कैफे कॉफी डे यानी सीसीडी के मालिक वी.जी. सिद्धार्थ की आत्महत्या को लेकर 2 अगस्त को मैंने लिखा था कि ‘’सिद्धार्थ की मौत वास्तव में ‘अलार्मिंग बेल’ है जिसने देश के एक बड़े कारोबारी को खोने के साथ ही हमें अपनी समूची अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा पर सोचने का अवसर भी दिया है। कायदे से सरकार को इस मौत की उच्चस्तरीय और बहुआयामी जांच करवानी चाहिए। ताकि पता चल सके कि आखिर हम से चूक कहां हो रही है। आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों में वे कौन से कारण या तत्व हैं जो हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद को घुन की तरह खा रहे हैं। वे कौनसी परिस्थितियां हैं जो लोगों को कारोबार से विमुख करते हुए आत्महत्या तक के लिए मजबूर कर रही हैं।‘’
इस पर मुझे एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया कृषि मामलों के विशेषज्ञ और स्तंभ लेखक देविंदर शर्माजी की मिली है। उनका कहना है कि ‘’यह सब कॉरपोरेट का खेल है। जब किसानों की कर्ज माफी या उनकी मदद की बात आती है तो कई सारे किंतु परंतु लगा दिए जाते हैं, लेकिन कॉरपोरेट जिस तरह घुन बनकर देश की अर्थव्यवसथा को चूस रहा है और सरकारें भी उनका लाखों करोड़ रुपये का कर्जा माफ कर रही हैं, उस पर कोई बात नहीं करता।‘’
‘’सिद्धार्थ की मौत दुखद है, लेकिन इसके बहाने जो चर्चा चलाई जा रही है उस पर गंभीरता और बहुत सावधानी से समझ बनानी होगी। कॉरपोरेट इस घटना को इस तरह प्रचारित करने में जुट गया है मानो अब उसके पास आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। मैं समझ नहीं पाता कि जो व्यक्ति 140 रुपए में एक कप कॉफी और 120 रुपए में एक कप चाय बेचकर भी मुनाफा नहीं कमा पा रहा हो या अपना बिजनेस ठीक से मैनेज न कर पा रहा हो उसे आप क्या कहेंगे।‘’
देविंदर शर्मा जी का मत था कि ‘’इस घटना को कॉरपोरेट फिर खुद के फायदे के लिए इस्तेमाल करेगा और अपनी बदहाली की तसवीर पेश करते हुए सरकार से और अधिक रियायतें पाने की कोशिश करेगा। देश को सोचना होगा कि कब तक हर साल हम इस कॉरपोरेट का हजारों करोड़ का कर्जा माफ करते जाएंगे और उनके लिए अधिक से अधिक कर्ज मुहैया कराते हुए अपनी बैंकों को गड्ढे में उतारते जाएंगे।‘’
निश्चित रूप से देविंदर शर्माजी की बात अपनी जगह बिलकुल जायज है। जनधन पर चलने वाले बैंकों से कारोबार के नाम पर लाखों करोड़ रुपए का कर्ज लेने और बाद में कारोबार को घाटे में बताकर या कर्ज की राशि का गैर जरूरी इस्तेमाल कर दिवालियेपन की कगार पर पहुंच जाने वाले कॉरपोरेट्स पर लगाम कसनी ही होगी।
जिस तरह हजारों करोड़ का कर्ज लेकर लोग विदेश भाग गए हैं वह दर्शाता है कि कर्ज को कारोबार में कम और अपने ऐशोआराम या शानो शैकत पर खर्च कर अथवा कारोबार को लेकर गैरबुद्धिमत्तापूर्ण फैसलों से, यूं ही बरबाद किया जा रहा है। हमें कर्ज की इस अर्थव्यवस्था के गुण-दोषों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। चाहे खेती हो या कारोबार, हम दोनों क्षेत्रों को खुद के बूते पर सक्षम बनाने के बजाय उन्हें कर्ज की सांसों पर चलाए रखने वाला ढांचा खड़ा करते जा रहे हैं।
