सवाल बड़ा है, शिक्षा जीविका का साधन बने या नहीं? 

शिक्षा को लेकर उधर सांदीपनि ऋषि की कर्मस्‍थली उज्‍जैन में गुरुकुल पद्धति पर विमर्श हो रहा था, उसी समय भोपाल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सचिव अनिल स्‍वरूप बता रहे थे कि सरकार आंगनवाडि़यों को प्री-स्‍कूल में शिफ्ट करने की योजना पर काम कर रही है।

अभी स्‍कूली शिक्षा को लेकर सबसे ज्‍यादा जिस बात पर ध्‍यान दिया जा रहा है वो है पाठ्यक्रम का सरलीकरण और बच्‍चों के बस्‍ते का बोझ कम करना। अनिल स्‍वरूप ने मीडिया को जानकारी दी कि सरकार सारी कक्षाओं के पाठ्यक्रमों का रिव्‍यू कर रही है और उनमें से अनावश्‍यक जानकारी को छांटने और हटाने की योजना है।

यानी अभी जो शिक्षा प्रणाली है उसने बच्‍चों के बस्‍ते को ‘बोझ’ तो मान ही लिया है। अब देखना ये है कि यह ‘बोझ’ सिर्फ वजन के रूप में है या फिर वह बच्‍चों के मानस और उन्‍हें दी जाने वाली शिक्षा को भी बोझिल बना रहा है। अधिक वजन के कारण जहां बच्‍चों को शारीरिक नुकसान हो रहा है वहीं सामग्री के बोझिल होने से उनकी शिक्षा में रुचि पर भी असर पड़ रहा है।

बस्‍ते के वजन को कम करने का मुद्दा देश में वर्षों से चर्चा में है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रो.यशपाल ने इस दिशा में काफी काम किया था। बस्‍ते के बोझ को कम करने के लिए कई कमेटियां बैठ चुकी हैं और दर्जनों संस्‍थाएं सुझाव दे चुकी हैं लेकिन अभी तक इसका कोई सर्वमान्‍य हल नहीं ढूंढा जा सका है।

अब सरकार ने इस पर दो तरह से काम करना शुरू किया है। इसमें से पहला है पाठ्यक्रमों में से अनावश्‍यक सामग्री को हटाकर किताबों के आकार को छोटा करना। इसका दोहरा असर होगा। एक तो बच्‍चों की पीठ या कंधे पर वजन कम होगा दूसरे उन्‍हें अनावश्‍यक चीजों को पढ़ने और याद करने से भी मुक्ति मिल सकेगी।

माना जा रहा है कि यह उपाय करने से बच्‍चों को जो समय मिलेगा उसका उपयोग वे खेलकूद और अपनी अभिरुचि के अनुसार दूसरी शारीरिक या अन्‍य गतिविधियों के लिए कर सकेंगे। कई राज्‍य यह बोझ कम करने की दिशा में अपने अपने हिसाब से अलग अलग प्रयोग कर रहे हैं। जैसे तमिलनाडु ने बस्‍ते का बोझ कम करने के लिए किताबों को दो हिस्‍सों में बांट दिया है। ऐसा करने से किताबों का वजन तुरंत आधा किया जा सकता है।

अनिल स्‍वरूप के मुताबिक सरकार शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप को बढ़ावा देने के लिए उस पर फोकस कर रही है। उनका कहना था कि यदि शिक्षा की गुणवत्‍ता और स्‍कूलों में शिक्षकों की उपस्थिति में सुधार कर लिया जाए तो शिक्षा से जुड़ी बहुत सारी समस्‍याएं सुलझाई जा सकती हैं।

दरअसल शिक्षा की गुणवत्‍ता बहुत बड़ा या मैं कहूं तो आज की शिक्षा का केंद्रीय मुद्दा है। केंद्र सरकार के अनेक संगठनों की रिपोर्टों में इस बात का खुलासा किया जा चुका है कि प्राइमरी से लेकर सेकंडरी तक की शिक्षा पाने वाले छात्रों की जानकारी व ज्ञान का स्‍तर वह है ही नहीं जिस स्‍तर की उनसे अपेक्षा की जाती है। या जो कक्षाएं वे पास कर चुके हैं।

यदि तीसरी कक्षा का छात्र भी ठीक से गिनती न बोल सके, वर्णमाला के बारे में उसे जानकारी न हो या फिर पांचवीं के बच्‍चे जोड़ और घटाव के सवाल तक हल न कर सकें अथवा आठवीं के बच्‍चे गुणा और भाग के प्रश्‍नों का उत्‍तर न दे सकें तो ऐसी शिक्षा का फायदा ही क्‍या है?

