोकोत्तर विवेक के आविष्कार हैं। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि वैदिकों के यहां यज्ञ और हिंसा है, किन्तु बौद्धों और जैनियों और तो और वैष्णवों के यहां अहिंसा धर्म की आत्मा है। प्रेम तो खैर सबसे ऊंचा धर्म और पुरुषार्थ है। संघ ने और भाजपा ने इस समूची विरासत में से गांधी की तरह क्या ग्रहण किया है, यह उनके अपने निरीक्षण का सवाल है।

आर्थिक और राजनीति संदर्भ में भाजपा आश्‍चर्यजनक रूप से अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से नहीं अमरीकी नवपूंजीवाद से विकास की सीखें ले रही है। हम जैसे लोगों का चकरा जाना तब स्वाभाविक हो उठता है कि आदि प्रधानमंत्री नेहरू की समाजवादी पश्‍चिमोन्मुखता और वर्तमान प्रधान सेवक मोदी में आखिर कितना फर्क है? दोनों ही तो रीढ़हीन पश्‍चिम दीवाने कहे जा सकते हैं। उनका अपना स्वाधीन स्वातंत्र्य-चिंतन और गांधी जैसा स्वतंत्र राजनीतिक विवेक कहां है? गांधी ने तो पश्‍चिमी सभ्यता को साफ-साफ शैतानी कहा था, कई अनुवादों में राक्षसी।  इस सभ्यता ने हमारे जंगल समाप्त करने शुरू किए, और जन जातियों और आदिवासियों का बेरहम उन्मूलन करना सिखाया। आजादी की वह लड़ाई जो सत्याग्रह और अहिंसा के जीवन-पथ पर चल कर लड़ी गई थी, स्वदेशी को अपना स्वतंत्र आर्थिक पथ मान स्वावलम्बन और आत्माभिमान के पथ पर चल कर लड़ी गई थी, पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद समाजवाद नामक एक अन्य राजपथ के हवाले हो गई।

फिर भी इस समाजवाद में किसान और मजदूर थोड़े-बहुत ही सही चिन्ता के केंद्र में थे। अतिरिक्त साहसी इन्दिरा गांधी ने तो बैंकों का राष्ट्रीयकरण और सामन्तों-पुराने राजों महाराजों का प्रिवीपर्स छीन कर एक नई राजनीति का श्री गणेश किया। आज जो स्थिति है उसमें निस्संदेह गांधी का ट्रस्टीशिप तो काम नहीं करेगा, क्योंकि इसके लिए जिस उदार और महनीय मनुष्यता-बोध की जरूरत है वह शायद ही किसी देशी पूंजीपति में हो। तब यह सोचने और तुलना करने की जरूरत सामने आ खड़ी है कि अगर राजों-महाराजों की कमाई भी देश के लोगों के आधार पर थी, तो इन पूंजी कुबेरों को कौन पाल-पोस रहा है? आखिर देश की जन बिरादरी ही न? तब इनके मुनाफे रहन-सहन अचम्भे में डाल देने वाला इनका ऐशो-आराम और भोग-विलास क्या अकेले इनका अपना लोक-निरपेक्ष पुरुषार्थ है? पूछने का मन होता है कि संघ और भाजपा का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यहां कुछ कहता है या नहीं? यह तो संदेह ही नहीं कि दोनों ही भरपूर हिंसा, घृणा और कूटनीति में यकीन करते हैं। संघ तो साफ-साफ कहता है कि सत्ता-राजनीति से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। तब वह खुले आम भारत की जनता के कैबिनेट मंत्रियों का हिसाब-किताब क्यों और किस नैतिकता के अधिकार पर लेता और रखता है? संस्कृति का क्या यह दोगलापन नहीं है?

