सत्ता संघर्ष और लोकतंत्र के सवाल

अरुण कुमार त्रिपाठी

विधिशास्त्र की समाजशास्त्रीय परिभाषा में कहा जाता है कि कानून कहीं होता नहीं, वह जब टूटता है तब प्रकट होता है। उसी से सूत्र उधार लेते हुए कहा जा सकता है कि लोकतंत्र कहीं होता नहीं, वह जब भंग होता है तब उसकी रक्षा के लिए मर्यादा, परंपरा और कानून प्रकट होते हैं। पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत में भी इन दिनों लोकतंत्र का बहुसंख्यक रूप प्रकट हो रहा है और साथ में प्रकट हो रहा है जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धांत। इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र कायम करने वालों ने इन्हीं दोनों प्रवृत्तियों के विरुद्ध कठिन संघर्ष करके उसका ताना बाना खड़ा किया था, लेकिन आज उसी ताने बाने पर सबसे कठोर प्रहार हो रहा है।

मणिपुर, गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश के बाद आजकल राजस्थान में जो कुछ चल रहा है उसके बारे में बहुचर्चित कहानी यही चल रही है कि इसमें गलत क्या है? इसमें भाजपा का कोई दोष नहीं है। सारा दोष कांग्रेस का है क्योंकि वह अपने घर को संभाल नहीं पा रही है। वैसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उसके पास न तो विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध लोग हैं और न ही नेतृत्व का करिश्माई चरित्र।

कांग्रेस लोकतांत्रिक परंपरा का ऐसा कोठार है जिसमें चूहे, घुन और दीमक सब लग गए हैं और उसका बर्तन भी टूट गया है। इसलिए उसका सारा अनाज बिखर रहा है। ऐसी स्थिति में उसमें न तो खाने लायक कुछ बचता है और न ही वह अंकुरण के माध्यम से अगली फसल तैयार करने के योग्य है। ऐसा कहने वाले मौजूदा घटनाओं को इतिहास की नियति मान रहे हैं और कह रहे हैं कि यहां योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत लागू हो रहा है। जो समर्थ रहेगा, जो धन से, सत्ता से मजबूत रहेगा, वही राज करेगा।

कुछ लोगों के लिए इन घटनाओं में कोई एक नियम और प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती। न ही किसी प्रकार की साजिश दिखाई पड़ती है। उन्हें इसमें सिर्फ कांग्रेस की कमजोरी ही दिखती है। उन्हें ज्यादा से ज्यादा दिखता है देश की इस सबसे पुरानी पार्टी (जीओपी) के भीतर पीढ़ियों का संघर्ष। विडंबना है कि इन घटनाओं को लोकतांत्रिक नैतिकता के आधार पर न देखने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। वे इसे राजनीति का खेल मानते हैं और शायद यह भी मानते हैं कि राजनीति में कोई नियम और मर्यादा नहीं है। सब कुछ खुला खेल फरुर्खाबादी है।

यह वही लोग हैं जिनके लिए अपराधियों का काम पुलिस की हत्या कर देना है और पुलिस का काम अपराधियों का इनकाउंटर कर देना। इस बीच में कानून, न्यायालय, मानवाधिकार सब नदारद हैं। इस दौरान एक स्वस्थ और लोकतांत्रिक समाज बनाने और पुलिस सुधार करने का स्वप्न भी अनुपस्थित है। हैरानी की बात यह है कि वे इसे ही लोकतंत्र की नजीर मानते हैं।

आइए पहले पीढ़ियों के द्वंद्व के सवाल पर विचार करते हैं। पीढ़ियों का अंतर्संघर्ष कोई अचानक उत्पन्न होने वाली परिघटना नहीं है। यह पूरी दुनिया में चलने वाली प्रक्रिया है और इसी से नया समाज और नया विचार उत्पन्न होता है। कई बार दो पीढ़ियों के बीच होने वाला यह परिवर्तन सहज रूप से हो जाता है और कई बार बहुत पीड़ादायक और तोड़फोड़ की स्थिति तक पहुंच जाता है।

यह महज संयोग नहीं है कि महात्मा गांधी ने अपने और सुभाष बाबू के बीच के संघर्ष को पिता और पुत्र के संघर्ष की तरह ही देखा था। उन्होंने सुभाष बाबू को अपना बिगड़ैल बेटा कह कर संबोधित किया था और माना था वे उन्हें समझा नहीं सके। उन्होंने इस संघर्ष को बाजश्रवा और नचिकेता जैसा बताया था। लेकिन वह संघर्ष पद और सत्ता से ज्यादा सिद्धांतों और रणनीतियों का संघर्ष था।

