सम्राट अशोक स्वर्ग में बैठे अपने अंतिम कुछ दिनों को काट रहे थे। शीघ्र ही उन्हें नया जन्म लेना था। कदाचित अबकी लंबा जीवन मिले, ऐसी उन्हें आशा थी।
एक बार उपवन में टहलते हुए उन्हें ‘नारायण नारायण’ की ध्वनि सुनाई दी। लपक कर उस आवाज की दिशा में बढ़े तो उन्हें नारद अपनी मस्ती में वीणा बजाते गुनगुनाते जाते हुए दिखे। अशोक उनके मार्ग में आ गए और प्रणाम करते हुए बोले, “हे मुनि, अशोक का प्रणाम स्वीकार करें।”
नारद मुस्कुराते हुए बोले, “नारायण-नारायण। कैसे हैं अशोक? स्वर्ग में आनन्द तो है?”
“यहां कदाचित सभी आनन्द में हैं मुनिवर।”
“परन्तु आप नहीं हैं? है न?”
“अब क्या कहूँ! मुनिवर, यदि आपके पास समय हो तो कृपया कुछ क्षण अपने सानिध्य का लाभ दें।”
“अवश्य। बताएं कि आपको क्या कष्ट है?”
“मुझे धर्मराज का न्याय समझ नहीं आ रहा। मानव जीवन में मैंने कुछ पुण्य ही किए होंगे, जिनके परिणामस्वरूप मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। परन्तु कुछ समय यहां बिताने के बाद मुझे पुनः उस मृत्युलोक में भेज दिया जाता है। वह भी मानव रूप में नहीं, अपितु ऐसे जीवों के रूप में, जिनका जीवनकाल मानवों के समय के अनुसार कभी एक दिन तो कभी एक माह तक ही होता है। यद्यपि उस जीव के अनुसार वह अल्प समय भी सम्पूर्ण मानव जीवनकाल के बराबर ही होता है। मुझे बार बार मृत्युलोक में क्यों भेजा जा रहा है? मुझे मोक्ष कब मिलेगा?”
“यह तो धर्मराज ही जाने अशोक। यह विभाग मेरा तो है नहीं।”
“मुनिवर! अब आप तो ऐसा न कहें। आपको क्या नहीं ज्ञात? आप त्रिलोक में, तीनों काल में स्वतन्त्र विचरण करते रहते हैं। साक्षात ईश्वर के नित्य दर्शन करते हैं। आपके पास किसी प्रश्न का उत्तर न हो, यह मानने वाली बात तो नहीं!”
“यदि आप सुनना ही चाहते हैं तो मैं अपना अनुमान ही आपको बता सकता हूँ। आपने परमधर्म का पालन किया था। अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं। इसलिए आपको स्वर्ग मिला है। परन्तु अशोक, धर्म का अंधानुकरण धर्म नहीं होता। आपके पितामह सम्राट चंद्रगुप्त ने महर्षि चाणक्य के साथ मिलकर एक साम्राज्य की स्थापना की थी। जनता को नन्द जैसे अत्याचारी के शासन से मुक्त किया था। उन्होंने सिकन्दर और सेल्युकस जैसे आतताइयों से राष्ट्र की रक्षा की थी। यह सब उन्होंने कैसे किया होगा? क्या उन्होंने नन्द को अहिंसा की शिक्षा दी थी? क्या सिकन्दर या सेल्युकस अहिंसा देख अपने घर वापस लौट गए थे?
