अरुण पटेल
राष्ट्रीय फलक पर विपक्षी दलों के एकजुट होने के गंभीर प्रयासों और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सांसद राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा के बाद भाजपा भी अब राष्ट्रीय स्तर पर एक्शन मोड में आ गई है और मिशन 2024 की तैयारियों के सिलसिले में उसने कई राज्यों के प्रभारी बदल दिए हैं। इस बदलाव में छत्तीसगढ़ प्रभावित हुआ है तो मध्यप्रदेश में केवल एक सह-प्रभारी बदला गया है। छत्तीसगढ़ के प्रभारी बनाये गये ओम माथुर भाजपा के उन नेताओं में से हैं जो बोलने में कम और परिणाम देने तथा करने में अधिक विश्वास करते हैं।
हालांकि ये बदलाव लोकसभा चुनाव के मद्देनजर किए गए हैं लेकिन इससे पूर्व जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं वहां की जमीनी आवश्यकताओं और संगठन को चुस्त-दुरुस्त करने की दृष्टि से इन बदलावों का और अधिक महत्व हो गया है। छत्तीसगढ़ में 2018 के विधानसभा चुनाव से भाजपा के लिए जो फिसलन भरी राहें पैदा हुई हैं उसे नये सिरे से पार्टी के लिए उर्वरा बनाने का दायित्व माथुर को सौंपा गया है।
इस बदलाव के बाद अब छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम को और अधिक सजग व चौकन्ना रहने की जरुरत है ताकि उनके विजय रथ को किसी प्रकार का ब्रेक न लग पाये। कांग्रेस को और अधिक चुस्त-दुरुस्त व एकजुट करने की ओर उन्हें बहुत ध्यान देना होगा अन्यथा ओम माथुर उसके पैरों के नीचे की जमीन चुपचाप कब खिसका देंगे इसकी कांग्रेस को भनक भी नहीं लग पायेगी। बघेल को अब राष्ट्रीय फलक पर कम और छत्तीसगढ़ के मोर्चे पर और अधिक सक्रिय रहना होगा।
भाजपा ने 15 राज्यों के प्रभारियों एवं सह-प्रभारियों का ऐलान कर दिया है और यह बदलाव इसलिए भी काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि यह राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और गृहमंत्री अमित शाह की भाजपा मुख्यालय में मिशन 2024 को लेकर हुई बैठक के तीन दिन बाद ही सामने आया है। 2023 में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजस्थान व मध्यप्रदेश में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है, लेकिन छत्तीसगढ़ में बड़ा बदलाव किया गया है।
मध्यप्रदेश में केवल सह-प्रभारी के रूप में सांसद डॉ. रामशंकर कठेरिया को जोड़ा गया है, जबकि पंकजा मुंडे पहले से ही सह-प्रभारी थीं। सह-प्रभारी विश्वेश्वर टुडू को बदल दिया गया है। मूलतः आंध्रप्रदेश के निवासी पी. मुरलीधर राव को प्रधानमंत्री मोदी का भरोसेमंद माना जाता है और उन्हें 2020 में मध्यप्रदेश का प्रभारी बनाया गया था तबसे वे यहां पूरी तरह सक्रिय हैं।
वैसे मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अपना अलग आभामंडल है और उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों से सीधे रिश्ते बना रखे हैं। इसलिए यहां पर फिलहाल भाजपा के लिए कोई बड़ी चुनौती उस समय तक नजर नहीं आती जब तक कि कांग्रेस बूथ स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक एकजुट न हो जाये और ‘करो या मरो’ की शैली में आक्रामक ढंग से मैदान में नजर आये।
मध्यप्रदेश में तो प्रभारी बदलने की दरकार कांग्रेस को अधिक थी क्योंकि पिछले प्रभारी मुकुल वासनिक कब आते थे और कब चले जाते थे इसका पता ही नहीं चलता था। कांग्रेस को यहां पर दीपक बावरिया जैसे प्रभारी की आवश्यकता थी, जिनकी पूरे मध्यप्रदेश पर नजर थी और वह ज्यादातर प्रदेश में रहते थे। कांग्रेस ने मुकुल वासनिक के स्थान पर यह जिम्मेदारी दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे पार्टी के वरिष्ठ नेता जे.पी. अग्रवाल को सौंप दी है जो काफी अनुभवी हैं और मूलतः संगठन के आदमी माने जाते हैं।
