रमाशंकर सिंह
यह सही है कि प्रशांत किशोर ने नीतीश की सहमति से राँची जेल जाकर लालू यादव से बात की थी जिस पर दोनों बड़े नेता रज़ामंद हो गये थे कि ठीक है जो हुआ सो हुआ वापिस गठबंधन बना कर पुरानी स्थिति को बना लेते हैं और सरकार भी जस की तस पहले जैसी रहे। पर तेजस्वी के कहने पर राबड़ी देवी ने विरोध का ऐसा स्वाँग रचाया कि पूरी बात को ख़त्म करना पड़ा। कमजोर और बीमार लालू अपने परिवार को समझा नहीं सके जबकि राजद के कई जमीनी नेता उस बात के पक्ष में थे।
एक और तथ्य भी है जो कम चर्चा में आया है कि विगत लोकसभा चुनाव के बाद निराश हताश तेजस्वी अपने रिश्तेदार मुलायम सिंह से मिलने लखनऊ पहुँचे जहॉं उन्होंने अपनी तमाम राजनीतिक तकलीफ़ों का ज़िक्र किया तो मुलायम सिंह ने फ़ोन उठाकर बिहार भाजपा प्रभारी भूपेन्द्र यादव से बात कर तेजस्वी से मिलने का समय तय करा दिया।
भूपेन्द्र और तेजस्वी की कई बैठकें हुईं और अंत में भाजपा नेतृत्व ने उनके सारे प्रस्तावों को ख़ारिज कर यह फ़ैसला दिया कि आप जहॉं हो जैसे हो वैसे ही रहो हमें राजद से समझौता करने में कोई फ़ायदा नहीं है। पहले भी ऐसी एक कोशिश लालू यादव प्रेमचंद गुप्ता को जेटली के पास भेजकर कर चुके थे कि सीबीआई केसों को हटाने के बदले में महागठबंधन सरकार गिरा दी जाये। तब लालू जमानत पर जेल के बाहर ही थे और उनके प्रकरणों में हाईकोर्ट का अंतिम फ़ैसला नहीं आया था। यह मुहिम भी भाजपा ने अस्वीकार कर दी थी।
भाजपा ने ऐसा क्यों किया उसे समझना ज़रूरी है, क्योंकि वंशानुगत पार्टी में युवा नेतृत्व के रहते उसे वे सब फ़ायदे नहीं हैं जो कि नीतीश की पार्टी के साथ हैं, जो कि नीतीश के बाद चल ही नहीं पायेगी। लचीले कमजोर नीतीश उन्हें अधिक बेहतर लगते हैं। यह भी कि मज़बूत किसानी का कुर्मी वोटबैंक यादव बहुल दल के समक्ष कभी सरेंडर नहीं करना चाहेगा चाहे भाजपा का साथ क्यों न देना पड़े। अब आज के कोई भी नेता चाहे लालू या नीतीश युवा तो नहीं हो रहे हैं और इनकी अच्छी सक्रिय उम्र पॉंच बरस और है।
जैसे मप्र में दिग्विजय राज की बुरी यादें भाजपा को सुहाती और सफलता दिलाती हैं वैसे ही बिहार में लालू राज की ढेर घटनायें शहरी ग्रामीण मध्यवर्ग में सिहरन पैदा करने के लिये काफ़ी है। मप्र में बंटाढार और बिहार में जंगलराज जैसे प्रतीकात्मक जुमले आज भी मतदाता को याद हैं।
नीतीश कुमार ने शायद हाल के राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर सबसे अधिक निराश किया है। वे सिद्धअवसरवादी और एक साधारण क्षेत्रीय नेता की तरह पेश आये हैं। आपको वह बयान याद होगा जो 2016-17 में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने दिया था कि कांग्रेस के पास नेता नहीं है और नीतीश के पास पार्टी नहीं है। इसलिये अच्छे विकल्प के तौर कांग्रेस में जदयू का विलय हो जाये और नीतीश उस दल (कांग्रेस) के अध्यक्ष हों।
