यह एक विचित्र संयोग है। स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण के 125 साल पूरे होने के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 सितंबर को देश की राजधानी नई दिल्ली में युवाओं के साथ संवाद किया। दूसरी तरफ देश में प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उसके अगले दिन यानी 12 सितंबर को अमेरिका के बर्कले में युवाओं को संबोधित किया।
मोदी ने युवाओं से साफ सफाई, खान पान और नियमों के पालन से लेकर ‘रोज डे’तक पर बात की, वहीं राहुल ने वंशवाद से लेकर खुद के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पर बात की। एक प्रधानमंत्री ने युवाओं से कहा- इस मिट्टी से प्यार करना सीखो। वहीं देश में दशकों तक शासन कर चुकी पार्टी के उपाध्यक्ष ने बयान दिया- हां मैं प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हूं!
इस अंतर को यदि गहराई से समझें तो भारत की वर्तमान राजनीति की दशा और दिशा को समझने में आपको मदद मिलेगी। राजनीति में अवसर का लाभ कैसे उठाया जाता है और अवसर को कैसे हाथ से निकलने दिया जाता है इसकी सीख मिलेगी। भारतीय जनता पार्टी, जो इन दिनों देश की सत्ता पर काबिज है, उसके अध्यक्ष अमित शाह पूरे देश का दौरा कर अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने का काम कर रहे हैं। दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी पार्टी के उपाध्यक्ष विदेश का दौरा कर वहां के युवाओं से संवाद कर रहे हैं।
राहुल ने यह बात सीधे सीधे भारत में शायद कभी नहीं कही हो लेकिन मंगलवार को बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में छात्रों से संवाद करते हुए उन्होंने कहा- ‘’मैं पीएम पद का उम्मीदवार बनने को तैयार हूं। हमारी पार्टी में लोकतंत्र है और अगर पार्टी कहेगी तो मैं जिम्मेदारी लूंगा।‘’ यानी राहुल खुद को प्रधानमंत्री मटेरियल मानने लगे हैं।
बस यहीं आकर कांग्रेस और भाजपा के बीच में अंतर समझ में आ जाता है। दरअसल प्रधानमंत्री बनने के लिए घोषणा नहीं करना होती उसके लिए उपक्रम करना होता है। किसी के यह कहने से काम नहीं बन जाता कि मैं प्रधानमंत्री बनने को तैयार हूं। पार्टी यदि चाहेगी तो मैं यह जिम्मेदारी ले लूंगा। शायद यह मोटी सी बात राहुल नहीं समझ रहे कि यह उनके तय करने का नहीं बल्कि देश की जनता के तय करने का विषय है कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं।
राहुल भले ही चाह लें कि वे प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं, गांधी परिवार के प्रति समर्पित कांग्रेस भी भले यह तय कर ले कि राहुल ही उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। लेकिन क्या देश की जनता यह तय करने जा रही है कि 2019 के चुनाव में राहुल गांधी को वह भारत का नेतृत्व सौंपने को तैयार है। क्या कांग्रेस जमीनी तौर पर इतनी तैयारी से है कि वह राहुल के लिए प्रधानमंत्री बनने लायक जनसमर्थन और आवश्यक सांसद संख्या जुटा सके। और यदि ऐसा नहीं है तो फिर राहुल और कांग्रेस की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए?
राहुल ने बर्कले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कई मुद्दों पर आलोचना की। आर्थिक नीतियों से लेकर कश्मीर तक के मुद्दों पर उन्होंने मोदी को घेरा। साथ ही वे यह भी कह गए कि मोदी भाजपा नेताओं की भी नहीं सुनते। लेकिन क्या खुद राहुल गांधी कांग्रेस के नेताओं की सुनते हैं? क्या कांग्रेस के नेता दावे के साथ कह सकते हैं कि राहुल गांधी तक अपनी बात पहुंचाना उनके लिए बहुत आसान है।
दरअसल प्रधानमंत्री बनने या खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने या कहलवाने से ज्यादा जरूरी है कि व्यक्ति पहले अपनी पार्टी के सामने और फिर देश की जनता के सामने सार्थक तौर पर खुद को नेता के रूप में सिद्ध और स्थापित करे। प्रधानमंत्री बनने से पहले आपको सही मायनों में नेता बनना जरूरी है। और नेता सिर्फ पद पर आसीन हो जाने से नहीं बन जाया जाता। उसके लिए नेतृत्व की क्षमता और गुणवत्ता दोनों साबित करना पड़ती है। क्या राहुल ऐसा कर पाए हैं?
अकसर मोदी और राहुल की तुलना की जाती है। लेकिन इस तरह की तुलना का कोई मतलब इसलिए नहीं है क्योंकि दोनों के गुणों-अवगुणों और क्षमता-अक्षमता में जमीन आसमान का अंतर है। यकीन न हो तो विज्ञान भवन में दिए गए मोदी के 11 सितंबर के भाषण का वीडियो उठा लीजिए। आपको साफ लगेगा कि मोदी आखिर मोदी क्यों हैं।
मोदी के मोदीत्व का राज यह है कि वे अपने नेतृत्व के गुण को प्रदर्शित करना जानते हैं। राहुल और मोदी के बीच उम्र में 20 साल का अंतर है। मोदी चार दिन बाद 67 साल के हो जाएंगे जबकि राहुल की उम्र 47 साल है। यानी मोदी की तुलना में राहुल काफी जवान हैं। लेकिन युवाओं से बात करते वक्त जरा दोनों का अंदाज देखिए। विज्ञान भवन का कार्यक्रम आपको बताएगा कि तमाम आलोचनाओं के बावजूद युवाओं में मोदी के प्रति दीवानगी क्यों है।
वास्तव में मोदी के युवाओं के साथ संवाद पर तो अलग से बात और विश्लेषण होना चाहिए। मेरा मानना है कि मोदी जब भी युवाओं से बात करते हैं वे अपने सामने उपस्थित समुदाय से ज्यादा युवा और ऊर्जावान होकर संवाद करते हैं। खुद उन्होंने अपने 11 सितंबर के भाषण में कहा कि युवा होना परिस्थिति का नहीं मन:स्थिति का नाम है। देश की भावी पीढ़ी से खुद को जोड़ने का यह हुनर जब तक कांग्रेस या राहुल गांधी नहीं सीखेंगे तब तक वे अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे।