हेमंत पाल
भारतीय जनता पार्टी ने उपचुनाव के लिए जो स्टार कैम्पेनर की लिस्ट जारी की, उसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सबसे नीचे है। ये तो तय है कि किसी न किसी नेता का नाम तो नीचे होना ही था, पर सिंधिया का ही क्यों? जिस एक नेता ने कांग्रेस से अपने गुट के साथ बगावत कर भाजपा की सरकार बनवाई, उसे तवज्जो क्यों नहीं! जबकि, उपचुनाव वाली 28 सीटों में 22 पर वे उम्मीदवार मैदान में हैं, जिन्होंने बगावत का झंडा उठाया था। भाजपा, स्टार कैम्पेनर की लिस्ट को लेकर कोई भी जवाब दे सकती है, पर सिंधिया को हाशिये पर रखने का मुद्दा गंभीर मसला है। इस बहाने जो संदेश जनता में चला गया, उसे वापस नहीं लिया जा सकता और न उसकी भरपाई आसान है। कांग्रेस ने भी इस मसले को जमकर उठाया है। इसके अलावा चुनाव रथ पर लगे पोस्टरों में भी सिंधिया नदारद हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीति के लिए 28 सीटों के उपचुनाव जीवन-मरण का सवाल बन गए हैं। इन क्षेत्रों में ज्यादातर सीटें सिंधिया-खानदान के प्रभाव वाले ग्वालियर-चंबल और मालवा तथा पूर्व मध्यभारत क्षेत्र की है। अब उपचुनाव के नतीजे बताएंगे कि उनका वर्चस्व अभी कायम है या वहाँ कोई विपरीत प्रभाव पड़ा है। उनके अतिविश्वस्त 19 साथियों के बहाने उनकी साख दांव पर लगी है। इसे उनकी राजनीति की अग्निपरीक्षा भी माना जा सकता। यदि वे इस परीक्षा में सफल होते हैं, तो उनके लिए भाजपा के नए दरवाजे खुल जाएंगे। पर, यदि ऐसा नहीं होता है, तो उपचुनाव की हार का सारा खमियाजा सिंधिया को भुगतना होगा। ऐसे में उनके साथी भी उनसे कन्नी काट सकते हैं।
उपचुनाव की 28 में से 19 सीटें ऐसी हैं, जो सीधे सिंधिया-घराने के प्रभाव में है। भाजपा ने भी इनका दारोमदार पूरी तरह से सिंधिया को सौंप दिया है। इन सीटों पर भाजपा की जीत का श्रेय यदि सिंधिया के खाते में दर्ज होगा, तो हार का ख़मियाज़ा भी उन्हें झेलना है। उपचुनाव के नतीजे सिर्फ शिवराज सरकार को स्थायित्व नहीं देंगे, सिंधिया की भविष्य की राजनीति के लिए भी ये निर्णायक हैं। ये महज सियासी जंग नहीं है। ये उपचुनाव सीधे-सीधे ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के फैसले को सही और गलत ठहराने का इम्तिहान भी है।
यही कारण है कि कांग्रेस ने ‘गद्दार’ और ‘खुद्दार’ के नारे को हवा दी है। लेकिन, पलड़ा किस तरफ झुकेगा ये कहना मुश्किल हैं, क्योंकि उपचुनाव वाले क्षेत्रों के मतदाता खामोश हैं। वे सबकी सुन तो रहे हैं, पर बोल नहीं रहे। ये उपचुनाव सिंधिया के सियासी फैसले के अलावा भाजपा के लिए भी नाक का सवाल बन गये हैं। क्योंकि, सिंधिया गुट की बगावत ने भाजपा को जो फ़ायदा दिलाया, इस उपचुनाव के नतीजे से उस पर जनता की मुहर लगेगी। कांग्रेस यदि मतदाताओं से सहानुभूति के नाम पर वोट मांग रही है, तो भाजपा और सिंधिया ने कांग्रेस की 15 महीने की सरकार के फैसलों को कठघरे में खड़ा करके अपने पक्ष में वोट देने की अपील की है। मतदाता का एक वोट कई सारे फैसलों को सही और गलत ठहराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा।
उपचुनाव के नतीजे यदि पक्ष में रहे तो सिंधिया को केंद्र में मंत्री पद देंगे, और राज्य की राजनीति में भी वे भाजपा के शीर्ष नेताओं में से एक होंगे। क्योंकि, इस बहाने वे ये साबित करने में भी कामयाब होंगे कि राजनीति में पार्टी के अंदर गुट बनाकर चलने के क्या फायदे हैं। लेकिन, नतीजों के विपरीत होने पर राजनीति को लेकर उनके बहुत सारे भ्रम टूटेंगे और उनके गुट को भी बंटने से नहीं रोका जा सकेगा। क्योंकि, उपचुनाव हारने वाले पर न तो भाजपा अगले चुनाव में दांव लगाएगी और न सिंधिया का दबाव उन्हें कोई फ़ायदा दिला सकेगा।
इन उपचुनावों में सिंधिया के लिए उनके चार समर्थकों की जीत सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा वाली है। तुलसी सिलावट (सांवेर), गोविंद राजपूत (सुरखी), इमरती देवी (डबरा) और प्रद्युम्नसिंह तोमर (ग्वालियर) को सिंधिया के सबसे नजदीक समझा जाता है। यदि ये 4 सीटें भाजपा ने सिंधिया के दम पर जीत लीं, तो वो एक बड़ा गढ़ फतह कर लेगी। जबकि, कांग्रेस ने इन चारों को हराने पर अपना पूरा ध्यान लगा रखा है। इनमें से तुलसी सिलावट और गोविंद राजपूत के मंत्री पद की अवधि 20 अक्टूबर को ख़त्म हो रही है। यानी उन्हें बिना मंत्री रहे ही उपचुनाव लड़ना होगा, जो आसान नहीं है। आचार संहिता की बाध्यता के कारण भाजपा चाहकर भी इन्हें दोबारा मंत्री नहीं बना सकती। इन्हीं सारी अड़चनों से सिंधिया समर्थकों को पार पाकर जंग जीतना है।