हालांकि कांग्रेस ने यह बताने कोशिश की है कि मुकुल वासनिक को उनके अनुरोध पर ही मध्यप्रदेश के दायित्व से मुक्त किया गया है। कारण चाहे जो हो लेकिन अब प्रभारी जे. पी. अग्रवाल हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने उन्हें शुभकामनाएं देते हुए कहा है कि उनकी संगठन क्षमता का लाभ अब मध्यप्रदेश को भी मिलेगा। अग्रवाल दिल्ली से चार बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। वे 2006 में राज्यसभा सदस्य चुने गए थे। वे दिल्ली के डिप्टी मेयर भी रहे हैं। उनकी पहचान एक कुशल संगठनकर्ता की है। वे गांधी परिवार के विश्वासपात्र माने जाते हैं।
भाजपा तलाश रही जमीन
2019 का लोकसभा चुनाव जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया था उसको छोड़ दिया जाए तो 2018 से छत्तीसगढ़ लगातार भाजपा के लिए फिसलपट्टी बनता जा रहा है। भाजपा ने पहले डी. पुरंदेश्वरी को प्रभारी बनाया लेकिन वह उसे मजबूत करना तो दूर बल्कि हिंदीभाषी न होने के कारण कभी-कभी ऐसा बोल जाती थीं कि भाजपा के स्थानीय नेताओं की समूची ताकत ही उसके असर को समाप्त करने में लग जाती थी, क्योंकि कांग्रेस उसका फायदा उठाने में कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देती थी।
अब जबकि भाजपा की डेढ़ दशक तक उर्वरा रही जमीन पूरी तरह से दलदली हो गयी तब फिर उसे उर्वरा बनाने की चिन्ता हाईकमान को हुई। भाजपा ने पहले प्रदेश अध्यक्ष और बाद में नेता प्रतिपक्ष में बदलाव किया और जो बदलाव हुआ उसको लेकर भी अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं रही। कुछ लोग यह मानते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजनीतिक पृष्ठभूमि, जातिगत आधार और वोट बैंक की दृष्टि से यह बदलाव कोई विशेष असर नहीं डालने वाले हैं।
शायद पुरंदेश्वरी को हटाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि कांग्रेस की रही है। भाजपा के ही एक वर्ग में यह भावना भी अंदर ही अंदर रही, हालांकि वह सतह पर नहीं आई पर उन्हें लेकर कई लोगों को यह शंका थी कि कहीं वे अंदर से कांग्रेस सरकार को मदद तो नहीं कर रही हैं। अब उनके स्थान पर ओम माथुर को प्रभारी बनाया गया है जो एक अनुभवी व परिणामोन्मुखी नेता हैं और 2003 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस को 40 से भी कम सीटों पर समेट देने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
माथुर की कार्यशैली ऐसी है कि न तो उन्हें कोई अपने को हाईकमान का चहेता होने के नाम पर अपने पक्ष में कर सकता था और न ही लम्बी-चौड़ी हवाई बातें करके अपना प्रभाव उन पर जमा सकता है। जब वे मध्यप्रदेश के प्रभारी थे उस समय सुंदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, उमा भारती जैसे दिग्गज नेता थे और पूर्व राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी जैसे कुशल और दबंग संगठन महामंत्री थे। उन सबसे पूरी तरह तालमेल बैठा कर उन्होंने भाजपा को 2003 में शानदार सफलता दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी।
छत्तीसगढ़ में उनके सामने अनुकूल परिणाम देने की राह में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भाजपा के पास यहां ऐसा कोई चेहरा नहीं है जो पूरे प्रदेश में अपनी मजबूत पकड़ रखता हो। बृजमोहन अग्रवाल अवश्य ही एक प्रभावी चेहरा पूरे प्रदेश में हो सकते हैं लेकिन यहां की जातिगत संरचना अलग होने के कारण भाजपा उन्हें चेहरे के रुप में आज तक प्रोजेक्ट नहीं कर पाई। अन्यथा उनके जैसा मिलनसार और असरकारक दूसरा नेता उसके पास फिलहाल नहीं है।
डॉ. रमन सिंह ही आज भी एक ऐसे चेहरे हैं जिनकी पूरे प्रदेश में पहचान है, लेकिन पार्टी उन्हें एक प्रकार से हाशिए पर डालने में ही अपनी बेहतरी समझ रही है। सवाल यही है कि पार्टी ऐसे किस चेहरे को आगे करेगी जो भूपेश बघेल का सामना कर सके। बघेल ने तो उन मुद्दों को भी भाजपा से छीन लिया जिन पर वह अभी तक राजनीति करती आ रही थी। हितग्राहियों का एक बड़ा वोट बैंक बघेल ने तैयार कर रखा है। इन परिस्थितियों के बावजूद ओम माथुर को प्रभारी बनाकर भाजपा हाईकमान ने अपना मास्टर स्ट्रोक लगा दिया है, अब इसके क्या नतीजे निकलते हैं यह तो डेढ़ साल बाद ही पता चलेगा। (मध्यमत)
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