“नहीं अशोक। नन्द जैसे पापी का वध और आक्रांता यवनों का प्रतिकार शस्त्रों के बल पर किया गया और एक साम्राज्य की नींव रखी गई। वह साम्राज्य वंश परम्परा से आपके पास पहुंचा। कुछ वर्षों तक आपने भी इसकी सेवा की, फिर आप भटक गए। आपने महर्षि गौतम का पंथ स्वीकार कर लिया, जो गलत नहीं था। गौतम से पूर्व भी कितने ही ऋषियों ने अवैदिक पंथ का और अनीश्वरवाद का प्रचार-प्रसार किया था। परन्तु स्वयं गौतम ज्ञानप्राप्ति के लिए अपना राज्य छोड़ चले गए थे और ज्ञानप्राप्ति के बाद वे वापस अपने राज्य लौटकर सत्ता के शीर्ष पर नहीं बैठे। उन्होंने अपने मत का प्रचार एक संत की भांति किया। पर आपने क्या किया? आप बुद्ध के पंथ को स्वीकारने के बाद भी सम्राट बने रहे। आपसे पूर्व किसी भी संत अथवा सम्राट ने प्रजा पर अपने विचार बलात नहीं थोपे थे। आप सम्राट थे, और आपने समस्त प्रजा को बौद्ध बनाने का प्रण ले लिया। क्या आपसे पूर्व किसी वैदिक धर्म मानने वाले राजा ने वैदिक धर्म को प्रश्रय दिया था और अन्य पथों को हतोत्साहित किया था?
“आपने यज्ञादि पर प्रतिबंध लगा दिया। मृगया को अवैध घोषित किया। आपने युवकों और युवतियों को भिक्षु बनने के लिए प्रेरित किया। कोई भिक्षुक क्यों न बने, जब उसे बिना शिक्षित हुए, बिना किसी प्रयास के भोजन, वस्त्र और शैय्या की सुविधा अबाध रूप से मिले! भिक्षुओं को बिना कुछ किए ही सब कुछ प्राप्त हो रहा था। यह देख युवक-युवतियां बौद्ध मत की ओर आकर्षित होते गए। और उन लाखों भिक्षुओं पर होने वाला व्यय कौन वहन करता था? आपकी वह प्रजा जो बौद्ध भिक्षु नहीं थी और परिश्रम करके धन प्राप्त करती थी और उस धन से आप कर वसूलते थे। आपने शिलाओं पर लिखवाया कि ब्राह्मण और श्रमण दोनों का सम्मान करो पर ब्राह्मणों के धर्म अर्थात वैदिक वालों के परिश्रम के बल पर आपने भिक्षुओं का पोषण किया।
“आपने वैदिक जनता को हतोत्साहित किया, और अवैदिक जनता को नाकारा बना दिया। आपकी मृत्यु के मात्र तीस वर्षों के भीतर ही यवनों ने पुनः राष्ट्र पर आक्रमण किया और वे एक के बाद एक राज्य जीतते हुए मगध की सीमा तक आ गए। ये यवन अपने पूर्वजों सिकन्दर और सेल्युकस जैसे सेनानायकों से दुर्बल थे। सेल्युकस तो सिंध भी पार नहीं कर पाया था और सिकन्दर भी बस पंचनद प्रदेश तक ही सीमित रह गया था। उसे एक-एक योजन भूमि के लिए अत्यधिक श्रम करना पड़ा था। मात्र सौ डेढ़ सौ वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि वे यवन भारत की मुख्य भूमि तक निर्बाध बढ़ते चले आए थे?
“मैं ही बताता हूँ अशोक। इन वर्षों में आप हुए थे, जिन्होंने राष्ट्र की क्षात्रशक्ति को इतना दुर्बल बना दिया था कि लोग शस्त्र को, स्वाभिमान को, प्रतिकार को भूल चुके थे।
“कर्मफल तो मिलता ही है अशोक। आपके अहिंसा धर्म ने आपको स्वर्ग भले दिला दिया हो, पर आपके कर्मों के फल पूरे राष्ट्र को भोगने पड़े थे। अभी भी वह भोग ही रहा है। जब तक आपके कर्मों की छाया राष्ट्र से पूर्णतः समाप्त नहीं हो जाती, तब तक आपको यह स्वर्गरूपी नरक भोगना ही होगा।
“नारायण-नारायण”
(सोशल मीडिया से साभार)