उसी समय पूरे देश में अचानक नीतीश की बेहतर छवि के कारण एक राष्ट्रीय नेता की भंगिमा बन रही थी और जगह-जगह से उनकी सभाओं व कार्यक्रमों की माँग आती रहती थी। भारत के गांधीवादियों, समाजवादियों, वामपंथियों और अन्य राष्ट्रीय धर्मनिरपेक्ष सोच के लोगों, संगठनों आदि में उनकी स्वीकार्यता बन रही थी। मुंबई, केरल, राजस्थान, पंजाब, कश्मीर, असम, बंगाल, यूपी, अरुणाचल जैसे स्थानों पर उनके लिये भीड़ इकट्ठी हो जाती थी।
नीतीश यदि सिद्धांतों पर टिके रहते और कुर्सी को ठोकर मार कर भी डटे रहते तो आज मोदी के सामने एक विकल्प देश के सामने होता लेकिन उन्होंने उसी पुरानी कुर्सी को चुना और देश भर में उनकी बन रही छवि एक दिन में शीशे की तरह चटाक से टूट गयी। आज नीतीश कुमार पूरे देश में सामान्य जनता की दृष्टि में हेय और भाजपा समर्थकों में गैरमहत्वपूर्ण माने जाते हैं। पर बिहार में तो वे ऐसे फ़ैक्टर अभी भी हैं जो चुनाव के संतुलन को इधर उधर कर सकते है, क्यों?
इसका मुख्य कारण है कि बिहार की राजनीति चार पॉंच दशकों से सिर्फ़ सामाजिक न्याय के सवाल पर ही केंद्रित रहती आयी है। यदि लालू प्रसाद इस आज़मायी राजनीति के साथ साथ विकास, तरक़्क़ी को भी सही-सही तवज्जो देते रहते तो बिहारी आकांक्षाओं के पंख लग जाते। गाँवों में सड़क, बिजली, स्कूल और क़ानून व्यवस्था का दायित्व भी राज्य सरकार झटक कर अलग नहीं कर सकती। ऐसी ही बुनियादी बातों को शासन करना कहते हैं, पर बिहार में इन्हीं तीन चार चीजों के आंशिक क्रियान्वयन को सुशासन कहा गया, यानी इसके पहले ये सब कुछ नहीं था।
अब यदि नीतीश स्वास्थ्य व शिक्षा पर खूब ध्यान देते, सड़क बिजली और क़ानून व्यवस्था के साथ साथ, तो वे सचमुच सुशासन कर सकते थे, लेकिन यह नहीं भुलाना चाहिये कि भारतीय समाज की समग्र एकता और संविधान की आत्मा की पालना किये बग़ैर कोई सुशासन नहीं हो सकता। नीतीश यहॉं बुरी तरह फेल हुये क्योंकि वे एनडीए के घटक होते हुये भी एनडीए के सर्वसम्मत एजेंडें पर भाजपा को नहीं टिका पाये और मोदी शाह के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
धारा 370, 35 और सीएए पर मज़बूत स्टैंड नहीं ले पाये। फिर काहे का सुशासन? मोदी और नीतीश में इस मायने में समानता है कि दोनों का ही परिवार प्रम/मुमं आवास में साथ नहीं रहता और वे पूरे समय राजकीय कार्यों के लिये उपलब्ध रहते हैं। मोदी की भाँति नीतीश का राजनीतिक काम संभालने वाला कोई दक्ष व्यक्ति पटना में नहीं है और न ही दिल्ली में उनका कोई निपुण प्रतिनिधि। वे स्वयं भी यही स्थिति पसंद करते हैं। कार्यकर्ताओं और दूसरी पीढ़ी के क्षेत्रीय नेताओं के प्रति अविश्वास रखने वाला नेता बहुत दूर तक अपना प्रभाव छोड़ने में अक्षम ही रहता है।
