टुकड़े टुकड़े पाकिस्तान-4
प्रशांत पोळ
बलूचिस्तान- फैलाव की दृष्टि से, या क्षेत्रफल की दृष्टि से, पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य। पाकिस्तानी जमीन का 44 प्रतिशत हिस्सा समेटने वाला। लेकिन सघन बसाहट नहीं। इसलिए जनसंख्या के मामले में पिछड़ा हुआ। सवा करोड़ के लगभग आबादी। समंदर को छूता हुआ किनारा। कुछ हिस्सा ईरान से जुड़ा हुआ, तो कुछ अफगानिस्तान से। आज कुछ उजड़ा हुआ सा लगने वाला यह प्रदेश किसी जमाने में अत्यंत संपन्न था। विश्व में खेती करने के सबसे प्राचीन प्रमाण, इसी क्षेत्र में मिले है।
बलूचिस्तान का इतिहास काफी पुराना है। कुछ हजार वर्ष पुराना। पहले यह पूरा क्षेत्र हिन्दू था। संस्कृत के श्लोक, वेदों के मंत्र, उपनिषदों की ऋचाएँ यहाँ के दर्रे में गूँजती थीं। इसी प्रदेश के मकरान क्षेत्र में, हिंगोल नदी के पास, अत्यंत दुर्गम पहाड़ी पर देवी भगवती के 51 शक्तिपीठों में से एक, ‘हिंगलाज माता का मंदिर’ है। अरबी समुद्र से यह मंदिर मात्र 20 किलोमीटर दूरी पर है। चूंकि यह क्षेत्र रेगिस्तानी भाग में आता है, इसलिए इसे ‘मरुतीर्थ हिंगलाज’ भी कहा जाता है। इसी रास्ते से सिकंदर भारत पर आक्रमण करने आया था। ऐसा माना जाता है, कि इस स्थान पर प्रभु श्रीराम, जमदग्नि ऋषि, गुरु गोरखनाथ और गुरु नानक देव जी भी आ चुके है।
हिंगलाज माता को चारणों की कुलदेवी माना जाता है। ये चारण लोग, बाद में बालूच कहलाएं। महाभारत काल में यह स्थान गांधार महाजनपद का हिस्सा था। महाभारत के युध्द में इस पूरे महाजनपद ने कौरवों की तरफ से युध्द में भाग लिया था। इसी बलूचिस्तान में, बालाकोट के पास, मेहरगढ़ क्षेत्र में जो उत्खनन हुआ, उसमें हड़प्पा से भी पुरानी सभ्यता के अवशेष मिले। इस प्रदेश में बोलन नदी के किनारे कुछ हजार वर्ष पूर्व एक विकसित सभ्यता थी, यह सिध्द हुआ है।
सन 711 में, जब मुहम्मद–बिन– कासम ने इस क्षेत्र पर हमले प्रारंभ किए, तब हिन्दू–बौध्द रहा यह पूरा इलाका, धीरे धीरे मुस्लिम होता गया। अकबर के शासन काल में, बलूचिस्तान मुगल साम्राज्य के अधीन था। लेकिन सन 1638 में मुगलों ने पर्सिया (अर्थात ईरान) को यह इलाका सौंप दिया। लेकिन बाद में कलात के मीर नासिर खान ने 1758 में अफगान शासन की अधीनता मान्य की।
प्रथम अफगान युध्द के बाद (अर्थात 1842 के बाद), इस क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने इसे चार रियासतों में बाँट दिया– कलात, मकरान, लस बेला और खारत। लेकिन बीसवीं सदी के प्रारंभ से बलूचों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ किया। 1941 में (जब द्वितीय विश्व युध्द अपने चरम पर था) बलूचिस्तान की आजादी के लिए ‘अंजुमन–ए–इत्तेहाद–ए–बलूचिस्तान’ का गठन हुआ। सन 1944 में, अंग्रेज़ जनरल मनी ने बलूचिस्तान की स्वतन्त्रता की दिशा में स्पष्ट संकेत दिये।