1939 में सुभाष बाबू की उम्र 42 साल और गांधी की 70 वर्ष थी। उस संघर्ष का एक रूप नेहरू और पटेल के बीच भी दिखाई देता है। हालांकि पटेल और नेहरू के बीच एक पीढ़ी का अंतर नहीं था लेकिन वह 14 वर्षों का तो था ही। उसी को देखते हुए गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बनाया और पटेल को दूसरे नंबर का नेता माना। हालांकि उन्हें उस विवाद से देश की हानि होने की चिंता थी। यही कारण है कि अपनी मृत्यु का सामना करने से चंद मिनट पहले वे पटेल को ही समझा रहे थे कि नेहरू का साथ न छोड़ना, देश बड़े संकट में है। पटेल को समझाने के ही चक्कर में उन्हें प्रार्थना सभा में जाने में विलंब हुआ था। जाते जाते उन्होंने पटेल से कहा था कि वे नेहरू से कल बात करेंगे, जो कल कभी नहीं आया। उस समय नेहरू 59 वर्ष के थे और पटेल 73 साल के।

देखने पर ज्योतिरादित्य सिंधिया बनाम कमलनाथ या सिंधिया बनाम दिग्विजय सिंह का द्वंद्व दो पीढ़ियों का द्वंद्व लगता है। ज्योतिरादित्य सिंधिया 49 वर्ष के हैं और दिग्विजय सिंह और कमलनाथ 73 साल के। अगर यह संघर्ष पीढ़ियों के बीच किसी त्याग और बलिदान के साथ विचारधारा के आधार पर होता तो सिंधिया जी को बाहर जाने की क्या जरूरत थी। वे उसे पार्टी के भीतर रह कर चला सकते थे। वैसे जैसे नरेंद्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं के विरुद्ध चलाया और बिना पार्टी तोड़े सत्ता पर काबिज हो गए।

यह तो सब जानते हैं कि विजय तो युवा पीढ़ी की ही होती है क्योंकि वह भविष्य है और वरिष्ठ पीढ़ी अतीत। अतीत कभी भविष्य पर विजय नहीं पा सकता। लेकिन मामला पीढ़ीगत हस्तांतरण का था नहीं। इस पूरे विवाद में सिद्धांत भी कहीं नहीं दिखता। इसमें थोड़े समय में ज्यादा से ज्यादा सत्ता प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा दिखाई देती है। यह एक प्रकार का राजनीतिक कॅरियरवाद है जिसे अवसरवाद कहना ज्यादा उचित होगा। लेकिन उससे भी ज्यादा दिखती है विचारहीनता।

कुछ वैसा ही मामला सचिन पायलट का दिखता है। गहलोत और सचिन पायलट की उम्र में भी पीढ़ियों का अंतर है। गहलोत 70 के पार हो रहे हैं तो सचिन पायलट अभी 41 के लपेटे में हैं। अगर कांग्रेस पार्टी में सचिन पायलट की तरक्की का ग्राफ देखा जाए तो उसमें सीधी और खड़ी चढ़ाई है। कहीं पर पठार नहीं है। ढलान तो है ही नहीं। जब सचिन 23 साल के थे तब उनके पिता राजेश पायलट (विधूड़ी) एक सड़क हादसे में जान गंवा बैठे। वे जब 26 साल के हुए तो सांसद बने और 32 साल की उम्र में केंद्रीय मंत्री। 36 साल की उम्र में वे राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने और 40 साल की उम्र में राजस्थान के उप मुख्यमंत्री।

यह प्रगति और कॅरियर कहीं से भी निराश नहीं करता। विशेष कर सचिन को अगर अपने पिता का संघर्ष याद हो तो कतई नहीं। गाजियाबाद के गांव में जन्मे उनके पिता राजेश पायलट दिल्ली में 112, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड के बंगले के आउटहाउस में रहते थे और आसपास की मंत्रियों की कोठी में दूध सप्लाई करते थे। आज भी कांग्रेस के भीतर तमाम कार्यकर्ता इस तरह का संघर्ष कर रहे होंगे। हालांकि गहलोत और सचिन पायलट के इस द्वंद्व में गहलोत द्वारा उन्हें आईपीसी की धारा 124 ए के तहत नोटिस देना बेहद निंदनीय कार्य है।