अभी भी भाजपा बिहार में ड्राइविंग सीट पर नहीं बैठ पाई है जैसा कि यूपी में वह कर चुकी है। यह राहत से ज़्यादा चुनौती की बात है और लालू परिवार में अगर जरा भी राष्ट्रीय राजनीतिक बुद्धि होती तो बुढ़ाते नीतीश व लालू के सामाजिक आधार को एकबद्ध रखकर न सिर्फ़ बिहार में शासन करते रह सकते थे बल्कि भाजपा को एक बड़े राज्य से दूर रखते हुये केंद्रीय राजनीति में अपना दख़ल भी। नीतीश कुमार निजी रूप में स्वयं तेजस्वी के नेतृत्व को भविष्य के लिये अच्छी संभावना मान रहे थे, लेकिन लालू के व्यवहार ने सब गुड़गोबर कर दिया।
लालू क्यों, कब पैसे के चक्कर में, किस के प्रभाव में फँसे और अपनी नाबालिग संतानों को भी सदैव के लिये फँसा दिया कि एक कलंक उन पुत्रों पुत्रियों के माथे पर लगा दिया। जबकि इसकी कोई ज़िम्मेदारी तेजस्वी, मीसाभारती या तेजप्रताप की नहीं थी। दो नाम ही सामने आते हैं लेकिन इस राजनीतिक चर्चा में वह फिलवक्त असंगत है।
ताज़ा हालात यह है कि नीतीश के विरुद्ध आक्रोश है लेकिन उस आक्रोश को भुना सकने की कैसी भी क्षमता आज के राजद में नहीं है। भाजपा चाहती है कि नीतीश कुछ समय और चलें पर कमजोर रहकर। भाजपा अकेला दल है जो यह प्लॉन कर उसे क्रियान्वित भी कर सकता है कि कैसे उसके अधिकतम विधायक जीतें और जदयू के बस उतने ही कि सरकार बन जाये। राजद यदि आज की स्थिति भी बरकरार रख सके तो बहुत उपलब्धि मानी जायेगी। कांग्रेस बिहार में धीरे धीरे यूपी जैसी हालत में आ गई है।
एक और कथित समाजवादी मुखौटा है बिहार में रामविलास पासवान! शुद्ध अवसरवादी और परिवार के लिये राजनीति का धंधा करने वाले; जिधर दम, उधर हम। लालू ने इनके बारे में सटीक कहा है, मौसम विज्ञानी! जो जीतता दिखता है, उधर चले जाते हैं। ओवैसी का दल इस बार बिहार का चुनाव नहीं छोड़ेगा, इसका सीधा असर ‘माई’ वोट बैंक पर पड़ सकता है, लेकिन बड़े पैमाने पर नहीं, छिटपुट ही। यदि वर्तमान विधानसभा की दलीय संख्या कमोबेश फिर से आती है, तो राजद व भाजपा तीसरे दल पर कोई भी दबाव डालने की हालत में न होंगे, इसका फ़ायदा किसे मिलेगा यह कहने की क्या ज़रूरत है?
अब पाठक गण पूछ सकते हैं कि जब इतना आक्रोश है सरकार के ख़िलाफ़, तो वोट भी सरकार के विरोध में जायेगा। इसका जवाब यह है कि जो भी संगठन बूथ स्तर पर मज़बूत होता है और साधन व प्रचार संपन्न भी वह 5 से 8 फीसदी तक विरोध को जज़्ब कर सकता है। सरकार के विरोध में आंधी ही चल जाये तो फिर कोई शाखा, संगठन, पैसा, प्रचार कुछ भी काम नहीं आता है। पर आँधियों को चला सकने वाला नेता भी तो होना चाहिये, जिसके उदाहरण भी भारतीय राजनीति में कई हैं।
( इति)
पाठकों से-
आपको यह विश्लेषण श्रृंखला कैसी लगी, अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराइएगा- संपादक
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