विजयमनोहर तिवारी
स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर का लेख चर्चा में है। नर्मदा पर बने बांधों के संदर्भ में उन्होंने मेधा पाटकर को लेकर महत्वपूर्ण बात कही है। उन्होंने कहा है कि हमने उनकी दलीलों पर भरोसा किया लेकिन मेधा पाटकर गलत साबित हुईं। जैसा वे सोच रही थीं, वैसा कुछ नहीं हुआ। अय्यर ने ‘अर्बन नक्सल’ का भी जिक्र किया है। एक ऐसी शहरी जमात, जो अपने तयशुदा इरादों और खास नजरिए को लेकर बदनाम और बेनकाब है। अय्यर के अनुभवों पर शायद मेधा पाटकर की प्रतिक्रिया नहीं आई है, जिन्होंने 35 साल तक ‘सामाजिक सरोकारों की साधना’ की है। उन्हें इस दीर्घ साधना की सिद्धियों के बारे में देश को अवश्य बताना चाहिए।
अय्यर के लेख पर दिल्ली से एक एडिटर ने मुझे इंदिरा सागर बांध में 18 साल पहले डूबे हरसूद कवरेज की याद दिलाई। 2004 के मानसून में हरसूद को इंदिरा सागर बांध के बैक वॉटर में डूबना था। कुल ढाई सौ गांव डूबे थे। हरसूद आखिरी ओवर में गया। वह अकेला ऐसा सबसे बड़ा कस्बा था, जहां अदालत, अनाज मंडी, रेलवे स्टेशन, स्कूल, कॉलेज और व्यस्त बाजार थे और दिल्ली से इंदौर या भोपाल होकर पहुंचना आसान था।
सेटेलाइट टीवी न्यूज चैनल आ चुके। सुब्रत रॉय सहारा चौबीस घंटे के रीजनल सेटेलाइट चैनलों का नेटवर्क शुरू कर रहे थे। मप्र और छत्तीसगढ़ का चैनल लांच हो चुका था। यह अकेला चैनल था, जिस पर चौबीस घंटा हरसूद और बांध के विस्थापितों की मुश्किलों का लाइव प्रसारण शुरू किया गया था। तीन कैमरा यूनिट हरसूद में ही टिकी थीं, जबकि नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया के लोग खंडवा और इंदौर के होटलों से हर दिन आ और जा रहे थे। उनके लिए कवरेज की उतनी ही गुंजाइश थी। घंटे भर के बुलेटिन में दो-ढाई मिनट का पैकेज। रीजनल के लिए यही सबसे बड़ा मसला था। पहली बार लोगों ने स्क्रीन पर बांध के कारण उजड़ते लोगों और उनकी कहानियों को विस्तार से देखा-सुना।
सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मेधा पाटकर की आक्रामक पहचान हरसूद से ही बनी थी। 1989 में हरसूद को हर हाल में बचाने के लिए की गई रैली में 50 हजार कार्यकर्ता देश भर से जुटे थे। वह मेधा की आवाज पर हुआ पहला सबसे बड़ा प्रदर्शन था, जिसमें मेनका गांधी, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा जैसी हस्तियां मंच पर थीं। इंडिया टुडे में एनके सिंह की दो पेज की स्टोरी की हेडलाइन थी- ‘हार न मानने वालों का हौसला।’