2019 के आमचुनाव में जिस धारा के दुरुपयोग से परेशान होकर कांग्रेस पार्टी ने जिसे खत्म करने की मांग की थी उस धारा के आधार पर अपने एक सहयोगी और उत्तराधिकारी पर ऐसी कार्रवाई करना लोकतांत्रिक मर्यादा का बड़ा उल्लंघन है। यह कांग्रेस की लोकतांत्रिक संस्कृति नहीं भाजपा की संस्कृति का हिस्सा है। अच्छा हुआ गहलोत ने और कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने समय रहते कार्रवाई की और राजस्थान की सरकार बच गई।

फिलहाल सचिन पायलट भी पार्टी से सुलह करने के मूड में दिखते हैं। लेकिन विधायकों को अयोग्य करार दिए जाने और फिर सरकार को कमजोर करने की कोशिशें आगे क्या रंग लाएंगी, कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। एक बात जरूर निश्चिंत होकर कही जा सकती है कि पीढ़ियों के इस संघर्ष का हल निकालने और पार्टी को टूट से बचाने की प्रक्रिया स्वयं कांग्रेस को ही विकसित करनी होगी। उसके लिए न तो भाजपा उसकी कोई मदद करेगी और कोई अन्य दल। बल्कि वे उसमें विध्न ही डालेंगे।

इसके लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय नेताओं को अहमियत देने के साथ ही उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्णायक भूमिका देनी होगी और समाज के विभिन्न तबकों को नेतृत्व में स्थान देना होगा। अगर कांग्रेस पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओं को बांध कर रखने में सक्षम नहीं है तो इसके लिए दूसरी कतार के कई नेताओं का एक मंडल बनाकर इस काम को करना होगा। कांग्रेस 1905 से 1916 के बीच, 1942 से 1945 के बीच और 1930 के नमक आंदोलन के बाद भी कई तरह के संकटों से जूझी है। अंग्रेज सरकार उसे खत्म कर देने पर आमादा थी।

आजाद भारत में भी कांग्रेस में टूट हुई है और फिर पुरानी परंपरा से ही नई कांग्रेस का उदय हुआ है। कई बार वह ताकतवर होकर उभरी है और कई बार जैसे तैसे खड़ी हो गई है। कांग्रेस की यह शक्ति देखकर उसे अपने कार्यालय का नाम फीनिक्स रख लेना चाहिए। शायद यही सोच कर गांधी जी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के आश्रम का नाम भी यही रखा था। लेकिन यहां यह बात जरूर कही जा सकती है कि कांग्रेस की युवा पीढ़ी के भीतर जिस त्याग और धैर्य की आवश्यकता है वह उसमें कम है और उसे निरंतर भरने की जरूरत है।

राजनीति न तो टू मिनट नोड्यूल का खेल है और न ही ये दिल मांगे मोर का। वह सिर्फ टैलेंट का मामला भी नहीं है। उसमें सच्चाई और नैतिकता के साथ प्रतिबद्धता भी बेहद जरूरी है। खास कर जब आप विपक्ष की राजनीति में होते हैं तो निरंतर सिद्धांतों और मूल्यों को खंगालना पड़ता है। उनके साथ जीना पड़ता है। कांग्रेस के युवाओं को समझना होगा कि वे इस देश की उदार लोकतांत्रिक परंपरा के वाहक हैं और अगर वे उसे समझने और जिंदा रखने में कोताही करेंगे तो वे भी वैसे ही हो जाएंगे जिनके विरुद्ध उनका संघर्ष है। तब न कांग्रेस बचेगी और न ही भारत का विचार। ऐसे में कांग्रेस के युवाओं को अपने कॅरियर से ज्यादा भारत और कांग्रेस की विरासत का स्मरण करना होगा।

लेकिन इन सब घटनाओं के लिए सिर्फ कांग्रेस को दोष देने से न तो यह प्रक्रिया रुकने वाली है और न ही देश के लोकतंत्र का पतन ठहरने वाला है। कांग्रेस को सुबह से शाम तक कोसने वाले पत्रकारों और बौद्धिकों की लंबी फौज है और वह बाकायदा हाई पैकेज पर काम कर रही है। वह मीडिया से लेकर देश के शैक्षणिक संस्थानों में पुरस्कृत होकर बैठी है और देश की तमाम बुराइयों की जड़ में कांग्रेस को ही देखती है। ऐसे समय में यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि कांग्रेस का कमजोर होना सिर्फ कांग्रेस का कमजोर होना नहीं है। वह देश के लोकतंत्र का कमजोर होना भी है।