मजेदार बात यह, कि रहमत अली ने पाकिस्तान की कल्पना करते हुए, इस मुस्लिम राष्ट्र के नाम में जो ‘स्तान’ जोड़ा था, वह बलूचिस्तान से ही लिया था। लेकिन जिस दिन पाकिस्तान स्वतंत्र हुआ, उस दिन उसके नक्शे में बलूचिस्तान नहीं था! जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, या जिसका ‘पाकिस्तान’ इस प्रस्तावित नाम में भी उल्लेख नहीं था, ऐसा पूर्व बंगाल पाकिस्तान में था। लेकिन बलूचिस्तान नहीं आ सका। वह तो पाकिस्तान को आजादी मिलने के, अर्थात 14 अगस्त, 1947 से तीन दिन पहले ही आजाद हो गया था।
कलात, बलूचिस्तान के प्रमुख शहरों में से एक। क्वेटा से केवल नब्बे मील दूरी पर स्थित सघन जनसंख्या वाला शहर है। मजबूत दीवारों के भीतर बसे हुए इस शहर का इतिहास दो-ढाई हजार वर्ष पुराना है। कुजदर, गंदावा, नुश्की, क्वेटा जैसे शहरों में जाना हो तो कलात शहर को पार करके ही जाना पड़ता था। इसीलिए इस शहर का एक विशिष्ट सामरिक महत्व भी था। बड़ी-बड़ी दीवारों के अंदर बसे इस शहर के मध्यभाग में एक बड़ी सी हवेली थी। इस हवेली के, (गढी के) जो खान थे, उनका ‘राजभवन’ बलूचिस्तान की राजनीति का प्रमुख केन्द्र था। इस राजभवन में मुस्लिम लीग, ब्रिटिश सरकार के रेजिडेंट और कलात के मीर अहमद यार खान की एक बैठक हुई। इनके बीच एक संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसके माध्यम से 11 अगस्त 1947 से, कलात एक स्वतन्त्र देश के रूप में काम करने लगेगा।
ब्रिटिश राज्य व्यवस्था में बलूचिस्तान के कलात का एक विशेष स्थान पहले से ही था। सारी 560 रियासतों और रजवाड़ों को अंग्रेजों ने ‘अ’ श्रेणी में रखा, जबकि सिक्किम, भूटान और कलात को उन्होंने ‘ब’ श्रेणी की रियासत का दर्जा दिया हुआ था। अंततः 11 अगस्त को, दोपहर एक बजे संधिपत्र पर तीनों के हस्ताक्षर हुए। इस संधि के द्वारा यह घोषित किया गया कि कलात अब भारत का राज्य नहीं रहा, बल्कि यह एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया। मीर अहमद यार खान इस देश के पहले राष्ट्रप्रमुख बने।
कलात के साथ ही मीर अहमद यार खान साहब का पूर्ण वर्चस्व इस इलाके के पड़ोस में स्थित लास बेला, मकरान और खारान क्षेत्रों पर भी था। इसलिए भारत की स्वतंत्रता और पाकिस्तान का निर्माण होने से पहले ही, इन सभी भागों को मिलाकर, मीर अहमद यार खान के नेतृत्व में बलूचिस्तान राष्ट्र का निर्माण हो गया। बलोच लोगों ने न तो पहले कभी पाकिस्तान में जाने के बारे में सोचा था, न ही आज उनकी वैसी मानसिकता है। बलूचिस्तान स्वतंत्र देश बनना चाहता था, और वह बना भी।
किन्तु बलूचिस्तान की यह स्वतन्त्रता पाकिस्तान को फूटी आँख नहीं सुहा रही थी। आखिरकार, सात महीने और सोलह दिन की बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद, दिनांक 27 मार्च, 1948 को पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल अकबर खान ने इस छोटे से देश पर बलात कब्जा कर लिया। पिछले साढ़े सात महीनों में, यह छोटासा देश अपनी सेना की जमावट भी ठीक से नहीं कर सका था। इसलिए प्रतिकार ज्यादा हुआ नहीं और पाकिस्तान के कब्जे में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह प्रदेश आ गया।
पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर कब्जा तो कर लिया, किन्तु शासन करना कठिन था। मकरान, खारन और लस बेला तो पूर्णतः पाकिस्तान में शामिल हो गए। किन्तु कलात रियासत ने शामिल होने के बाद भी अपना अस्तित्व कायम रखा। आखिरकार, सन 1955 में कलात रियासत भी पाकिस्तान में पूर्णतः विलीन हो गई। मार्च 1948 में बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का कब्जा होते ही विरोध के स्वर बुलंद होने लगे।
कलात के अहमद यार खान ने तो पाकिस्तानी कब्जे का ज्यादा विरोध नहीं किया, परंतु उनके भाई राजकुमार अब्दुल करीम ने, जुलाई 1948 में पाकिस्तान के इस बलात कब्जे के विरोध में विद्रोह कर दिया। अपने अनुयाइयों के साथ वह अफगानिस्तान चला गया। तत्कालीन अफगान सरकार, बलूचिस्तान को पाकिस्तान से लग कर के, उसे अपने कब्जे में लाना चाहती थी। क्यूंकि उन्हें समुद्री बन्दरगाह (सी पोर्ट) नसीब नहीं था और बलूचिस्तान के पास समंदर था।
लेकिन राजकुमार अब्दुल करीम को अफगान सरकार से वांछित समर्थन नहीं मिल पाया। अंततः लगभग एक वर्ष के बाद, राजकुमार करीम ने पाकिस्तानी सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बलूचिस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन में एक जबरदस्त नाम उभरा – नवाब नौरोज़ खान। 1955 में जब कलात रियासत को समाप्त कर उसे पूर्णतः पाकिस्तान में, ‘वन यूनिट’ पॉलिसी के अंतर्गत विलय किया गया, तो नवाब नौरोज़ खान ने पाकिस्तान का प्रखर विरोध किया। 1958 में उन्होंने पाकिस्तानी सरकार के विरोध में गुरिल्ला युध्द छेड़ दिया। वे नहीं चाहते थे की अन्य राज्यों की तरह बलूचिस्तान पर भी पाकिस्तान का नियंत्रण हो।
किन्तु कुछ ही महीनों के बाद, अर्थात 15 मई 1959 को, नवाब नौरोज़ खान, पाकिस्तान सरकार के सामने आत्मसमर्पण को मजबूर हुए। पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें और उनके सभी साथियों को माफी का आश्वासन दिया था। लेकिन फितरत के मुताबिक, पाकिस्तान सरकार ने अपना ही वचन तोड़ दिया। नवाब के रिश्तेदार और 150 वफादार सैनिकों को पाक सरकार ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया। आखिरकार 15 जुलाई को इस विद्रोह के पांच नेताओं को फांसी पर लटकाकर मारा गया। नवाब नौरोज़ खान की उम्र हो चली थी, इसलिए उन्हे बख्शा गया। लेकिन पांच साल बाद, 1964 में, नवाब साहब कोहलू के जेल में चल बसे।
इस विद्रोह की चिंगारी भी इसी के साथ समाप्त हो जायेगी ऐसा पाकिस्तान सरकार को लगा। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान की स्थिति देखते हुए, वहां संवेदनशील इलाकों में सैनिक अड्डे तैयार करवाने का काम शुरू किया। इससे स्वतंत्र बलूचिस्तान समर्थक खौल उठे। उनके नेता शेर मोहम्मद बिजरानी ने, 72 हजार किलोमीटर के क्षेत्र में अपने गुरिल्ला लड़कों के अड्डे खड़े किए। बलूचिस्तान में गैस के अनेक भंडार हैं। ये विद्रोही नेता चाहते थे कि पाकिस्तान सरकार इन गैस भंडारों से मिलने वाली कुछ आमदनी इन कबाईली नेताओं से भी साझा करे। यह लड़ाई छह साल चली। किन्तु अंत में बलूचिस्तान की स्वतंत्रता चाहने वाले विद्रोही सैनिक थक गए और राष्ट्रपति यांह्या खान के साथ युध्दविराम को राजी हो गए।
