मकबूल फिदा हुसैन को आज याद करते हुए क्या हम एक बार नये सिरे से उनका मूल्यांकन करने का साहस कर सकते हैं? या मौजूदा समय की प्रतिकूल स्थितियों को देखकर किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहेंगे। आज वे होते तो सौ बसंत का शतक लगा चुके होते। लेकिन शरद ऋतु में बसंत को याद करना एक नये किस्म का विवाद खड़ा करना है। वह भी तब जब हमें पता है कि सनातन काल से हम “जीवेत् शरद: शतम” कहते आ रहे हैं।
नि:सन्देह एम.एफ. हुसैन ने भारतीय कला को दुनिया के कला-बाजार में नई कीमत और पहचान दिलाकर उछाल पैदा किया, लेकिन अंतिम समय में उन्हें निर्वासित जीवन बसर करना पड़ा। लोग इस बात को भूल ही गए कि हैदराबाद से साठ के दशक में जब “कल्पना” पत्रिका निकलती थी, हुसैन ही उसमें महाभारत-रामायण के चित्र बनाते रहे। कल्पना के मालिक बद्री विशाल पित्ती इतने धनाढ्य थे कि हैदराबाद के निजाम उनसे उधार लेते थे। जाने-माने कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल की पिछले साल पित्ती पर एक किताब आई है, जिसमें इन सब बातों की चर्चा है। प्रयाग शुक्ल खुद दिनमान में आने से पहले लम्बे समय तक कल्पना में रहे और एकांत में बैठकर कल्पना के दिनों को याद करना उनका एक प्यारा शगल भी है। वही “कल्पना” जिसमें कभी कवि भवानीप्रसाद मिश्र भी रहे। सबको पता है बद्री विशाल पित्ती खानदानी रईस होकर भी खाँटी समाजवादी और डॉ. राममनोहर लोहिया के “भामाशाह” रहे। खासकर इस मायने में कि लोहियाजी के संसद के भाषणों से लेकर अनगिनत लेखों को उन्होंने मोटी-मोटी किताबों की शक्ल में छपवाकर बँटवाया।
बहरहाल, हम हुसैन को याद करें। उनके विवादित चित्रों को याद करते समय हम उनके बनाए महाभारत के पात्रों के लंबे-लंबे चित्रों को क्यों भूल जाते हैं। जबकि पता है कि इस्लाम में बेलबूटे और अलंकरण बनाने के सिवा बाकी उन सब चीजों की अनुकृति बनाने की मनाही है, जो परमेश्वर ने बनाई हैं। तब उनको भी तो इस बात पर बिरादरी से निकाला जा सकता था। कठमुल्ले फतवा जारी कर ही सकते थे। हुसैन ने गलती क्या की थी, जिस पर इतना बवाल मचा। उन्होंने सरस्वती की नग्न अनुकृति बनाई। इससे पहले वे वाणी प्रकाशन का वह लोगो तैयार कर चुके थे जिसमें आप चंद रेखाओं में सरस्वती को देख सकते हैं।
हुसैन को विवादों में लेकर आया भोपाल से छपनेवाली एक ऐसी पत्रिका का मालिक जो एक चिटफंट कंपनी से कुछ मोटी रकम लेकर उड़न-छू हो लिया था। “विचार-मीमांसा” नाम की इस पत्रिका का एक ही काम था- हर अंक के साथ भूचाल लाना, विवाद खड़े करना। इस पत्रिका ने सबसे पहले हुसैन की नकारात्मक छवि बनाई। फिर विवाद का सिलसिला थमा नहीं। हुसैन उस प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के चुनिंदा छह-सात सदस्यों में से थे जिसकी बुनियाद देश की आज़ादी से थोडा ही पहले मुम्बई में रखी गई। पं. जवाहरलाल नेहरू को 1890 के आसपास छपी ग्रीफिथ की किताब “अजंता” बहुत पसंद थी इसलिये चित्रकला का पुनरुत्थानवादी आंदोलन ज्यादा पसंद था। हुसैन के ग्रुप को प्रोत्साहित किया इंदिरा गांधी ने। उन दिनों इस बात की चर्चा रहती थी कि इंदिराजी सिर्फ दो कलाकारों के लिये चित्र बनवाने की खातिर देर तक धूप में खड़ी हो सकती हैं, मकबूल फिदा हुसैन और लखनऊ के अवतार सिंह पवार।
लेकिन हुसैन ने संघर्ष के दिन भी देखे थे। पंढरपुर की सर पर टोकरी और गोद में बच्चा ले जाती महिलाएँ उनके सपनों से कभी दूर नहीं गईं। उनके अब्बू टीन के दिये बनाते थे। चित्रकार अखिलेश से चर्चा में उन्होंने ये सब कुछ तफ़सील से बताया है। इंदौर मुम्बई के फ़ाकाकशी के दिनों में सिनेमा के पोस्टर बनाये। राजस्थान के रेगिस्तानों में अकेले-अकेले घूमकर श्वेत-श्याम वृत्त चित्र बनाया। यूँ समझिये- “दिलरुबा, तेरे लिये हमने क्या-क्या न किया/ दिल दिया, दर्द लिया।” ऐसे हुसैन को अपना अंतिम समय वतन से हजारों मील दूर क़तर और जाने कहाँ कहाँ निर्वासन में बिताना पड़ा।
बहादुर शाह ज़फर याद आते हैं-
कितना बदनसीब है ज़फर, दफ्न के लिये
दो ग़ज जमीन न मिली कू-ए-यार में
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यह सामग्री हमने ग्वालियर के श्री जयंत तोमर की फेसबुक वॉल से ली है।