जो हो रहा है वह शायद ठीक ही हो रहा है। गांधी अगर होते तो संभवत: वे खुद भी अपने आपको इन्हीं स्थितियों में पाते और कुछ-कुछ वैसे ही उपाय करने की सोचते जैसी हरकतें आज गांधी की प्रतिमाओं के साथ की जा रही हैं। और जब प्रतिमाओं के साथ यह व्यवहार है तो फिर भूल ही जाइए कि गांधी के विचार के साथ कोई बेहतर सलूक होगा।
गांधी ने अपने विचार के प्रतीक रूप में तीन बंदरों को चुना था। इनमें से पहले बंदर की मूर्ति बुरा मत कहो के प्रतीक के तौर पर थी, जिसमें बंदर ने अपने दोनों हाथों से मुंह को ढंक रखा था, दूसरा बुरा मत देखो का प्रतीक था, जिसने अपनी दोनों आंखों को ढंक रखा था और तीसरा बंदर बुरा मत सुनो की सीख देता था,जिसने अपने दोनों कान बंद कर रखे थे।
लेकिन ऐसा लगता है कि हमने तीन टुकड़ों में विभक्त गांधी के इस विचार को संक्षिप्त या एकरूप कर दिया है और हमारे लिए गांधी अब एक ऐसी प्रतिमा हैं जिसने आज के परिदृश्य को देखते हुए दोनों हाथों से अपना पूरा चेहरा ही ढंक लिया है। गांधी के इस देश में अब बुराइयों को अलग-अलग प्रतीकों के रूप में देखने की जरूरत नहीं है।
गांधी के विचार पर इन दिनों कबीर की सीख लागू होती है जो कहते हैं- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय… इसीलिए बेहतर है कि दूसरों को बुरा न कहने, बुरा न देखने और बुरा न सुनने की शिक्षा देने के बजाय, मुझसे बुरा न कोय कहते हुए खुद को ही ढंक लिया जाए।
शायद यही कारण रहा होगा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बागी विधायक कपिल मिश्रा और भाजपा विधायक मनजिंदरसिंह सिरसा ने गुरुवार को 11 मूर्ति इलाके में गांधी प्रतिमा के चेहरे पर मास्क चढ़ा दिया। कहने को यह हरकत प्रतीकात्मक रूप से दिल्ली में फैले प्रदूषण के विरोधस्वरूप की गई थी, लेकिन इसने समाज को एक नया ही प्रतीक प्रसंग दे दिया।
दिल्ली के विधायकों ने अनजाने ही प्राकृतिक प्रदूषण के साथ-साथ देश में बढ़ रहे वैचारिक प्रदूषण को भी इंगित कर दिया। आज जिस तरह दिल्ली वायु प्रदूषण के जानलेवा स्तर पर जा पहुंची है, उसी तरह गांधी और उनके विचार के खिलाफ पैदा किया जाने वाला वैचारिक प्रदूषण भी गांधी को मार रहा है। इतिहास की दृष्टि से तो गांधी की एक बार ही हत्या हुई थी, लेकिन वर्तमान में गांधी की रोज हत्या हो रही है।
मैं अब तक मानता और कहता आया था कि दुनिया में तमाम प्रतीक पुरुषों की प्रतिमाए ध्वस्त हो गई हों लेकिन गांधी और उनके विचार को ध्वस्त नहीं किया जा सका है। रूस में लेनिन तक को धराशायी कर दिया गया लेकिन गांधी आज भी दुनिया में अपने विचार के कारण जिंदा हैं। पर ऐसा लगता है कि अब यह धारण बदल देनी चाहिए।
जिस तरह रूस ने अपने आधुनिक निर्माता लेनिन को ध्वस्त किया, उसी तरह शायद भारत में अब गांधी भी ध्वस्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं। और ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कह रहा, हमारे आसपास होने वाली घटनाएं इसका प्रमाण बनती जा रही हैं। यकीन न हो तो चंद घंटों पहले के अखबारों पर नजर घुमा लीजिए, जहां आपको यह खबर सुर्खियों में मिलेगी कि गांधी के इस देश में, उन्हीं के हत्यारे का मंदिर बनने जा रहा है।
इस बात पर गर्व करें या सौ-सौ आंसू रोएं कि यह ‘सौभाग्य’ का टीका हमारे अपने मध्यप्रदेश के ही माथे पर लगा है। ग्वालियर में हिंदू महासभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयवीर भारद्वाज ने मीडिया से कहा कि हमने जिला प्रशासन से नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने के लिए जमीन की मांगी थी, प्रशासन ने इनकार किया तो हिंदू महासभा ने दौलतगंज क्षेत्र स्थित अपने ऑफिस को ही मंदिर बनाकर वहां गोडसे की प्रतिमा का पूजन कर लिया।
हिंदू महासभा का यह भी कहना है कि ‘‘युवा पीढ़ी नाथूराम गोडसे को नायक के रूप में पहचाने, इसलिए उनका मंदिर बनाया गया है।‘’ महासभा का तर्क है किगोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर देश की सेवा की थी, लेकिन उन्हें देश में खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। नाथूराम गोडसे को 15 नवंबर के दिन अंबाला में फांसी दी गई थी और हिंदू महासभा इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाती है।
इससे पहले ग्वालियर के निकट चंबल अंचल में, मुरैना जिले के जौरा में 8 अक्टूबर को गांधी पार्क स्थित गांधी प्रतिमा को आग लगा दी गई थी, जिससे गांधीजी का चश्मा जल गया था और मूर्ति के चेहरे का एक हिस्सा काला पड़ गया था।
हिंदू महासभा ने कुछ दिन पहले गांधी हत्याकांड का मामला दुबारा खुलवाने की कोशिशों का भी विरोध करते हुए कहा था कि ‘’यह हर किसी को पता है किमहासभा के नाथूराम गोडसे ने ही बापू की हत्या की थी। यह हमारी विरासत है। बीजेपी और आरएसएस इसे हमसे नहीं छीन सकते। वे गोडसे को किनारे कर,महात्मा गांधी से संबंधित सारा क्रेडिट खुद लेना चाहते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे।‘’
अब उसी ग्वालियर में, जहां गांधी की हत्या के षड़यंत्र का एक हिस्सा रचा गया, गोडसे की मूर्ति स्थापित हुई है। इस घटना पर महात्मा गांधी के पड़पोते तुषारगांधी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘हिंदू महासभा यदि नाथूराम का मंदिर बनाकर उन्हें पूजना चाहती है तो मैं उन्हें नहीं रोकूंगा। मैं विरोध करके इन्हें महत्व नहीं देनाचाहता। युवा पीढ़ी खुद तय करे कि उसे एक हत्यारे को नायक बनाना है या एक महापुरुष को।‘’
पर सवाल यह है कि क्या सचमुच युवा पीढ़ी को गांधी की चिंता या जरूरत है? क्या वास्तव में आज गांधी के विचार का कोई महत्व बचा है? और यदि ऐसा नहीं है, तो हमें मान लेना चाहिए कि यह गांधी की प्रतिमा को ढंकने या ध्वस्त करने और गोडसे की प्रतिमा को खड़ा करने का ही समय है। यही हमारी नियति है और इस नियति पर हम आंसू बहाने के लिए स्वतंत्र हैं।