युध्दविराम होने के कुछ ही महीनों बाद, 1970 के दिसंबर में पाकिस्तान में पहले आम चुनाव हुए, यह आम चुनाव पाकिस्तान की किस्मत बदलने वाले थे। पाकिस्तान का इतिहास और भूगोल इन्ही चुनावों ने बदला। इन चुनावों में जहां पूर्व पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग प्रचंड बहुमत से विजयी रही। तो यहाँ पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फिकार भुट्टो के पीपीपी की लगभग सभी प्रान्तों में जीत हुई– सिवाय बलूचिस्तान और नॉर्थ वेस्ट फ़्रंटियल प्रोविन्स (NWFP) के।
बलूचिस्तान में नेशनल अवामी पार्टी जीती, जो स्वतंत्रता वादी बलूचों की पार्टी थी। राष्ट्रीय असेंबली की 300 में से 160 सीटें शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने जीतीं, भुट्टो की पार्टी को मिली मात्र 81। 1971 का वर्ष पाकिस्तान के इतिहास में भारी उथल पुथल वाला रहा। इस वर्ष के समाप्त होने के पहले, पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए और ‘बांगला देश’ के रूप में नए राष्ट्र का उदय हुआ, जो पहले ‘पूर्व पाकिस्तान’ था।
अब बचे खुचे पाकिस्तान में, जनरल याह्या खान को बलूचिस्तान में ‘नेशनल अवामी पार्टी’ की जीत बहुत अखर रही थी। उसे लग रहा था कि, ‘ये बलूच लोग, ईरान के साथ मिलकर एक बड़ा संघर्ष खड़ा करने वाले हैं।’ इसलिए, 1971 के युध्द से थोड़े उबरते ही, पाकिस्तान ने 1973 के प्रारंभ में बलूचिस्तान की प्रादेशिक सरकार को बर्खास्त किया और वहां पर 80 हजार पाकिस्तानी फौज उतार दी।
बांगला देश की गलती से सबक न सीखने वाले पाकिस्तान ने, बलूचिस्तान में भी वही किया। भीषण अत्याचार! बलूचिस्तान की तरफ जाने वाले सभी रास्ते बंद कर दिये गए। कुछ क्षेत्रों में, जहां पाकिस्तानी सेना को, बलूची विद्रोहियों के अड्डे होने की आशंका थी, वहां पर हवाई हमले भी किए गए। अनेक स्थानों पर बलूच विद्रोही और पाकिस्तानी सेना में जबरदस्त संघर्ष भी हुआ। हजारों की संख्या में दोनों तरफ के लोग मारे गए। अनेक विद्रोही बलूच नेता, अफगानिस्तान पहुंचने में सफल रहे। इस भयानक अत्याचार, दमन और संघर्ष के बाद, बलूच स्वतंत्रता आंदोलन में एक छोटा-सा ठहराव आया। लेकिन इस ठहराव से एक सृजन हुआ– संगठित सशस्त्र आंदोलन का। बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी का!
(ये कुछ संपादित अंश थे, मेरी आगामी पुस्तक, ‘टुकड़े टुकड़े पाकिस्तान’ के। आज से ठीक 73 वर्ष पहले, हमारे प्राचीन और समृध्द देश का विभाजन हुआ था, और इस्लाम पर आधारित पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। आज वही पाकिस्तान, टुकड़ों, टुकड़ों में बंटने की स्थिति में आ पहुचा है। उसका सबसे बड़ा टुकड़ा तो 1971 में ही अलग हो कर ‘बांगला देश’ बन गया था। बचे हुए टुकड़े भी, आज नहीं तो कल, अलग होने की स्थिति में हैं। इस्लामी आक्रामकता और भीड़-तंत्र ने इस भरे पूरे देश को विभाजित कर के, खंडित हिस्से को बर्बादी के रास्ते पर ला कर खड़ा कर दिया है। इस इतिहास को हम ना भूलें।- प्रशांत पोळ)