पर्यावरण के सवाल पर उस रैली ने मेधा को बड़ी पहचान दी थी। हरसूद डूब गया, मेधा पाटकर क्षितिज पर छा गईं। सूती सफेद साड़ी में एक ऐसी जुझारू महिला, जो पर्यावरण और पुनर्वास को लेकर बड़ी विकास योजनाओं के विरोध में घंटों बोल सकती थीं और फाइलों के पुलिंदे लिए अदालतों में जा सकती थीं।
हमने हरसूद के कवरेज में यह तय किया था कि केवल विस्थापितों की पीड़ा को ही फोकस में रखेंगे, किसी आंदोलन को नहीं। नईदुनिया में प्रवीण शर्मा उन गिने-चुने पत्रकारों में थे, जो मेधा पाटकर के संपर्क में रहकर उनके मुद्दों पर कुछ लिखते थे। 25 साल पहले तब भी मेधा और उनके सहयोगियों को लेकर यह सवाल उठाए जाते थे कि इनके खर्चे कैसे चलते हैं? वे लगातार हवाई यात्राएं कैसे कर पाती हैं? सुप्रीम कोर्ट तक उनके मुकदमों का खर्चा किसकी जेब से आता है? कहा जाता था कि सब कुछ प्रायोजित है, केवल विकास की बड़ी योजनाओं में ब्रेक लगाने के लिए रचा गया प्रपंच है। लेकिन इन अफवाहों के बावजूद जब कभी मेधा पाटकर इंदौर आतीं, उनकी बात बराबर सुनी और छापी जाती थी।
धीरे-धीरे उनका स्पेस घटता गया। मीडिया के फोकस भी बदल गए। फिर यह लगने लगा कि इन्हें कोई और काम ही नहीं है। केवल हर बात में विरोध और हंगामा ही मकसद है। बांधों के बड़े प्रोजेक्ट विरोध का मुकाबला करते हुए लेटलतीफ और बेतहाशा बढ़ती गई लागतों के साथ आगे बढ़ते गए। समय के साथ नया परिदृश्य भी उभरकर सामने आया। भयावह भ्रष्टाचार और अमानवीय विस्थापन की सच्ची कहानियां पीछे छूट गईं, बांधों के जलाशय में जमा हुए पानी ने दूर इलाकों में किसानों को राहत दी। नहरों का जाल बिछा। फसलें मुनाफेदार होने लगीं। विरोधियों की कई भविष्यवाणियां खरी नहीं उतरीं, सरदार सरोवर के संदर्भ में जिनका उल्लेख अय्यर ने किया है।
समय के साथ मेधा पाटकर ब्रांड विरोध बेमानी से होते गए। मीडिया के लिए भी वह गांधी भवन या सर्वोदय आश्रम में होने वाली बेरौनक सी प्रेस कॉन्फ्रेंसों और बमुश्किल डेढ़-दो सौ शब्दों के भीतरी पेजों पर पिटे हुए कवरेज के हश्र को प्राप्त हो गए। एक ही तरह की फिल्म कितने दिन चलती! एक दिन उनके पोस्टर दीवारों पर सूखकर झड़ने ही थे। कोई भी आंदोलन जब तक मौलिक और रचनात्मक विकल्प अपने संघर्ष के साथ-साथ नहीं रचता, एक दिन अपनी चमक खो ही देगा। हार न मानने वालों के हौसले पस्त होने ही थे!