ऐसा लगता है कि वर्तमान आर्थिक ढांचे में इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा कि जिसे जितना कर्ज दिया जा रहा है उसमें वो कर्ज पटाने की क्षमता है भी या नहीं। अथवा जिस बात के लिए कर्ज लिया जा रहा है वह राशि उसी बात पर खर्च की जा रही है या नहीं। और जब यह कर्ज सिर से ऊपर हो जाता है तो सरकारों पर यह दबाव बनता है कि उसे माफ किया जाए। सरकारें ऐसे मामलों में फैसले भी आर्थिक आधार के बजाय राजनीतिक आधार पर लेती हैं और नतीजा होता है बैंकों का लाखों करोड़ का एनपीए।
पिछले दिनों ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक खबर छपी जो कहती है कि पिछले दस सालों में बैंको ने न वसूले जाने योग्य कर्ज के रूप में 700000 करोड़ रुपए की राशि बट्टे खाते में डाली है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक इसमें से 1,56,702 करोड़ रुपए तो अकेले 2018 के अंतिम नौ महीनों में राइट ऑफ किए गए। अप्रैल 2014 से अब तक यानी सिर्फ पांच सालों में बैंकें 5,55,603 करोड़ रुपए की राशि बट्टे खाते में डाल चुकी हैं।
आंकड़े बताते हैं कि साल 2016-17 में बैंकों ने 108374 करोड़ रुपए के, 2017-18 में 161328 करोड़ रुपए के और 2018-19 की पहली छ:माही में 82799 करोड़ रुपए के ‘खराब कर्जे’ माफ किए, ताकि बैलेंस शीट को साफ सुथरा दिखाया जा सके। 2018-19 की अक्टूबर-दिसंबर वाली तिमाही में तो इस काम में इतनी तेजी आई कि बैंकों ने 64 हजार करोड़ की भारी भरकम राशि राइट ऑफ कर डाली। यानी 533 करोड़ रुपए रोज माफ किए गए।
बट्टे खाते के इस गोरखधंधे का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि बैंकों ने जिन लोगों के कर्जे इस तरह राइट ऑफ किए उनकी पहचान छुपा ली गई। जबकि खुद बैंक यूनियनें लंबे समय से यह मांग करती आ रही हैं कि जो लोग भारी भरकम कर्जे के डिफॉल्टर हैं, उनका पूरा ब्योरा सार्वजनिक किया जाना चाहिए। लेकिन बैंकों ने ऐसा कभी नहीं किया। देश का हजारों करोड़ रुपया डकार जाने वाले लोगों के नाम तक उजागर न करना यह बताता है कि यह सारा खेल कॉरपोरेट और बैंकों की मिलीभगत से चल रहा है।
जहां तक सरकारों का सवाल है। वे भी दूध की धुली नहीं हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारत में चुनाव का खर्च लगातार बढ़ता जा रहा है। चुनाव में धनबल का महत्व इतना अधिक हो गया है कि मामूली इंसान चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। चुनाव में धन की इसी ताकत के चलते राजनीतिक दलों को चुनाव के वक्त खूब पैसा चाहिए होता है और ऐसा ज्यादातर पैसा इन्हीं कॉरपोरेट से मिलता है।
इस पैसे के एवज में सरकारें उन कॉरपोरेट के हित साधने वाली नीतियां बनाती हैं और उन पर चढ़े सरकारी बैंकों के कर्जे माफ होते चले जाते हैं। बैंक जब इस पर हायतौबा मचाते हैं तो उनका मुंह बंद करने के लिए सरकारें बेलआउट पैकेज लेकर आ जाती हैं। जैसे 2018 में ही सरकार ने बैंकों को पुनर्पूंजीकरण कार्यक्रम (रिकेपिटलाइजेशन प्रोग्राम) के तहत 2.11 लाख करोड़ की सहायता दी। अब यह बात अलग है कि इसके बावजूद बैंकों का एनपीए बढ़कर 10 लाख करोड़ हो गया।