शिक्षा के साथ सरकारी तंत्र ने या हमारे राजनीतक तंत्र ने एक और बड़ा मजाक किया है कि वोटों की खातिर उन्‍होंने शिक्षा केंद्रों का संख्‍यात्‍मक विस्‍तार तो कर दिया है लेकिन वहां शिक्षा का स्‍तर क्‍या है, बच्‍चों को पढ़ाने वाले पर्याप्‍त शिक्षक हैं या नहीं या फिर पढ़ाई का माहौल पैदा करने वाली तमाम सुविधाएं उपलब्‍ध हैं या नहीं इस बात पर कोई ध्‍यान नहीं दिया गया।

हम जिस शिक्षा व्‍यवस्‍था का पोषण कर रहे हैं उस व्‍यवस्‍था में शिक्षा का मतलब एक भवन खड़ा कर देना और वहां कुछ लोगों को तैनात भर कर देना है। और गुणवत्‍ता के लिहाज से बच्‍चों की ही बात क्‍या करें, आप यू ट्यूब पर जाकर देखिए, ऐसे दर्जनों वीडियो आपको मिलेंगे जो बता रहे होंगे कि जिन लोगों पर बच्‍चों को पढ़ाने का जिम्‍मा है खुद उनके ज्ञान अथवा जानकारी का स्‍तर क्‍या है।

दरअसल जब शिक्षक ही गुणवत्‍तापूर्ण न होंगे, तो बच्‍चे कहां से शिक्षित हो सकेंगे। शिक्षा का कार्य सिर्फ नौकरी पा लेना या नौकरी कर लेना ही नहीं है। उसमें बाकी नौकरियों से अलग संवेदना और समर्पण की आवश्‍यकता होती है। यह सरकारी फाइल निपटाने का नहीं बच्‍चे के जीवन को गढ़ने और उसे संस्‍कारित करने का मामला है।

भारतीय शिक्षण मंडल के संगठन मंत्री और उज्‍जैन के अंतर्राष्‍ट्रीय गुरुकुल सम्‍मेलन के मुख्‍य आयोजनाकार मुकुल कानिटकर ने सम्‍मेलन के निष्‍कर्षों की जो जानकारी दी है उसमें गुरुकुल की शिक्षा प्रणाली को व्‍यक्तित्‍व का सर्वांगीण विकास कर बच्‍चों को समाज एवं राष्‍ट्रोपयोगी नागरिक बनाने वाला बताया है। बड़ा सवाल यह है कि क्‍या हमारी वर्तमान स्‍कूली शिक्षा प्रणाली ऐसा कर पा रही है?

उज्‍जैन के सम्‍मेलन में शिक्षा और रोजगार का मामला भी उठा। वहां कहा गया कि शिक्षा का अंतिम उद्देश्‍य जीविका नहीं जीवन है। लेकिन आज शिक्षा का प्रमुख हेतु तो उसके माध्‍यम से आजीविका प्राप्‍त करना ही है। समाज में यह धारणा स्‍थापित हो चुकी है कि आप किसी नौकरी के लिए तभी पात्र होंगे जब आप उसके लिए वांछित डिग्री या उस स्‍तर की शैक्षिक योग्‍यता रखते हों।

ऐसे में हम यदि कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्‍य जीविका नहीं जीवन है तो यह अपने आप में हमारी समूची शिक्षा व्‍यवस्‍था पर प्रश्‍नचिह्न है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक व्‍यवस्‍था को भी शिक्षा की गुणवत्‍ता से कोई लेना देना नहीं है। तभी तो राजनेता भी युवाओं को उनकी शैक्षिक योग्‍यता के आधार पर काम ढूंढने या काम करने के बजाय कभी पकौड़े की दुकान लगाने की सलाह दे रहे हैं तो कभी पान की गुमटी लगाने की…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here