प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है, जब 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं। जबकि, सामान्य स्थिति में विधायकों के निधन से सिर्फ 3 सीटें खाली हुई हैं। बाकी की 25 सीटों पर कांग्रेस से बगावत के कारण उपचुनाव के हालात बने। सिंधिया समर्थक 19 विधायकों के साथ 3 और विधायकों ने कांग्रेस से विद्रोह किया था और ये संख्या 22 हो गई थी। बाद में 3 और विधायकों ने बहती गंगा में हाथ धोकर भाजपा का झंडा थाम लिया। कांग्रेस के मुताबिक उनके विधायकों की बगावत में पैसों का लेन-देन बड़ा मुद्दा है। इसमें कितनी सच्चाई है, इसके प्रमाण किसी के पास नहीं है। ये महज आरोप है।
पर, आज नहीं तो कल इस पर से परदा जरूर उठेगा कि किस प्रलोभन में 22 विधायकों ने पाला बदला। यदि कोई बड़ा स्वार्थ नहीं था, तो ये बहुत बड़ी बात है कि सिर्फ सिंधिया से प्रतिबद्धता के कारण 19 विधायकों ने जनादेश को ठुकराकर उनका साथ दिया। पर, यदि उपचुनाव के बाद विपरीत नतीजे आते हैं और यही प्रतिबद्धता बरक़रार रहती है, तो फिर इसे झुककर सलाम किया जाना चाहिए। अमूमन राजनीति में ऐसा त्याग कभी देखा नहीं गया।
उपचुनाव के नतीजे विपरीत रहने पर यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक भविष्य का नुकसान हो सकता है, तो नतीजे पक्ष में रहने पर उन्हें भाजपा का बड़ा नेता बनने से भी कोई रोक नहीं सकता। स्पष्ट कहा जा सकता है, कि उपचुनाव से यदि शिवराजसिंह की सरकार को स्थायित्व मिलेगा, तो सिंधिया की राजनीति भी यहीं से नया मोड़ लेगी। उनका राजनीतिक कद, उनकी प्रतिष्ठा, उनकी रणनीति, उनके समर्थक और सिंधिया परिवार का दबदबा, सब कुछ उनके 19 समर्थकों की हार-जीत से तय होगा।
28 में से जो 19 सिंधिया समर्थक इस समय मैदान में हैं, उनमें सबसे ज्यादा 16 ग्वालियर-चम्बल संभाग की सीटें हैं। यहाँ चुनाव प्रचार और मुद्दों में सिंधिया ही आगे हैं। ये वो इलाका है, जहाँ 300 सालों से सिंधिया-परिवार का दबदबा है। आजादी के बाद से ही यहाँ ‘महल की राजनीति’ का सम्मान रहा है। पर, अब ये सबकुछ 16 सीटों पर सिमट गया। शेष 3 सीटें (बदनावर, सांवेर और हाटपिपलिया) मालवा क्षेत्र की है। यदि इसमें से ज्यादातर सीटें उनके समर्थकों ने जीत लीं, तो वे भाजपा और मध्यप्रदेश की राजनीति के केंद्र में होंगे और उनके भविष्य की दिशा भी तय हो जाएगी। पर, यदि ऐसा नहीं होता है तो उनका भविष्य मुश्किल में होगा। क्योंकि, जिस तरह के दावे करके वे भाजपा में आए हैं, उन्हें सही साबित करना भी उनकी ही जिम्मेदारी है।
भाजपा ने भी उन 19 सीटों का दारोमदार पूरी तरह सिंधिया को सौंप दिया है, जहाँ से उनके समर्थक भाजपा के उम्मीदवार हैं। यदि ज्यादातर उम्मीदवार ये उपचुनाव जीत गए, तो वे सिंधिया का कद इतना बड़ा कर देंगे कि प्रदेश भाजपा के कई नेता उनके सामने बौने नजर आएंगे। ये खतरा भाजपा के वे नेता भी समझ रहे हैं, जिनका राजनीतिक भविष्य सिंधिया समर्थकों की हार-जीत से तय होने वाला है। उन्हें इस बात का भी अच्छी तरह से अहसास है कि संघ और भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे बढ़ाने में कोई कमी नहीं रखेगा। नतीजे यदि सिंधिया के पक्ष में आते हैं, तो वे भाजपा में निर्णायक की भूमिका में नजर आ सकते हैं।
पर, यदि संभावनाएं प्रबल हैं, तो खतरे भी उतने ही बड़े हैं। ये चुनौती सिर्फ ज्योतिरादित्य सिंधिया अकेले तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसे ‘सिंधिया परिवार’ की प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन, सिंधिया को सितारा प्रचारकों में अहमियत न दिया जाना एक संकेत है कि भाजपा की नजर में सिंधिया की हैसियत क्या है। भाजपा को ऐसे किसी फैसले से पहले इसके असर को भी भांपना चाहिए।