शोक के उस पार!

-जीवनसंवाद-
दयाशंकर मिश्र

कोरोनावायरस की दूसरी लहर के बीच हमने जीवन को जितना सहमा, डरा हुआ पाया, इतना हम सबने कभी अनुभव नहीं किया। दादा परदादा की कहानियों में ऐसे जिक्र नहीं थे। हमारे बीच ऐसे लोग नहीं हैं, जिनकी स्मृति में स्पेनिश फ्लू के सबक हों। आप सबकी तरह मैंने भी अपने जीवन में आंसुओं की लंबी श्रृंखला, दर्द से कांपते, जूझते रात-दिन का सामना किया। सहकर्मी, दोस्त, परिजन मानो हवा की तेज आंधी में उड़ गए। मदद मांगते लोग भटकते रह गए लेकिन हम उनके लिए कुछ नहीं कर पाए। ऑक्सीजन की कमी, व्यवस्था के दोष से जिन्होंने हमारे सामने दम तोड़ दिया, इस दुख का बयान करना संभव नहीं!

जीवन दर्द से बाहर आने की प्रक्रिया में है। जिनको हमने खो दिया उनके शोक के उस पार जीवन की जिम्मेदारी है। जो नहीं रहे, उनके परिवार की मदद करके, दुख में सहभागी होते हुए ही यह संभव है कि हम दुख से कुछ हद तक पार पा सकें। मैंने अपने मित्र सुनील ओझा को कोरोना में खोया। सुनील, जीवन की प्राथमिक स्मृतियों का भागीदार था। जिसके साथ जीवन की ओर कदम बढ़े थे। जहां कहीं भी कुछ ‘दूसरे’ का नहीं था! सब कुछ हमारा था। मेरे जीवन में उसके जैसा कोई दूसरा न होगा। उसके जाने से मेरे जीवन में गहरा शून्य उत्पन्न हुआ, उसके साथ छोड़ने के दुख को मैं अच्छी तरह जीना चाहता था। इसलिए, खूब रोया। खूब जागा, उसे अच्छी तरह महसूस किया। तब तक उसमें डूबा रहा, जब तक शोक के उस पार का सवेरा मुझ तक नहीं पहुंचा!

‘जीवन संवाद’ की निरंतरता में अंतराल आया। मैं ‘संवाद’ और ‘जीवन’ दोनों के बीच तालमेल नहीं बना पा रहा था। इसलिए मैंने कुछ महीनों के लिए अवकाश लिया। उनके परिवार से संवाद के लिए, जिनका साथ छूट गया। उनके अधूरे काम करने के लिए, जिनका गहरा विश्वास था, मेरे प्रति…

दिल्ली से बहुत दूर अपने गांव गया, जिंदगी के पौधे को सींचने के लिए, जिनमें कोरोना से उत्पन्न तनाव, दुख की धूल जमा हो गई थी। आशा है, ‘जीवन संवाद’ एक बार फिर निरंतर आपकी जिंदगी का विनम्र हिस्सा बनेगा। बहुत से साथियों ने इस बीच निरंतर संपर्क किया, मुझे फिर से लिखने और संवाद के लिए प्रेरित किया। अपनी जिंदगी में इसके विनम्र योगदान को रेखांकित करते हुए मुझे प्रोत्साहित किया उन सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया! आपका यह स्नेह मेरे लिए अमूल्य है। मैं दोहराना चाहता हूं कि प्रोत्साहन की जरूरत हममें से हर किसी को है। जितनी आपको, उतनी ही मुझे भी…

इस बीच याद रखने की जरूरत है कि कोरोना की चुनौती अभी टली नहीं। इसलिए रस्म, रिवाज़, परंपरा के बीच विवेक सबसे महत्वपूर्ण है। हमारा कोई भी निर्णय ऐसा नहीं होना चाहिए जो जीवन पर भारी पड़ जाए। अंततः हमें जीवन को चुनना है, किसी भी रस्म के परे जाकर।

खलील जिब्रान की एक छोटी सी कहानी आपसे कहता हूं, जो मुझे बहुत प्रिय है। जीवन और महत्वाकांक्षा के बीच हमारी दृष्टि कैसी हो, उसमें यह मुझे बहुत उपयोगी लगती है। इसको थोड़ा ठहरकर सुनना होगा। इसके मंतव्य को समझना होगा। किसी भी कथा के बोध को समझने के लिए थोड़ी अतिरिक्त सजगता की जरूरत होती ही है।

एक लोमड़ी सुबह-सुबह उठी। अपनी छाया देखी। सुबह का सूरज उग रहा था। छाया बहुत बड़ी थी। उसने सोचा, ‘आज तो एक ऊंट मिले खाने को तभी पेट भरेगा। छाया इतनी बड़ी थी कि एक ऊंट से कम में पेट भरने को मन राजी न हुआ। उसने दोपहर तक ऊंट की तलाश की। लोमड़ी को ऊंट भला कहां मिले! अगर, वह मिल भी जाए तो लोमड़ी उसका करेगी क्या? दोपहर की धूप सिर चढ़ आई, लेकिन आज उसे कुछ मिला नहीं। उसने फिर छाया को देखा, अब छाया छोटी पड़ने लगी थी। उसने सोचा अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो काफी है। महत्वाकांक्षा और जीवन की आशा के बीच महीन अंतर होता है। कई बार ऊंट की आशा लेकर चलने वालों को चींटी भी नहीं मिलती।

सपनों की खोज में भटकना खराब नहीं। घने जंगल में जाना खतरनाक नहीं। अगर कुछ घातक है, तो वह है, जीवन का असंतुलित होते जाना। जीवन, जड़ से कटकर नहीं टिक सकता। जड़ से जुड़े होने का मतलब जड़ता (ठहराव) नहीं, बल्कि जमीन की गहराई से जुड़े होने से है। हसरतों के जंगल में हम भटक जाते हैं। घर-परिवार, दोस्त छूटते ही अकेलापन घेरता है। कोरोना ने जो शून्य पैदा किए, उनका सामना प्रेम, करुणा और जीवन की अंतर्दृष्टि से ही संभव है। प्रेम ही शोक के उस पार, जीवन की सुबह तक पहुंचाएगा। जीवन की शुभकामना सहित…
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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