कभी कांग्रेस से परेशान विपक्ष के नेता देवीलाल कहा करते थे कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। वह सिर्फ नियमों से नहीं चलता। उस समय भाजपा उनका साथ देती थी और कांग्रेस पर लोकलाज को भंग करने का आरोप लगाती थी क्योंकि एक दो विधायकों के भ्रम के कारण देवीलाल को हरियाणा में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। आज लोकलाज को भंग करने का वही काम भाजपा और उसकी केंद्रीय सरकार की मशीनरी कर रही है और करने के बाद पूरी निर्लज्जता के साथ खड़ी हो रही है।

कांग्रेस के भीतर होने वाली टूट को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक इसके पीछे चल रही एक प्रवृत्ति को नहीं समझेंगे। यह प्रवृत्ति है कांग्रेस मुक्त भारत की और फिर हिंदू राष्ट्र के निर्माण की। चूंकि कांग्रेस ने इस देश में लोकतंत्र कायम किया और कामचलाऊ तरीके से ही सही लेकिन देश के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षक भी वही रही है। क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय नजरिया बन नहीं पाता और अगर बनता है तो क्षेत्रीय हितों के कारण वे उससे समझौता कर लेते हैं। इसलिए यह देखना होगा कि किस तरह आपरेशन लोटस के तहत दलबदल कानून को ठेंगा दिखाकर सरकारें गिराई जा रही हैं।

इसका सिलसिला उत्तराखंड से शुरू होता है और मणिपुर, गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान होते हुए छत्तीसगढ़ व झारखंड तक जाने वाला है। जब दलबदल कानून बना था तो उसकी भावना यही थी कि राजनीतिक सत्ता के लिए आयाराम और गयाराम की परंपरा समाप्त की जाए। उसमें पार्टी में विभाजन की जो छूट दी गई थी उसे अंतरात्मा के सिद्धांत के आधार पर उचित ठहराया गया था। लेकिन जिस तरह से कर्नाटक में एक दर्जन विधायकों को इस्तीफा दिलाकर पहले विधानसभा की सदस्य संख्या कम कराई गई और बाद में उन्हें जितवा कर बहुमत हासिल कर लिया गया वह शर्मनाक है। उससे भी ज्यादा चिंताजनक था उस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला।

यही स्थिति मध्य प्रदेश में भी पैदा की गई है और राजस्थान को भी उस ढर्रे पर डाला जा सकता है। आपरेशन लोटस सही मायने में एक पार्टी का कमल खिलाने के लिए लोकतंत्र के सूर्य को अस्त करने का अभियान है। जरूरत सूरज के निकलने की है न कि कमल के खिलते रहने की। यह कांग्रेस के विचार और हाथ की जिम्मेदारी है कि वह सूर्य को अस्त होने से रोके। अगर हम इन राजनीतिक घटनाओं के रहस्य को नहीं समझेंगे तो रघुवीर सहाय की कविता की तरह लोकतंत्र के पतन का आनंद लेने के लिए अभिशप्त रहेंगे और एक दिन ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट की फिसलन के साथ ही पार्टियों के कंधों पर टिके लोकतंत्र को गंवा देंगे।

इस पूरे घटनाक्रम को राजनीतिक शक्तिपरीक्षण और जीत हार के खेल से आगे लोकतांत्रिक मूल्यों के संदर्भ में देखना होगा और उसके लिए युवाओं को जगाना होगा। रघुवीर सहाय ने इन्हीं स्थितियों पर कटाक्ष करते हुए लिखा था-
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हंसे
आप सभी हैं भ्रष्टाचारी कह कर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी, कह कर आप हंसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
कह कर आप हंसे,
सहसा मुझे अकेला पाकर
फिर से आप हंसे

2 COMMENTS

  1. लेखक की रचना निष्पक्ष, आज के परिप्रेक्ष्य में एकदम सटीक है।

    सत्तापक्ष एवं विपक्ष बनाने वाले हम सभी भारतवासियों को लोकतंत्र का मूल्य समझना होगा और सम्मान करना होगा अन्यथा हम इसे खो देंगे जो कि अत्यंत भयावह होगा।

    यहां एक उजला पक्ष यह भी है कि देश पर जब जब विपत्ति आती है चाहे वह बाहरी हो या आंतरिक, राजनितिक हो या तानाशाही सब का विरोध देश की जनता ने पूरजोर तरीके से किया है ।

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