हरसूद पर हमारा कवरेज जल्दबाजी में हो रहे विस्थापन को लेकर था। वह दुनिया का एक आदर्श पुनर्वास भी हो सकता था, बशर्ते राजनीतिक और प्रशासनिक नीयत और इच्छाशक्ति वैसी होती। मगर स्थानीय अफसरों और नेताओं ने आपदा में अपने अवसर देखे। मनमाने मुआवजे तय किए गए। कुछ लोगों ने अपनी तिजोरियां भरीं और ज्यादातर बहुत घाटे में अपनी जमीन से उखड़े।
तीन चौथाई के बहुमत सहित बीजेपी ताजा-ताजा सत्ता में आई थी। बांध बनने के ज्यादातर सालों में कांग्रेस का ही राजपाट रहा था। प्रोजेक्ट भी इंदिरा गांधी के नाम पर ही था। हमारे राजनीतिक तंत्र में नेताओं की ऐसी कोई ट्रेनिंग ही नहीं है कि सत्ता में आने पर उन्हें सबसे पहले क्या करना है और वो क्या है, जो कभी नहीं करना है! बांध के विस्थापन जैसी आमंत्रित आपदाओं के समय दुनिया को दिखाने लायक नजीर कैसे पेश की जा सकती है, इसकी कोई दृष्टि उनके पास नहीं थी। हम भोपाल गैस हादसे के समय भी दोयम दरजे के तंत्र थे और हरसूद के विस्थापन तक वही चरित्र कायम था।
सरकारों और राजनीतिक दलों को तो छोड़िए, आसपास के शहरों और कस्बों के पड़ोसियों का व्यवहार क्या था? खंडवा और खिरकिया जैसे छोटे शहरों में जाकर बस रहे हरसूद के विवश विस्थापितों से मनमाने किराए वसूले गए थे। बिजली की खातिर उजड़ रहे लोगों के प्रति क्या उन पड़ोसियों का कोई दायित्व नहीं था? वे समझ रहे थे कि मोटा मुआवजा वसूलकर लोग निकले हैं। अब इनसे माल खींचने का काम उनका है। भूअर्जन की प्रक्रिया में पटवारी से लेकर कलेक्टोरेट तक सरकारी अमला और उनके दलालों का नेटवर्क लुटेरों की तरह फैल रहा था। एक किस्म की अराजकता और अफरातफरी के बीच हरसूद के आसपास के गांवों के लोग अपना सामान समेट रहे थे।
टीवी चैनलों के जाने से चीजें उजागर हुईं तो पहली बार की मुख्यमंत्री उमा भारती ने अपने तीन कैबिनेट मंत्रियों और पांच प्रमुख सचिवों को ग्राउंड पर दौड़ाया। तब कहीं जाकर भागते भूत की लंगोटी संभाली गई थी। तीस जून हरसूद की डेडलाइन थी और उसी समय स्थानीय विधायक विजय शाह पहली बार मंत्री बनाए गए थे। शपथ के बाद वे जब हरसूद पहुंचे थे तो लाल बत्तियों की गाड़ियों का उनका काफिला उजड़ती हुई बस्ती के बीच से गुजरा था। पहली बार उस सुरक्षित सीट का विधायक मंत्री बना था। उसे जश्न के साथ आना ही था। वह तीस जून की ही तारीख थी। उनके वोटरों ने छाती पर हाथ रखकर सूनी आंखों से अपने नेता को शान से गुजरते हुए देखा।
हमारे टीवी कवरेज के बारे में किसी गांव में कुछ तारीफ सुनकर अरुंधति राय हरसूद की जीनिंग फेक्टरी के उस गोदाम तक चली आई थीं, जहां भुवनेश सेंगर, प्रमोद सिन्हा समेत हमारी ओबी वैन की टीम के बारह-पंद्रह लोग डेरा डाले हुए दिन काट रहे थे। हम तीनों तब तीन अलग लोकेशंस पर कवरेज में थे। अरुंधति के एक प्रतिनिधि मोटर बाइक पर ढूंढते हुए मेरे पास आए और बोले कि दीदी आपसे मिलना चाहती हैं। यह आम बात थी। भोपाल के भी कुछ नेता मुंह दिखाई के लिए कुरते-पाजामे चमकाते हुए हरसूद की तरफ लपक रहे थे। उन सबकी कोशिश होती थी कि सर्वाधिक स्क्रीन पर देखे जा रहे सहारा समय के कवरेज में कैसे भी एक बयान के लिए ही आ जाएं। हमने किसी के सामने कैमरा ऑन नहीं किया। वे अपनी बात भोपाल जाकर कह सकते थे।
हमने अरुंधति के प्रतिनिधि से कहा कि हमारी दिलचस्पी उनमें नहीं है। हम विस्थापितों के लिए यहां आए हैं। वे तो दिल्ली जाकर भी राष्ट्रीय मीडिया से मुखातिब हो सकती हैं। उसने कहा कि दीदी को कोई कवरेज नहीं चाहिए। वे सिर्फ आपसे मिलना चाहती हैं। हम वहां पहुंचे और खंडहर हो रहे मकानों से गुजरते हुए अरुंधति से मिले। अरुंधति ने बताया कि एक गांव के लोगों ने कहा कि इस चैनल की टीम के आने के बाद हमारी पूछपरख शुरू हुई और कुछ कायदे से काम हुआ। वर्ना हम बेमौत मर गए थे। अरुंधति को टीवी चैनलों से शायद ऐसी उम्मीद नहीं रही होगी इसलिए वे आम लोगों की ऐसी प्रतिक्रिया से हैरत में पड़ीं और हमारे दर्शन करने आईं कि आखिर हम कब से यहां हैं और कर क्या रहे हैं?