यह चर्चा आलेख में पहले भी की गई है कि उन्नीसवीं से लेकर बीसवीं सदी तक भारतीयता अथवा हिन्दुस्तानियत की जो शक्ल नई पीढ़ी की चेतना में आई है, उसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिशत कितना है? अगर कुछ भी नहीं है तो क्यों? आखिर कारण क्या है? सरस्वती शिशु मंदिरों और विद्यार्थी परिषद के लाडलों का जब यौवन काल आता है तब उनका निजी चरित्र और सामाजिक व्यवहार कितनी दूर तक राम-कृष्ण, सत्यवादी हरिश्‍चंद्र, धर्मराज युधिष्ठिर या फिर अशोक के पास और पासंग भी कभी दिखता है या फिर वे सब भी इसी भुखमरे खाओ-पीओ लूटो और ऐश मनाओ वाली भीड़ के हिस्से बन कर हमेशा-हमेशा के लिए गुम हो जाते हैं? अकारण नहीं देश के लोग यह समझने लगे हैं कि कांग्रेस और भाजपा की राजनीति में शायद ही कोई फर्क हो। भाजपा भी शायद कुछेक दिन, कुछ कर धर कर, कांग्रेस की गति प्राप्त कर लेगी पर शायद ही कभी विशाल भारतीय जनता के लोकचित्त के सिंहासन पर तिलक, गांधी, बिस्मिल, आजाद और भगत सिंह की तरह प्रतिष्ठित हो सके। फिर कांग्रेस और भाजपा में एक दुखद और खतरनाक फर्क यह है कि कांग्रेस तो सारे नागरिकों को अपना मान लेती थी पर भाजपा के शासन-काल में वे उदार हिन्दू भी अपनी सहज नागरिकता से वंचित हो उठे हैं, जो उससे असहमत हैं या फिर जिन पर संघ ने अपनी मुहर नहीं लगाई है। तब यह जो राष्ट्र और राष्ट्रीयता विकसित हो रही और की जा रही है, उसका भविष्य कितने दिनों का है? यह क्यों भूला जाना चाहिए कि असहमति इस देश की परम्परा में है। पर ऐसी सहमति भी किस काम की जो रावण-कंस-दुर्योधन के दरबारों की है? क्या बताना पड़ेगा ऐसी सत्ताओं का इस देश में क्या हुआ? क्यों वे आज भी लोक-घृणा और निन्दा की पात्र बनी हुई हैं?

मात्र चुनाव में बाजी मार लेने से कुछ नहीं होता। हजारों साल वाले इस देश और सत्ता-राजनीति में दस-बीस सालों का क्या महत्व? कांग्रेस को तो लोगों ने बरस-दर-बरस चुनाव-दर-चुनाव दिया। इसमें कुल साठ के लगभग साल उसे मिले। आगे भी अगर वह वंशवाद का रास्ता छोड़ दे और अपने कुकर्मों पर इन्दिरा गांधी की तरह हाथ जोड़कर माफी मांग ले और पश्‍चाताप करे तो लोग फिर उसे चुनाव जिता सकते हैं पर संघ को तो शायद ही वे कभी स्वीकार कर पाएं, क्योंकि उसकी सोच ही नहीं, उसका सामाजिक दायरा भी बेहद संकरा और भविष्य-विरोधी है। वह कितना मानवीय है, इस पर भी बहस हो ही सकती है।

इस देश में हिन्दू अशोक बाद में बौद्ध हो गया। अकबर तो खैर महान था ही तब भी असहमत लोग थे। चाणक्य ने चंद्रगुप्त के मार्फत पहला साम्राज्यवाद बनाया पर प्रधान अमात्य तो उसका राक्षस ही बना जो बौद्ध था, सो भी चाणक्य की भरपूर सहमति से। क्या भाजपा अपने इन पुरखों से कुछ सीख लेगी? इतने बड़े पुराने और महान देश में सत्ता राजनीति करने के लिए इतनी ही विशाल उदार और व्यापक लोकहितकारी राजनीति का जादू करके दिखाना होगा। इन चुनौतियों को मंजूर किये बिना अपनी राजनीतिक सोच और लोकचरित्र पर आत्मचिंतन किए बगैर चुनाव जीत लेना, जनता का हृदय जीत लेना नहीं है। आजकल तो कैसे-कैसे लोग चुनाव जीत रहे हैं, पर जनता के रजिस्टर में वे फिर भी अपराधी हैं और बने रहेंगे। जन-गण-मन का राजनीतिक विवेक कभी भी भ्रष्ट नहीं होता। सत्ताएं तो प्राय: विवेकहीनता के लिए अभिशप्त रही हैं।

——————————

डॉ. विजयबहादुर‍ सिंह हिन्‍दी के प्रख्‍यात आलोचक और साहित्‍यकार हैं। वे समसामयिक विषयों पर भी अद्भुत पकड़ रखते हैं। परंपरा से हटकर परिस्थितियों और विचारों के तार्किक और नवीन दृष्टि वाले उनके विश्‍लेषण पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। इस लेख पर हमें आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्‍स के अलावा आप हमें [email protected]  पर भी भेज सकते हैं। प्रकाशन योग्‍य पाए जाने पर हम उसे आपके नाम के साथ प्रकाशित करेंगे।

संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here