हमने उन्हें अपना डे-प्लान बताया था और जब लगा कि वे टीवी पर दिखाई देने के लिए आपदा में अवसर देखने वाले नेताओं की तरह बेचैन नहीं हैं, कुछ और ही बात कर रही हैं तब भुवनेश सेंगर ने उनसे एक इंटरव्यू के लिए कहा। वे बहुत इच्छुक नहीं थीं लेकिन राजी हो गईं। हरसूद की गलियों में चलते हुए वह इंटरव्यू भुवनेश ने ही लिया।
करीब दो-ढाई महीने के उस कवरेज में हम तब तक वहां थे, जब तक टेलीफोन और बिजली की सुविधा रही। मैंने लौटकर हरसूद के डूबने के अनुभवों को डायरी की शक्ल में लिखा, जो कुछ महीनों बाद राजकमल प्रकाशन से छपकर आया। 2005 के मानसून तक हरसूद का बिखराव चलता रहा था। उस दस्तावेज में हरसूद के विस्थापित आम परिवारों की कहानियां और किरदार हैं। उनके घरों की आखिरी शादियां और बेदखली के समय चल बसे लोगों की अंतिम यात्राएं हैं। उसी समय जन्मे बच्चों के जिक्र, पुनीत और प्रियंका की प्रेम कहानी, जिनका विवाह हरसूद उजड़ने के बाद खिरकिया में हुआ।
कुलमिलाकर, बांधों या विकास की किसी भी बड़ी परियोजना के कारण विस्थापन और पर्यावरण के नुकसान के सवाल आज भी खत्म नहीं हैं। सरकारों के पास बेहिसाब ताकत होती है। ऐसी योजनाओं में पैसा पानी की तरह बहता है। कम से कम पुनर्वास तो ऐसा हो ही सकता है कि दुनिया आकर उस मॉडल को देखे। इंसानों का ही पुनर्वास नहीं, वन्यजीवों का भी, हरियाली का भी।
मगर दुर्भाग्य है कि राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र के लिए यह कमाने-खाने के सुनहरे अवसर हैं। और सब इसमें सहभागी हैं। आखिर खंडवा, खिरकिया और हरदा के लोगों ने मनमाने किराए और जमीनों के ऊंचे दाम वसूले ही थे। कोई किसी से अलग नहीं है। आंदोलनजीवी भी मंगलग्रह के वासी नहीं हैं। यह हमारे अधोगामी सामूहिक चरित्र की कलंक कथाएं हैं!
मैं 2014 में एक फेलोशिप के तहत दस साल बाद फिर उन इलाकों में गया था। एक बिखरा हुआ समाज मेरे सामने था। जो सक्षम थे, उन्होंने नए शहरों में नए सिरे से खुद को जमा लिया था। ज्यादातर लोग छनेरा नाम के पथरीले मैदान पर तब भी संघर्ष कर रहे थे। दूसरे पुनर्वास स्थलों पर भी जिंदगी पटरी पर नहीं लौटी थी। हालांकि बांध के जलाशय ने बिजली और सिंचाई की नई इबारतें लिखीं, जिनकी चमक में पुरानी कहानियां अब दस्तावेजों पर ही हैं…
(मध्यमत)
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